हैरान करने वाले आंकड़े बताते हैं कि अमरीका में टिशु पेपर का बाज़ार लगभग ₹2,213 अरब का है। उत्पादन के हिसाब से तीन कंपनियां इस बिज़नेस की लीडर हैं – प्रॉक्टर एण्ड गैंबल, जॉर्जिया-पैसिफ़िक औक किंबरली क्लार्क। ध्यान देने लायक बात यह है कि ये कंपनियां टिशु बनाने के लिये री-साइकल किये सामान का इस्तेमाल नहीं करती हैं।इसका अर्थ यह है कि ये कंपनियां अपने प्रॉडक्ट की मुलायमियत को बरकरार रखने के लिये फ़िज़ूल में पेड़ कटवाए जा रही हैं।
मुझे अपना बचपन याद है। जब हम रेलवे के घर में पंजाब के एक छोटे शहर मौड़ मंडी में रहा करते थे। बाऊजी वहां स्टेशन मास्टर थे। उससे पहले की यादें थोड़ी धुंधली हैं। मगर अच्छी तरह याद है कि गुसलखाना और पाख़ाना अलग-अलग होते थे और एक दूसरे से दूरी पर होते थे।
ज़ाहिर है कि आप हैरान अवश्य होंगे कि आज का संपादकीय कैसा है जिसमें गुसलख़ाने और पाख़ाने की बात हो रही है। तो मैं आपको बताना चाहूंगा कि आज के संपादकीय में पाख़ाना – जिसे हम आजकल माडर्न भाषा में टॉयलेट कहते हैं – केन्द्र बिन्दु में है।
रेलवे क्वार्टरों में हम पढ़े लिखे लोग होने का नाटक करते थे तो पाख़ाने को लैट्रीन कहते थे और गुसलख़ाने को बाथरूम। हमारे यहां लैट्रीन ऐसी होती थी जिसमें एक लोहे का बना लंबा से आयताकार पॉट होता था। सारे परिवार का मल्ल उसी पॉट में इकट्ठा हो जाता और जमादार या जमादारनी आकर उस मल्ल को उठा कर ले जाते और पॉट को पानी से साफ़ कर देते।
उसके बाद अगली स्थिति आई कि घर की लैट्रीन में एक गड्ढा खोदा जाता था और वो ख़ासा गहरा होता था। उसी में सारा मलमूत्र इकट्ठा होता रहता और धरती में जज़्ब होता रहता। शहरों में तरक्की के साथ-साथ पहले एक इंडियन स्टाइल का फ़्लश बनना शुरू हुआ जिसे पुराने भारतीय तरीके से ही बैठ कर इस्तेमाल किया जाता था। इस तरह बैठने से घुटनों की एक्सरसाइज़ हो जाया करती थी। अभी तक लैट्रीन और बाथरूम अलग-अलग ही होते थे।
मुंबई जैसे शहरों में घर तो होते नहीं… फ़्लैट ही होते हैं। वहां तेज़ी से यूरोप और अमरीका की तर्ज़ पर टॉयलट का निर्माण होने लगा। अब बाथरूम और फ़्लश एक ही जगह बनने लगे। और फ़्लश भी यूरोपीय ढंग से कुर्सी-नुमा हो गये। यानी कि आप एक बार टॉयलट में घुसे तो सब पूरा करके ही बाहर निकले।
जब यूरोपीय सिस्टम शुरू हुआ तो साथ ही शुरू हुआ टॉयलट टिशु का इस्तेमाल। फ़िल्म गर्म हवा में बूढ़ी दादी झल्लाते हुए कहती भी है, “ये मुए अंग्रेज कितने गंदे होते हैं। पानी से धोते नहीं काग़ज़ से साफ़ कर लेते हैं।”
काग़ज़ का इस्तेमाल हमारे जीवन में हर जगह होता है। पुस्तकें, समाचार पत्र, सामान की रसीदें, प्रिंटर के लिये पेपर, पोस्टर, लिफ़ाफ़े, ग्रीटिंग कार्ड्स, पोस्ट कार्ड, किचन टॉवल, पेपर नैपकिन और टायलट टिशु – ये सब काग़ज़ से ही बने होते हैं। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि काग़ज़ बनता है पेड़ों से। यानी कि काग़ज़ बनाने के लिये पेड़ काटने पड़ते हैं। पेड़ जिस तेज़ी से कटते हैं उस गति से लगाए नहीं जाते। पेड़ों के कटने से पर्यावरण पर असर पड़ता है और एक शब्द जो हमें बुरी तरह परेशान करता है, उसे कहते हैं – ग्लोबल वार्मिंग।
हमें याद रखना होगा कि पेपर नैपकिन या किचन टॉवल हम बस एक बार हाथ पोंछने के लिये प्रयोग में लाते हैं और फिर कचरे की बिन में फेंक देते हैं। जिन दिनों ज़ुकाम लगा होता है तो नाक पोंछने के लिये टिशु पेपर बहुतायत में इस्तेमाल होता है और उसके माध्यम से ज़ुल्म बेचारे पेडों पर होता है।
टॉयलेट टिशु या टॉयलेट पेपर को हम पेड़ों की कटाई के पीछे एक बड़ा अपराधी मान सकते है। वर्ल्ड वॉच मैगज़ीन की रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में हर दिन तकरीबन 2.70 लाख पेड़ भिन्न ज़रूरतों के लिये काट दिए जाते हैं और इनमें से 10% पेड़ों की कटाई के लिए केवल और केवल टॉयलेट पेपर ज़िम्मेदार हैं। एक तो विश्व की आबादी बढ़ रही है और उस पर तुर्रा यह कि दुनियां भर के देश पश्चिमी शैली अपना रहे हैं। जब यूरोपीयन स्टाइल का पॉट लगेगा तो टिशु पेपर का इस्तेमाल बढ़ेगा ही।
वैसे अरबी देशों ने एक ‘मुस्लिम शॉवर’ की शुरूआत की थी जो अब पश्चिमी देशों के प्रवासी और भारत के मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों में भी अपनाया जा रहा है। इससे आप पॉट तो युरोपीयन इस्तेमाल करते हैं मगर टिशु से पोंछने के स्थान पर शॉवर जेट का इस्तेमाल कर अपने आप को धो लेते हैं।
अब एक हैंड शॉवर लगाना शुरू किया गया है। जिसे हाथ में पकड़ कर पानी से सफ़ाई की जा सकती है। मगर यहां भी बहुत से नख़रे वाले लोग पहले टिशु का इस्तेमाल करके पोंछते हैं और उसके बाद धोते हैं। यानी कि न तो पेड़ों पर मेहरबानी करते हैं और न ही पानी पर। उपभोक्ताओं की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए पेपर कंपनियां बहुत तेज़ी से पेड़ों को काट रही हैं।
हमारी सभ्यता के विकास में टॉयलेट पेपर एक महत्वपूर्ण खोज है और निजी स्वच्छता के लिये इसका सबसे पहला इस्तेमाल छटी शताब्दी में चीन में हुआ था। चौदहवीं सदी तक पहुंचते-पहुचते टॉयलेट पेपर का आधुनिक रूप में इस्तेमाल होने लगा था। इसका ज़िम्मेदार भी हम चीन को ही ठहरा सकते हैं। इसका सबसे अधिक इस्तेमाल शिनज़ियांग प्रांत में हुआ करता था। यहीं से पेड़ों पर अत्याचार की स्थापना हो गई थी।
एक सवाल उठना स्वाभाविक है कि आख़िर आजकल किस-किस देश के नागरिक सबसे अधिक टॉयलेट पेपर का इस्तेमाल करते हैं। एक जांच के बाद यह नतीजा सामने आया कि विश्व में सबसे अधिक टॉयलेट पेपर अमरीका में इस्तेमाल किया जाता है। यहां एक व्यक्ति औसतन एक सप्ताह में लगभग 3 रोल टॉयलेट पेपर इस्तेमाल में लाता है। जब देशों के आंकड़ों की तुलना करते हैं तो हम पाते हैं कि अमरीका में एक वर्ष की प्रति व्यक्ति खपत टॉयलेट पेपर के 141 रोल पड़ती है। वहीं जर्मनी में यह आंकड़ा 134; ब्रिटेन में 127, जापान में 91 और चीन में 49 है।
हैरान करने वाले आंकड़े बताते हैं कि अमरीका में टिशु पेपर का बाज़ार लगभग ₹2,213 अरब का है। उत्पादन के हिसाब से तीन कंपनियां इस बिज़नेस की लीडर हैं – प्रॉक्टर एण्ड गैंबल, जॉर्जिया-पैसिफ़िक औक किंबरली क्लार्क। ध्यान देने लायक बात यह है कि ये कंपनियां टिशु बनाने के लिये री-साइकल किये सामान का इस्तेमाल नहीं करती हैं।इसका अर्थ यह है कि ये कंपनियां अपने प्रॉडक्ट की मुलायमियत को बरकरार रखने के लिये फ़िज़ूल में पेड़ कटवाए जा रही हैं।
दरअसल टॉयलेट पेपर भी एक प्लाई, दो प्लाई, तीन प्लाई और चार प्लाई तक आते हैं। सरकारी दफ़्तरों और रेलवे जैसी संस्थाएं अपने कार्यालय में सिंगल प्लाई टॉयलेट टिशू ही इस्तेमाल करते हैं। सस्ता पड़ता है। मगर उसके बाद अपने-अपने आर्थिक स्तर के हिसाब से लोग महंगे से महंगे टॉयलट पेपर ख़रीदते हैं। चार प्लाई वाले टिशू पेपर डीलक्स क्वालिटी के माने जाते हैं।
अकेला अमरीका टॉयलट टिशू पेपर बनाने के चक्कर में पेड़ काटने के साथ-साथ 1655 अरब लीटर पानी भी बरबाद करता है। और इस चक्कर में हर साल 1.5 करोड़ पेड़ काट दिये जाते हैं। पर्यावरण का सत्यानाश करके विश्व भर में ओज़ोन लेयर और ग्लोबल वार्मिंग का लेक्चर भी अमरीका ही पूरे विश्व को देता रहता है।
अमरीकी कंपनियां अकेले इतना पेपर इस्तेमाल करती हैं, जिससे पृथ्वी को तीन बार लपेटा जा सकता है। ऐसे में पेपरलेस होते बिजनस को बेहतर कदम कहा जा सकता है। ब्रिटेन के बैंक अब अपनी मासिक स्टेटमेंट प्रिंट करके नहीं भेजते। ऑनलाइन उपलब्ध करा देते हैं आप जब चाहें खोल कर देख लें। सुपर मार्केट में भी जब आप सौदा ख़रीदते हैं तो आपसे पूछा जाता है, “क्या आप रसीद लेना चाहेंगे?” इसके पीछे एक ही मंशा होती है कि किसी भी तरह काग़ज़ को बचाया जा सके।
रेस्टॉरेंट, शादी ब्याह की पार्टियों, जन्मदिन के अवसर पर ना जाने कितने मेज़पोश काग़ज़ के बने लगाए जाते हैं। हर प्लेट के लिये एक या दो पेपर नैपकिन इस्तेमाल किये जाते हैं। बस एक बार हाथ पोंछे और कचरे की टोकरी में डाल दिये। ठीक इसी तरह पेपर प्लेट और पेपर कप भी इस्तेमाल होते हैं।
कोरोना काल के बाद तो वेट टिशू और एंटी-बैक्टीरियल टिशू भी फ़ैशन में आ गये हैं। अब हर दूसरा आदमी वेट-टिशु से अपना चेहरा साफ़ करता दिखाई दे जाता है।
इन्सान की प्रकृति कुछ ऐसी है कि वह चाहता है कि दुनिया तो बदल जाए मगर उसे ख़ुद को बिल्कुल ना बदलना पड़े। सरकार या सरकारें सब कुछ ठीक कर दें, मगर उससे कुछ करने को ना कहा जाए। हम पानी भी व्यर्थ बहाएंगे, टॉयलेट पेपर भी इस्तेमाल करेंगे, फ़्रिज, एअर कंडीशनर, कार, स्कूटर सब इस्तेमाल करेंगे मगर सरकार किसी तरह पर्यावरण के स्वच्छ कर दे।
एक ज़माना था जब हम अपनी जेब में रुमाल रखा करते थे… अपने साथ छोटा तौलिया रखा करते थे। भोजन के बाद वॉश बेसिन पर जाकर हाथ और मुंह धोया करते थे और तौलिये से पोंछ लिया करते थे। जैसे-जैसे पश्चिम का प्रभाव बढ़ा हम काग़ज़ी होते चले गये। और इसी काग़ज़ ने हमारे पेड़ों को हमसे छीनना शुरू कर दिया। अब हम समझ नहीं पा रहे कि, पर्यावरण को बचाया कैसे जाए!
पर्यावरण अब दुनियाभर की समस्या है ,ग्लोबल वार्मिंग के नतीजे भी महसूस किए जा रहे हैं लगता है मनुष्य द्वारा निर्मित भौतिकतावाद से मनुष्य का ही विनाश होगा ।पेड़ संरक्षण बेहद जरूरी है ,ऐसे उत्पाद प्रतिबंधित होने ही चाहिए जो पर्यावरण को सीधे तौर पर असंतुलित कर रहे हैं। सम्पादकीय के चोकाने वाले तथ्यों से मैं सहमत हूँ।
Dr Prabha mishra
सादर धन्यवाद सर … मेरा सबसे प्रिय विषय पर्यावरण और पेड़ों की सुरक्षा। आजका संपादकीय अत्यंत महत्वपूर्ण है। आपका एक वाक्य उद्धृत करना चाहूँगी कि “पेड़ जिस तेज़ी से कटते हैं उस गति से लगाए नहीं जाते।” सत्य है सर, कदाचित् मानव जाति को इसका दुःख या पश्चाताप हो। सभी प्राकृतिक वस्तुओं का विनाश करने में मनुष्य ही उत्तरदायी है। केवल अपनी सुरक्षा, अपना स्वार्थ, अपने ही क्षणिक आनंद हेतु सृष्टि का सर्वनाश करने में कभी भी पीछे नहीं हटता। आशा करती हूँ यह संपादकीय सबके मन को एवं नैतिक भाव को स्पर्श करे। पुनः धन्यवाद सर
धन्यवाद संपादक जी, आपने पाखाना शब्द का प्रयोग किया so called शालीन शब्दों का नहीं। ऐसे में शुद्ध देसी भाषा की कहावत लिखने का साहस आया,
शौच पहले मैदानों में जाते थे, हर वक्त लोटा और पानी उपलब्ध नहीं होता था। एक कहावत प्रचलित थी गांवों में –
-पंच कंकंणम् नदी – नाला, घिस्सम-घिस्सम समुद्दरम्-
अर्थात् “यदि शौच के बाद पांच कंकड़ों से सफाई की तो नदी नाले से धोने का पुन्य मिला यदि घास पर अच्छी तरह से घिस कर सफाई की तो समुद्र में धोने का पुण्य प्राप्त होता है।”
फलतः ना पानी का दुरुपयोग ना कागज़ का, पुण्य अलग से।
बात 24 कैरेट सही कि इंसान खुद सभी नालायकी करे और सरकार सब ठीक कर दे, नहीं तो उखाड़ फेंकेंगे…
भारतीय तरीका अच्छा है थोड़े से पानी का कमाल और सब शुद्ध स्वच्छ।
रुमालों का अस्तित्व खत्म होना बहुत दु:खद है, दिखावे के पीछे मनुष्य अपना सर्वनाश कर रहा है, कुछ भी सुनने या करने को तैयार नहीं।
शायद इस लेख से कोई इक्का दुक्का सबक ले, धन्यवाद
बेहतरीन लेख
समस्या की जड़, विश्लेषण और समाधान तक सभी कुछ है अगर ध्यान से पढ़ा जाए।
आधुनिकता की अंधी दौड़ में पर्यावरण की किसको पड़ी है बस दिखावे के लिए ‘अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस
पर फ़ोटो ओप कर नंबर बनाने में लगे रहते हैं।
रूमाल की अहमियत और पानी का संतुलित प्रयोग फिर से सोचने का विषय है।
साधुवाद
आदरणीय हर बार की तरह इस बार भी आपका संपादकीय एक एक बड़ी चुनौती का हल लेकर आया है। कुछ साल पहले लगभग 15 साल पहले हम दुबई घुमने गये वहाँ एयरपोर्ट से लेकर पाँच सितारा होटलों तक में जेट लगे थे। बच्चों और हमको यह बहुत भाया नीदरलैंड आ कर हमने यह उपर और नीचे दोनों टॉयलेट में यह लगवा लिया। हमारे आस पास लव काम पर गोरे ही हमारे मित्र है । जब वह हमारे घर आते और यह देखते तो उन्हें बहुत अलग लगता । धीरे धीरे उन्हें यह समझ आ ही गया कि इससे पैसे, पर्यावरण, हाईजीन सब का फ़ायदा है। हमारे कई गोरे मित्रों ने भी अपने घरों में यह लगवा लिया है। एक सार्थक सम्पादकीय लिखने के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएँ
कागज़ का इस्तेमाल सिर्फ़ किताबों के लिए किया जाए और वह भी सीमित मात्रा में, तभी हम पेड़ों की ज़िंदगी बचा सकेंगे और दुनिया को बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग से निजात दिला सकेंगे। टॉयलेट पेपर जैसे मामूली दिखने वाले, किन्तु प्रासंगिक और अत्यावश्यक विषय पर संपादकीय लेखन के लिए पुरवाई के संपादक आदरणीय तेजेन्द्र शर्मा जी बधाई के पात्र हैं।
Your Editorial of today rightly points out how the overuse of paper plates,toilet paper, toilet rolls (specially in the USA,and European countries) is causing immense harm to our global environment n even resulting in trees almost reaching a point of elimination because paper is made from trees.
Whereas paper should be put to better use,in the production of more books.
A wake- up call indeed
And timely too.
Warm regards
Deepak Sharma
Deepak ji it has been our endeavour to discuss matters that affect our lives. This is a matter that concerns human race as a whole. Thanks for your encouraging words.
बहुत समीचीन संपादकीय,
डिस्पोज़ेबल पोतड़ों की बात रह ही गई, अमेरिका में तो शिशुओं की माताएं 5 वर्ष की आयु तक उन्हें मल मूत्र त्याग करने के स्थान की शिक्षा नहीं दे पाती हैं। किंडर गार्डन में भेजे जाते बच्चों को जब डायपर पहन कर जाते देखती हूं ,तो कलेजा फटता है शायद 5 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर अमेरिका का एक बालक/बालिका एकाध टन पोतड़े (डायपर)इस्तेमाल कर चुका होता है। बुजुर्गों के तो पोतड़ों का चलन अभी बहुत नया है और वे उनका इस्तेमाल शायद बहुत अधिक विवशता में ही करते होंगे हालांकि विज्ञापन उसको भी बढ़ावा देने के लिए ‘कृतसंकल्प’ हैं। क्या होगा इस धरती का?
एक और ज्वलंत मुद्दे को समग्र रूप से प्रस्तुत कर ,पाठकों को संवेदित करता एक और बेमिसाल संपादकीय। पर्यावरण भी कोई मुद्दा है और विकसित देशों और विश्व के प्राचीनतम सभ्यता के देश की भस्मासुरी प्रवृति और बाद में अति विकसित देशों की कारगुजारी को तर्क संगत अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है।
पुराने भारत की शुचिता और सभ्यता को भी टच किया गया है और यह औचित्यपूर्ण भी है।वेस्टर्न कमोड के आदी भारतीय अपनी स्वाभाविक पसंद जो मिडिल ईस्ट देशों से मिलती है।एक भौगोलिक औचित्य का भी आभास होता है।
भारत सरकार की सेवाएं रहते हुए ,अपने देश का प्रतिनिधित्व विश्व के चोटी और चुनिंदा अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेलों में किया और सुबह को टॉयलेट पेपर से सामना हुआ तो बड़ी कोफ्त भी महसूस हुई।
पेड़ों का प्रयोग इस कार्य हेतु निश्चित रूप से निंदनीय और भर्त्सना के योग्य है। तिस पर भी
कहावत है कि ठाडे का डर,मारे भी और रोने ना दे ,,,,बस यही एशियन या अन्य अल्प,विकाशील देशों की नियति है।
बस यही सूरत या स्थिति बदलनी चाहिए
दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल और शैलेंद्र जी का गीत दोनों ही याद आ रहे हैं,,,
बेवजह ,,,करना मेरी आदत नहीं ,,,बस ये सूरत बदलनी चाहिए,,,
कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं,इंसान को कम पहचानते हैं,ये पूरब है पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं
हम तो पेड़ों को भी जीवधारी मानते हैं,,इसकी वैज्ञानिक पुष्टि भी एक भारतीय वैज्ञानिक श्री जे सी बोस ने की थी।
अस्तु एक शानदार नज़ीर पेश करता संपादकीय,जिसमें संपादक का प्रारब्ध,वर्तमान और भविष्य दर्शन! जी जान से लगे है और यह संपादकीय सामने है।
बधाई हो पुरवाई परिवार को।
एक बार फिर से ज्वलंत मुद्दा शत शत नमन है आपको। भारत में भी वेस्टर्न टॉयलेट की डिमांड दिन-ब-दिन बढ़ रही है पर शुक्र है भगवान का की यहां अभी तो शावर का इस्तेमाल किया जाता है कितना बड़ा इत्तेफाक है ना सर कागज के लिए पेड़ काटो, फिर उसी कागज पर लिखो वृक्ष बचाओ
ग्लोबल वार्मिंग पर जितने उपदेश अमेरिका सारे विश्व को देता है, उसकी वह खुद ही पालना करे तो शायद काफी परिवर्तन हो। भारत की अपनी परंपरा में पर्यावरण के प्रति पूजनीय भाव है, परंतु पश्चिम का अंधानुकरण और लालच उससे भी नहीं छूटा है। क्या ही अच्छा हो कि अपनी परंपराओं को पुनः शिरोधार्य करें और वृक्षों के प्रति अपनी आस्था को जिलाए। वृक्ष लगाएँ और ग्लोबल वार्मिंग को धता बताएँ। सम्यक आलेख के लिए धन्यवाद।
पर्यावरण संरक्षण की बात तो सब जगह हो रही है पर टिश्यू पेपर को पर्यावरण से इस तरह जोड़ कर देखने का नज़रिया वाक्य ही नया लगा। इस ओर ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद। वस्तुत: एक दुर्लभ किंतु बहुत जरूरी सरोकार वर्तमान संदर्भ में। धन्यवाद।
बेहद गंभीर प्रश्न है पर्यावरण का।
बहुत गहरी पड़ताल है इसमें और इतिहास की छानबीन भी।
समस्या. का हल कैसे हो।
भारत अनुकरण करने में सिद्धहस्त है।भोजन और पेपर नैपकिन की बरबादी यहाँ आम बात है।
हरियाली के लिए त्राहिमाम हो रहा है।
हल तो यही कि पेड़ लगाए जाएँ और टिशू पेपर और नैपकिन की बरबादी न की जाए।
पानी की बरबादी भी कम हो।
नयी समस्याओं की ओर ध्यान दिलाने हेतु आभार।
महत्वपूर्ण, प्रासांगिक विषय है पर्यावरण। इसको बचाने में हम सभी को जागरूक होना होगा।इस संपादकीय को पढ़ने वाला पाठक भी अपने स्तर पर इस लेख को सांझा करके जागरूकता फैला सकता है। बहुत बहुत धन्यवाद सर महत्वपूर्ण व गंभीर विषय पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए।
पेड़ों की सुरक्षा के लिए पुनः केवल पानी पर निर्भर होना होगा। दोंनो की हानि नहीं होनी चाहिए।
सही मुद्दा. विरोध आवश्यक।
वैसे बता दूँ, मैं अख़बार, विज्ञापन, प्रैक्टिकल कॉपी और बिलादि के पीछे के पन्ने रफ कार्य, लिस्ट बनाने के लिए बचपन से करती रही हूँ. कागज के टुकड़े पर भी. अपनाकर देखें।
ऊपर आपने जिस तरह की मल त्याग के व्यवस्था की बात की, इस पर एक कहानी मिरग मारिचा हंस के दलित विशेषांक में छपी थी. आँखों देखी
आपके संपादकीय आपके गहन अध्ययन और सजग दृष्टि के परिचायक होते हैं। आलेख से स्पष्ट है कि टिशू पेपर भी पर्यावरणीय संकट के एक कारक हैं। अच्छा तो आपके पिता श्री भी स्टेशन मास्टर थे और आपको भी यह प्रोफसन विरासत में मिल गयी, देशांतर के साथ। कभी इस पर भी एक आत्मकथ्य हो जाय।
सर, बहुत ही अच्छा और नया विषय उठाया है आपने.. इस विषय पर शायद पहले कहीं नहीं पढ़ा है.. हमेशा की तरह एक विस्तृत और ज्ञानवर्धक जानकारी और पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति सचेत कराता एक सार्थक संपादकीय..सादर नमन
आपका आज का संपादकीय पेड़ों को टॉयलेट में फ्लश न करें, पुरानी यादों को ताज़ा करने के साथ न केवल सोचने को मजबूर करता है वरन समाज को चेतावनी भी देता है कि अगर आज भी हम न सुधरे तो हम पूरी मानवता को खतरे में डाल देंगे जिसको हमारी अपनी ही पीढ़ियां न केवल भुगतेंगी वरन हमें दोष का भागी भी बनाएंगी।
मैं 2009 में अमेरिका गई थी तब मैं यह देखकर आश्चर्यचकित रह गईं थी कि लोग टॉयलेट में पेपर का उपयोग करते हैं। अपने देश में भी कुछ अत्याधुनिक कहे जाने वाले लोग इसे अपनाने लगे हैं बिना यह जाने कि अपने देश की परिस्थितियों में क्या उचित है क्या अनुचित। विकसित देश कुछ नई चीजों को अपनाते हैं उन्हीं को विकासशील देश बिना यह सोचे समझे अपनाने लगते हैं कि यह उनके देश के पर्यावरण पर कितना बुरा असर डालेगा। विकसित देशों की जनसंख्या कम है, भूभाग अधिक है, वहां शायद पर्यावरण पर इतना अधिक प्रभाव आज के समय में न पड़ रहा हो तभी वे ग्लोबल वार्मिंग के लिए सीधे-सीधे विकासशील देशों को भी जिम्मेदार ठहरा देते हैं। पेड़ काटना अपराध होना चाहिए क्योंकि
एक रिसर्च के अनुसार 1 पेड़ 10-25 किलो CO2 प्रतिवर्ष सोखता है। 1 व्यक्ति विश्राम के समय एक साल में 170 किलो तथा भौतिक श्रम के समय 2000 किलो co2 सांस के माध्यम से छोड़ता है। अतः पेड़ काटना कम करने के साथ हमें जनसंख्या नियंत्रण भी करना होगा।
ईश्वर अंश जीव अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ।।
सो मायाबस भयऊ गोसाई ।
बंध्यो कीट मरकट की नाइ ।।
आधुनिकतम भोगवादी मनुष्य जिसने स्वयं चैतन्य होते हुए भी जड़ को ही जीवन का परम लक्ष्य सुख का आधार माना है, और आज यह स्थिति हो चुकी है, कि वह विनाश के कगार पर है। अपनी अंतहीन आकांक्षाओं के दुष्चक्र में जिस तरह प्रकृति और पर्यावरण का नाश कर रहा है,इसका दुष्परिणाम तो सर्वविदित है, किंतु फिर भी वह चेता नहीं रहा। वृक्षों के दोहन से जंगलों के साथ-साथ जीव-जंतुओं,पशु- पक्षियों का विनाश तो हो ही रहा है, साथ ही जल चक्र,जलवायु परिवर्तन जैसी विकट स्थिति आज चहुं और व्याप्त है। इन सब का एक ही कारण है मनुष्य का प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ता लोभ; इन समस्याओं का परिहार और नियंत्रण संभव है,किंतु विषयों का अत्यधिक आकर्षण, वस्तुओं को उत्कृष्ट रूप में प्राप्त करने की लिप्सा ने मानव बुद्धि को हर लिया है, आज वास्तव में परम चैतन्य की भक्ति रूपी कृपा ही उसे सद्बुद्धि प्रदान कर सकती है,यदि उसमें भी वह मात्र अपना स्वार्थ ना देखे तो ही यह संभव हो पाएगा।
आदरणीय आपका यह संपादकीय प्रासंगिक स्त्रोतों का तथ्यपरक उद्धरणयुक्त और पाठकबुद्धि को झकझोरने वाला है। निश्चय ही इस प्रकार के आंकड़े चौंकाने वाले हैं, मेरी दृष्टि में निश्चय ही वन क्षेत्रों के विलुप्त होने का एक बड़ा कारण टिशू पेपर की आवश्यकता भी बनता जा रहा है और इसकी रोकथाम के लिए हम ही आगे आ सकते हैं, टिशू पेपर का उपयोग हमें आवश्यकतानुसार ही करना चाहिए और जहाँ तक हो सके,उसके अनावश्यक प्रयोग से बचें जहां टिशू पेपर आवश्यक ना हो उन देशों को इसका आयात, उत्पादन व निर्माण प्रतिबंधित करना अनिवार्य हो जाना चाहिए।
आदरणीय आपके द्वारा ज्ञात हुए अमेरिका,जर्मनी,ब्रिटेन आदि के आंकड़े भयावह है,वैश्विक स्तर पर इस संदर्भ में
यू.एन.ई.पी को संज्ञान लेना अत्यावश्यक है। आशा है आपके इस जागरूक करते संपादकीय से इस क्षेत्र में अवश्य ही आवश्यक कदम उठाए जाएंगे।
अपने उचित ही कहा, “इन्सान की प्रकृति कुछ ऐसी है कि वह चाहता है कि दुनिया तो बदल जाए मगर उसे ख़ुद को बिल्कुल ना बदलना पड़े। सरकार या सरकारें सब कुछ ठीक कर दें, मगर उससे कुछ करने को ना कहा जाए।”
क्योंकि यह बिल्कुल इसी प्रकार है,जैसे की आजादी तो सभी को चाहिए थी,लेकिन मानव मंशा यह थी, कि भगत सिंह पैदा तो हों, लेकिन पड़ोस के घर में।
अत: पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण ना कर, वृक्षों को बचाने का सुप्रयास सभी के द्वारा किया जाना अब आवश्यकता नहीं अनिवार्यता बन चुकी है। अत्यंत महत्वपूर्ण संपादकीय के लिए आपको साधुवाद आदरणीय।
टिश्यू पेपर पेड़ों के काटने से जुड़ा है, प्रकृति के गर्भ में कम होते जा रहे पानी से हर हाल में इन दैनिक क्रियाओं के लिए चिंतित होना होगा।
अब कोई और विकल्प सोचना होगा क्या? नव सृजन, संचयन और मितव्ययिता सभी अपनानी होगी नहीं तो हम उस कगार पर आ गये हैं। पाश्चात्य देशों की संस्कृति को हमने अपनाया जरूर है लेकिन उसकी महत्ता को गहराई से समझने की जरूरत नहीं समझी। हम आधुनिक बन गये दिखाने के लिए लेकिन कहीं अपनी प्रवृत्तियों को छोड़ नहीं पाये।
सब लोग इस बारे में बात तो करते हैं कि पेङ बहुत तेजी से कट रहे हैं । इस ग्लोबल वार्मिंग के जिम्मेदार भी हम ही हैं । मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं कि लोग खुद कुछ करना नहीं चाहते बस सरकारों से उम्मीद लगाते हैं कि वे ही कुछ करें और दोषारोपण भी उन पर ही होता है। हम सबको अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी यदि हमें अपनी और अपनी आने वाली पीढियों को इस ग्लोबल वार्मिंग से सुरक्षित करना है ।
जांच पड़ताल करता हुआ।सोचने को विवश करता हुआ अनोखा सम्पादकीय है।
टॉयलेट पेपर प्रयोग हेतु जनमानस को हतोत्साहित करने के लिए मुहिम चलाने की आवश्यकता है आज।पेड़ बचेंगे तो हम बचेंगे।
पर्यावरण का मुद्दा आज सबसे बड़ा मुद्दा है l आपने बहुत अहम चीज पर ध्यान दिलाया l जो काम पहले रुमाल और छोंटी तौलिया से हो जाता था, वहाँ भी पेपर का इस्तेमाल प्रकृति का अनावश्यक दोहन है l भारत में भी इसका प्रचलन बढ़ा है, टॉयलेट पेपर के इस्तेमाल के मामले में देशी- विदेशी एक हो रहे हैं l इसके लिए मुहिम शुरू करने की जरूरत है, जैसी की आपने की l ज्वलंत विषय पर तर्कसंगत संपादकीय के लिए बहुत बधाई सर
अपने संपादकीय में आपने अत्यंत महत्वपूर्ण विषय उठाया है ।जितने तरीके से हम वृक्षों को काटने से रोक सकते हैं, अपने पर्यावरण को बचा सकते हैं,वे सारे उपाय हमें करने ही चाहिए ।जिस तरह से अपने यह विषय उठाया है, इसी तरह गाहे -ब-गाहे इसकी याद दिलाने की जरूरत है क्योंकि आखिर इसका दंश भी तो हम ही झेल रहे हैं। पश्चिमीकरण की ऐसी आंधी चली है कि बिना अच्छे बुरे का ध्यान किए हम अंधानुकरण कर रहे हैं। अच्छी बातों को ग्रहण करना चाहिए किंतु गलत बातों से बचना भी चाहिए। हार्दिक धन्यवाद।
आदरणीय तेजेन्द्र जी!
सबसे ज्यादा आश्चर्य और क्रोध दोनों ही अमेरिका के लिए महसूस हुआ जब पढ़ा कि अमेरिका में टिशु पेपर का बाज़ार लगभग ₹2,213 अरब का है और कितने अधिक पेड़ इसके लिए कटते हैं। सबसे ज्यादा विकसित समझे जाने वाला देश ही जब इस तरह की लापरवाही पर उतारू है तो फिर क्या ही कहा जाए!
हमें तो सारे तरह के अनुभव है। हम देसी से ही विदेशी तक पहुँचे हैं।हम लोग नहानीघर कहते थे।और पखाना शब्द का हम लोगों ने उपयोग नहीं किया। बचपन का तो याद नहीं की क्या कहते थे। वैसे भी हमारी आदत है कि जो शब्द हमें अच्छे नहीं लगता हम उन शब्दों का प्रयोग संकेत से कर लिया करते हैं। वनस्थली में बाथरूम जाने के लिए नंबर वन का प्रयोग होता था और पाखाने के लिये नंबर 2 का। इसके अलावा उंगलियों का भी प्रयोग होता था ।चिटी (कनिष्ठा) उंगली दिखाने का मतलब बाथरूम जाना है और दो उंगली(तर्जनी और मध्यमा )दिखाने का मतलब…… नंबर दो। स्कूल में भी अगर बाथरूम जाना हो तो सर या जीजी से नंबर वन और नंबर टू का ही शब्द प्रयोग होता था। या फिर उंगलियों के इशारे का। यही आदत घर में भी रही।
आपके पाखाने शब्द से अकबर बीरबल का एक चुटकुला याद आ गया।
आले में का सेव
पाखाने का देव।
पर हमें तो पानी का ही प्रयोग पहले भी पसंद था और आज भी वही पहली और आखिरी पसंद है।
टिशू पेपर इस तरह के उपयोग में प्रयोग करने की बात सुनकर भी घिन मचती हैं।
जब तक पता नहीं था कि यह पेड़ों से बनते हैं तब तक तो यह बहुत अच्छे लगते रहे लेकिन जब पता चला कि पेड़ों से बनते हैं तो बहुत ही ज्यादा दुख हुआ।
एक पल कल्पना में दधिचि ऋषि याद आ गए जिन्होंने लोक कल्याण की भावना से देवताओं के हित में वृत्तासुर को मारने के लिये अपनी हड्डियों का खुशी -खुशी दान कर दिया था।
आधुनिक काल में अगर वास्तव में कोई संत कहलाने योग्य है तो वह पेड़ पौधे ही हैं। बकरे को तो बाँध के हलाल किया जाता है पर वृक्ष तो खामोशी से अपना बलिदान दे देते हैं।
पर्यावरण की चिंता आज सबसे अधिक और सबसे बड़ी जरूरत है और पढ़ा लिखा देश अमेरिका ही इसकी सबसे ज्यादा अवहेलना कर रहा है। देश हो या विदेश सभी के लिए यह नियम बनना चाहिये कि जितने पेड़ आपको काटने हैं पहले आप इतने पेड़ लगाइए उसके बाद ही आपको पेड़ काटने की अनुमति मिलेगी अन्यथा नहीं।
कपड़े क्यों नहीं प्रयोग कर सकते? हम तो आज भी अपने किचन में बिना कपड़ों के काम नहीं कर सकते। वह बात अलग है कि अब हमें किचन में जाने की जरूरत नहीं पड़ती।
पहले तो हम लोग पुराने कपड़ों का ही उपयोग किया करते थे। सूती कपड़ों का। पुरुषों की सफेद बनियाइन पुरानी होने के बाद।चौके में चार कपड़े बेहद जरूरी होते थे। एक उसने(गुँथे) हुए आटे पर गीला करके ढाँकने के लिए, एक बर्तनों को पोंछने के लिए थाली वगैर परसने के पहले पोछने के लिये। तीसरा हाथ पोछने के लिये।और एक रोटी रखने के लिये। हम आज भी अपने पुराने सूती गाउन जब पहनना बंद कर देते हैं तो उसे काट के टुकड़ों में तरह कर के रख लेते हैं। रफ यूज के लिये। टिशू पेपर तो हम लोग बच्चों के लिए भी यूज नहीं करते आज भी।
और हमारे बेटियों और बहुओं ने भी ऐसा नहीं किया।
हम तो आज भी उलझन में हैं कि आधुनिकता की पहचान किस तरह से बदल रही है! बाजार किस तरह से सबको बिगाड़ने पर तुला हुआ है। हम कितने आराम पसंद होते जा रहे हैं।शरीर उतना ही अधिक बीमार होता जा रहा है। जैसे-जैसे आधुनिकता बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे इंसान की उम्र कम होती जा रही है। हमारे इस साइड तो आज भी हर पुरुष गर्मी के दिनों में गमछा गले में लटकाए मिलेगा भले ही रंग सफेद हो या कोई और ।ज्यादा गर्मी होती है तो उसको बढ़िया गीला कर लेते हैं और कसकर निचोड़ के डाल लेते हैं गले में। और रुमाल भी रखते हैं जेब में सूती।
हमें दिखावे से ऊपर उठकर सोचना चाहिए। कोई क्या सोचेगा से पहले यह सोचना चाहिए कि हम खुद क्या सोचते हैं?
इस बार के संपादकीय का निचोड़ यही है कि वृहद स्तर पर पर्यावरण के प्रति सबको सचेत किया जाए। वृक्षारोपण की जरूरत और महत्व को बताया जाए।इस विषय को लेकर जागरूकता अभियान चलाया जाए ।सबसे ज्यादा वृक्षारोपण की जरूरत जंगलों को है। वहां वृक्षारोपण की पहल की जाये। इसका अर्थ यह बिल्कुल भी ना लिया जाए कि शहरों में इसकी जरूरत नहीं है शहरों में भी है।
सबसे अधिक पेड़ पीपल,बड़ और नीम के लगाए जाएँ।
एक बार पुनः एक नए और महत्वपूर्ण संपादकीय के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया है तेजेन्द्र जी!
और पुरवाई का आभार तो बनता ही है।
आदरणीय नीलिमा जी, आपने व्यस्त रहते हुए भी संपादकीय और अन्य रचनाएं पढ़ीं। हार्दिक आभार। हमारी एक सहयोगी का कहना है कि जब आप कहीं व्यस्त हो जाती हैं तो पुरवाई परिवार में सन्नाटा छा जाता है। हमारी कामना है कि प्रभु आपको सेहत बख़्शें और आप चाहे कितनी भी व्यस्त क्यों न हों, आपको पुरवाई की रचनाएं पढ़ने और उन पर टिप्पणी देने का अवसर मिलता ही रहे।
अरे वाह! खुशी हुई आपको पढ़कर। कई लोग इनबॉक्स में भी हमसे जुड़कर कहते हैं। पर हमको पढ़कर जैसा महसूस होता है हम वैसा ही लिखते हैं बिना प्रयास।।एक बार अमेरिका से वॉट्सएप कॉल था। काफी देर उन्होंने बात की। नाम तो हमें अब याद नहीं।हालांकि उन्होंने कहा था मुझे पत्र लिखना अच्छा लगता है तो हमने बताया कि हमें भी अच्छा लगता है और उन्होंने हमसे कहा था कि मैं पत्र लिखूंगी।खैर…. शुक्रिया आपका।
जब आपने इतना कहा है तो एक बात और बता दें कि इस समय हमें हाथों में बहुत तकलीफ हैं। ऑपरेशन से सबसे ज्यादा नुकसान हमारे हाथों को ही हुआ है। हम दोनों ही हाथों में मोबाइल ज्यादा समय तक नहीं पकड़ सकते। पूरे कंधे तक में दर्द होने लगता है। उल्टे हाथ की प्रॉब्लम ज्यादा है। सुबह के वक्त थोड़ा फ्री रहते हैं तो बैठकर पैर पर या टेबल पर रखकर लिखते हैं।
थोड़ा बहुत दोपहर को लिखते हैं ज्यादातर रात को ही लिखने की आदत थी लेकिन लेट कर लिखना अभी नहीं हो पाता।कम-कम इसीलिए लिख रहे। बोलकर लिखते हैं फिर उसे सुधारते हैं।
अब लग रहा है कि डॉक्टर को दिखाना ही पड़ेगा।
ईश्वर करे आप लोगों की दुआ से ही हम स्वस्थ रहें।
एक बार बोलना शुक्रिया आपका दिल से।
Very nice article अब नो टिशु पेपर का कैंपन चलाने की ज़रूरत है,
हार्दिक आभार आलोक।
पर्यावरण अब दुनियाभर की समस्या है ,ग्लोबल वार्मिंग के नतीजे भी महसूस किए जा रहे हैं लगता है मनुष्य द्वारा निर्मित भौतिकतावाद से मनुष्य का ही विनाश होगा ।पेड़ संरक्षण बेहद जरूरी है ,ऐसे उत्पाद प्रतिबंधित होने ही चाहिए जो पर्यावरण को सीधे तौर पर असंतुलित कर रहे हैं। सम्पादकीय के चोकाने वाले तथ्यों से मैं सहमत हूँ।
Dr Prabha mishra
आपसे सहमत। इस ख़ूबसूरत टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
सादर धन्यवाद सर … मेरा सबसे प्रिय विषय पर्यावरण और पेड़ों की सुरक्षा। आजका संपादकीय अत्यंत महत्वपूर्ण है। आपका एक वाक्य उद्धृत करना चाहूँगी कि “पेड़ जिस तेज़ी से कटते हैं उस गति से लगाए नहीं जाते।” सत्य है सर, कदाचित् मानव जाति को इसका दुःख या पश्चाताप हो। सभी प्राकृतिक वस्तुओं का विनाश करने में मनुष्य ही उत्तरदायी है। केवल अपनी सुरक्षा, अपना स्वार्थ, अपने ही क्षणिक आनंद हेतु सृष्टि का सर्वनाश करने में कभी भी पीछे नहीं हटता। आशा करती हूँ यह संपादकीय सबके मन को एवं नैतिक भाव को स्पर्श करे। पुनः धन्यवाद सर
आपकी इमोशनल टिप्पणी हमारे लिए महत्वपूर्ण है अनिमा जी। हार्दिक आभार।
बहुत सही मुद्दा उठाया आपने.
हार्दिक आभार डॉक्टर कीर्ति काले।
धन्यवाद संपादक जी, आपने पाखाना शब्द का प्रयोग किया so called शालीन शब्दों का नहीं। ऐसे में शुद्ध देसी भाषा की कहावत लिखने का साहस आया,
शौच पहले मैदानों में जाते थे, हर वक्त लोटा और पानी उपलब्ध नहीं होता था। एक कहावत प्रचलित थी गांवों में –
-पंच कंकंणम् नदी – नाला, घिस्सम-घिस्सम समुद्दरम्-
अर्थात् “यदि शौच के बाद पांच कंकड़ों से सफाई की तो नदी नाले से धोने का पुन्य मिला यदि घास पर अच्छी तरह से घिस कर सफाई की तो समुद्र में धोने का पुण्य प्राप्त होता है।”
फलतः ना पानी का दुरुपयोग ना कागज़ का, पुण्य अलग से।
बात 24 कैरेट सही कि इंसान खुद सभी नालायकी करे और सरकार सब ठीक कर दे, नहीं तो उखाड़ फेंकेंगे…
भारतीय तरीका अच्छा है थोड़े से पानी का कमाल और सब शुद्ध स्वच्छ।
रुमालों का अस्तित्व खत्म होना बहुत दु:खद है, दिखावे के पीछे मनुष्य अपना सर्वनाश कर रहा है, कुछ भी सुनने या करने को तैयार नहीं।
शायद इस लेख से कोई इक्का दुक्का सबक ले, धन्यवाद
शैली जी, आपकी त्वरित टिप्पणी सच में spontaneous महसूस हो रही है। हार्दिक आभार।
बेहतरीन लेख
समस्या की जड़, विश्लेषण और समाधान तक सभी कुछ है अगर ध्यान से पढ़ा जाए।
आधुनिकता की अंधी दौड़ में पर्यावरण की किसको पड़ी है बस दिखावे के लिए ‘अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस
पर फ़ोटो ओप कर नंबर बनाने में लगे रहते हैं।
रूमाल की अहमियत और पानी का संतुलित प्रयोग फिर से सोचने का विषय है।
साधुवाद
पूनम जी आपने संपादकीय को सही पकड़ा है। हार्दिक आभार।
आदरणीय हर बार की तरह इस बार भी आपका संपादकीय एक एक बड़ी चुनौती का हल लेकर आया है। कुछ साल पहले लगभग 15 साल पहले हम दुबई घुमने गये वहाँ एयरपोर्ट से लेकर पाँच सितारा होटलों तक में जेट लगे थे। बच्चों और हमको यह बहुत भाया नीदरलैंड आ कर हमने यह उपर और नीचे दोनों टॉयलेट में यह लगवा लिया। हमारे आस पास लव काम पर गोरे ही हमारे मित्र है । जब वह हमारे घर आते और यह देखते तो उन्हें बहुत अलग लगता । धीरे धीरे उन्हें यह समझ आ ही गया कि इससे पैसे, पर्यावरण, हाईजीन सब का फ़ायदा है। हमारे कई गोरे मित्रों ने भी अपने घरों में यह लगवा लिया है। एक सार्थक सम्पादकीय लिखने के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएँ
ऋतु आपने निजी अनुभव साझा करके संपादकीय को समझने में सहायता की है। हार्दिक आभार।
बिल्कुल सही लिखा आपने जहां देखो वहीं टिशु पेपर का इस्तेमाल पेड़ों के बारे में किसी को भी चिंता नहीं। बहुत बढ़िया बधाई।
हार्दिक आभार भाग्यम जी।
बेहद सारगर्भित और महत्वपूर्ण विषयों पर केंद्रित है पत्रिका; बधाई और शुभकामनाएं;निश्चित ही पाठकों के लिए आप बड़ी मेहनत कर रहे है।
कागज़ का इस्तेमाल सिर्फ़ किताबों के लिए किया जाए और वह भी सीमित मात्रा में, तभी हम पेड़ों की ज़िंदगी बचा सकेंगे और दुनिया को बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग से निजात दिला सकेंगे। टॉयलेट पेपर जैसे मामूली दिखने वाले, किन्तु प्रासंगिक और अत्यावश्यक विषय पर संपादकीय लेखन के लिए पुरवाई के संपादक आदरणीय तेजेन्द्र शर्मा जी बधाई के पात्र हैं।
इस उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार पुनीत भाई।
Your Editorial of today rightly points out how the overuse of paper plates,toilet paper, toilet rolls (specially in the USA,and European countries) is causing immense harm to our global environment n even resulting in trees almost reaching a point of elimination because paper is made from trees.
Whereas paper should be put to better use,in the production of more books.
A wake- up call indeed
And timely too.
Warm regards
Deepak Sharma
Deepak ji it has been our endeavour to discuss matters that affect our lives. This is a matter that concerns human race as a whole. Thanks for your encouraging words.
बहुत समीचीन संपादकीय,
डिस्पोज़ेबल पोतड़ों की बात रह ही गई, अमेरिका में तो शिशुओं की माताएं 5 वर्ष की आयु तक उन्हें मल मूत्र त्याग करने के स्थान की शिक्षा नहीं दे पाती हैं। किंडर गार्डन में भेजे जाते बच्चों को जब डायपर पहन कर जाते देखती हूं ,तो कलेजा फटता है शायद 5 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर अमेरिका का एक बालक/बालिका एकाध टन पोतड़े (डायपर)इस्तेमाल कर चुका होता है। बुजुर्गों के तो पोतड़ों का चलन अभी बहुत नया है और वे उनका इस्तेमाल शायद बहुत अधिक विवशता में ही करते होंगे हालांकि विज्ञापन उसको भी बढ़ावा देने के लिए ‘कृतसंकल्प’ हैं। क्या होगा इस धरती का?
सरोजिनी जी ‘disposable nappies’ and ‘Sanitary pads’ की भूमिका भी विकराल है।
एक और ज्वलंत मुद्दे को समग्र रूप से प्रस्तुत कर ,पाठकों को संवेदित करता एक और बेमिसाल संपादकीय। पर्यावरण भी कोई मुद्दा है और विकसित देशों और विश्व के प्राचीनतम सभ्यता के देश की भस्मासुरी प्रवृति और बाद में अति विकसित देशों की कारगुजारी को तर्क संगत अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है।
पुराने भारत की शुचिता और सभ्यता को भी टच किया गया है और यह औचित्यपूर्ण भी है।वेस्टर्न कमोड के आदी भारतीय अपनी स्वाभाविक पसंद जो मिडिल ईस्ट देशों से मिलती है।एक भौगोलिक औचित्य का भी आभास होता है।
भारत सरकार की सेवाएं रहते हुए ,अपने देश का प्रतिनिधित्व विश्व के चोटी और चुनिंदा अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेलों में किया और सुबह को टॉयलेट पेपर से सामना हुआ तो बड़ी कोफ्त भी महसूस हुई।
पेड़ों का प्रयोग इस कार्य हेतु निश्चित रूप से निंदनीय और भर्त्सना के योग्य है। तिस पर भी
कहावत है कि ठाडे का डर,मारे भी और रोने ना दे ,,,,बस यही एशियन या अन्य अल्प,विकाशील देशों की नियति है।
बस यही सूरत या स्थिति बदलनी चाहिए
दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल और शैलेंद्र जी का गीत दोनों ही याद आ रहे हैं,,,
बेवजह ,,,करना मेरी आदत नहीं ,,,बस ये सूरत बदलनी चाहिए,,,
कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं,इंसान को कम पहचानते हैं,ये पूरब है पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं
हम तो पेड़ों को भी जीवधारी मानते हैं,,इसकी वैज्ञानिक पुष्टि भी एक भारतीय वैज्ञानिक श्री जे सी बोस ने की थी।
अस्तु एक शानदार नज़ीर पेश करता संपादकीय,जिसमें संपादक का प्रारब्ध,वर्तमान और भविष्य दर्शन! जी जान से लगे है और यह संपादकीय सामने है।
बधाई हो पुरवाई परिवार को।
भाई सूर्यकांत जी हमेशा की तरह आपकी टिप्पणी संपादकीय की तमाम परतें खोल कर पाठक के सामने रख देती है। हार्दिक आभार।
एक बार फिर से ज्वलंत मुद्दा शत शत नमन है आपको। भारत में भी वेस्टर्न टॉयलेट की डिमांड दिन-ब-दिन बढ़ रही है पर शुक्र है भगवान का की यहां अभी तो शावर का इस्तेमाल किया जाता है कितना बड़ा इत्तेफाक है ना सर कागज के लिए पेड़ काटो, फिर उसी कागज पर लिखो वृक्ष बचाओ
अंजु जी, इस सार्थक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
ग्लोबल वार्मिंग पर जितने उपदेश अमेरिका सारे विश्व को देता है, उसकी वह खुद ही पालना करे तो शायद काफी परिवर्तन हो। भारत की अपनी परंपरा में पर्यावरण के प्रति पूजनीय भाव है, परंतु पश्चिम का अंधानुकरण और लालच उससे भी नहीं छूटा है। क्या ही अच्छा हो कि अपनी परंपराओं को पुनः शिरोधार्य करें और वृक्षों के प्रति अपनी आस्था को जिलाए। वृक्ष लगाएँ और ग्लोबल वार्मिंग को धता बताएँ। सम्यक आलेख के लिए धन्यवाद।
पर्यावरण संरक्षण की बात तो सब जगह हो रही है पर टिश्यू पेपर को पर्यावरण से इस तरह जोड़ कर देखने का नज़रिया वाक्य ही नया लगा। इस ओर ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद। वस्तुत: एक दुर्लभ किंतु बहुत जरूरी सरोकार वर्तमान संदर्भ में। धन्यवाद।
आदरणीय संतोष जी, इस उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
बेहद गंभीर प्रश्न है पर्यावरण का।
बहुत गहरी पड़ताल है इसमें और इतिहास की छानबीन भी।
समस्या. का हल कैसे हो।
भारत अनुकरण करने में सिद्धहस्त है।भोजन और पेपर नैपकिन की बरबादी यहाँ आम बात है।
हरियाली के लिए त्राहिमाम हो रहा है।
हल तो यही कि पेड़ लगाए जाएँ और टिशू पेपर और नैपकिन की बरबादी न की जाए।
पानी की बरबादी भी कम हो।
नयी समस्याओं की ओर ध्यान दिलाने हेतु आभार।
मीरा जी, आपने सही कदम सुझाए हैं। हार्दिक आभार।
महत्वपूर्ण, प्रासांगिक विषय है पर्यावरण। इसको बचाने में हम सभी को जागरूक होना होगा।इस संपादकीय को पढ़ने वाला पाठक भी अपने स्तर पर इस लेख को सांझा करके जागरूकता फैला सकता है। बहुत बहुत धन्यवाद सर महत्वपूर्ण व गंभीर विषय पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए।
सार्थक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार अपूर्वा जी।
पेड़ों की सुरक्षा के लिए पुनः केवल पानी पर निर्भर होना होगा। दोंनो की हानि नहीं होनी चाहिए।
सही मुद्दा. विरोध आवश्यक।
वैसे बता दूँ, मैं अख़बार, विज्ञापन, प्रैक्टिकल कॉपी और बिलादि के पीछे के पन्ने रफ कार्य, लिस्ट बनाने के लिए बचपन से करती रही हूँ. कागज के टुकड़े पर भी. अपनाकर देखें।
ऊपर आपने जिस तरह की मल त्याग के व्यवस्था की बात की, इस पर एक कहानी मिरग मारिचा हंस के दलित विशेषांक में छपी थी. आँखों देखी
अनिता जी आपकी निजी अनुभवों से भरपूर साहित्यिक टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार।
आपके संपादकीय आपके गहन अध्ययन और सजग दृष्टि के परिचायक होते हैं। आलेख से स्पष्ट है कि टिशू पेपर भी पर्यावरणीय संकट के एक कारक हैं। अच्छा तो आपके पिता श्री भी स्टेशन मास्टर थे और आपको भी यह प्रोफसन विरासत में मिल गयी, देशांतर के साथ। कभी इस पर भी एक आत्मकथ्य हो जाय।
अरविंद भाई इस स्नेह से परिपूर्ण टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार।
सर, बहुत ही अच्छा और नया विषय उठाया है आपने.. इस विषय पर शायद पहले कहीं नहीं पढ़ा है.. हमेशा की तरह एक विस्तृत और ज्ञानवर्धक जानकारी और पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति सचेत कराता एक सार्थक संपादकीय..सादर नमन
आभार और स्नेहाशीष मनीष।
आपका आज का संपादकीय पेड़ों को टॉयलेट में फ्लश न करें, पुरानी यादों को ताज़ा करने के साथ न केवल सोचने को मजबूर करता है वरन समाज को चेतावनी भी देता है कि अगर आज भी हम न सुधरे तो हम पूरी मानवता को खतरे में डाल देंगे जिसको हमारी अपनी ही पीढ़ियां न केवल भुगतेंगी वरन हमें दोष का भागी भी बनाएंगी।
मैं 2009 में अमेरिका गई थी तब मैं यह देखकर आश्चर्यचकित रह गईं थी कि लोग टॉयलेट में पेपर का उपयोग करते हैं। अपने देश में भी कुछ अत्याधुनिक कहे जाने वाले लोग इसे अपनाने लगे हैं बिना यह जाने कि अपने देश की परिस्थितियों में क्या उचित है क्या अनुचित। विकसित देश कुछ नई चीजों को अपनाते हैं उन्हीं को विकासशील देश बिना यह सोचे समझे अपनाने लगते हैं कि यह उनके देश के पर्यावरण पर कितना बुरा असर डालेगा। विकसित देशों की जनसंख्या कम है, भूभाग अधिक है, वहां शायद पर्यावरण पर इतना अधिक प्रभाव आज के समय में न पड़ रहा हो तभी वे ग्लोबल वार्मिंग के लिए सीधे-सीधे विकासशील देशों को भी जिम्मेदार ठहरा देते हैं। पेड़ काटना अपराध होना चाहिए क्योंकि
एक रिसर्च के अनुसार 1 पेड़ 10-25 किलो CO2 प्रतिवर्ष सोखता है। 1 व्यक्ति विश्राम के समय एक साल में 170 किलो तथा भौतिक श्रम के समय 2000 किलो co2 सांस के माध्यम से छोड़ता है। अतः पेड़ काटना कम करने के साथ हमें जनसंख्या नियंत्रण भी करना होगा।
आपने गंभीर आंकड़ों के साथ अपनी बात रखी है सुधा जी। इस सार्थक एवं निजी अनुभवों वाली टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार।
ईश्वर अंश जीव अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ।।
सो मायाबस भयऊ गोसाई ।
बंध्यो कीट मरकट की नाइ ।।
आधुनिकतम भोगवादी मनुष्य जिसने स्वयं चैतन्य होते हुए भी जड़ को ही जीवन का परम लक्ष्य सुख का आधार माना है, और आज यह स्थिति हो चुकी है, कि वह विनाश के कगार पर है। अपनी अंतहीन आकांक्षाओं के दुष्चक्र में जिस तरह प्रकृति और पर्यावरण का नाश कर रहा है,इसका दुष्परिणाम तो सर्वविदित है, किंतु फिर भी वह चेता नहीं रहा। वृक्षों के दोहन से जंगलों के साथ-साथ जीव-जंतुओं,पशु- पक्षियों का विनाश तो हो ही रहा है, साथ ही जल चक्र,जलवायु परिवर्तन जैसी विकट स्थिति आज चहुं और व्याप्त है। इन सब का एक ही कारण है मनुष्य का प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ता लोभ; इन समस्याओं का परिहार और नियंत्रण संभव है,किंतु विषयों का अत्यधिक आकर्षण, वस्तुओं को उत्कृष्ट रूप में प्राप्त करने की लिप्सा ने मानव बुद्धि को हर लिया है, आज वास्तव में परम चैतन्य की भक्ति रूपी कृपा ही उसे सद्बुद्धि प्रदान कर सकती है,यदि उसमें भी वह मात्र अपना स्वार्थ ना देखे तो ही यह संभव हो पाएगा।
आदरणीय आपका यह संपादकीय प्रासंगिक स्त्रोतों का तथ्यपरक उद्धरणयुक्त और पाठकबुद्धि को झकझोरने वाला है। निश्चय ही इस प्रकार के आंकड़े चौंकाने वाले हैं, मेरी दृष्टि में निश्चय ही वन क्षेत्रों के विलुप्त होने का एक बड़ा कारण टिशू पेपर की आवश्यकता भी बनता जा रहा है और इसकी रोकथाम के लिए हम ही आगे आ सकते हैं, टिशू पेपर का उपयोग हमें आवश्यकतानुसार ही करना चाहिए और जहाँ तक हो सके,उसके अनावश्यक प्रयोग से बचें जहां टिशू पेपर आवश्यक ना हो उन देशों को इसका आयात, उत्पादन व निर्माण प्रतिबंधित करना अनिवार्य हो जाना चाहिए।
आदरणीय आपके द्वारा ज्ञात हुए अमेरिका,जर्मनी,ब्रिटेन आदि के आंकड़े भयावह है,वैश्विक स्तर पर इस संदर्भ में
यू.एन.ई.पी को संज्ञान लेना अत्यावश्यक है। आशा है आपके इस जागरूक करते संपादकीय से इस क्षेत्र में अवश्य ही आवश्यक कदम उठाए जाएंगे।
अपने उचित ही कहा, “इन्सान की प्रकृति कुछ ऐसी है कि वह चाहता है कि दुनिया तो बदल जाए मगर उसे ख़ुद को बिल्कुल ना बदलना पड़े। सरकार या सरकारें सब कुछ ठीक कर दें, मगर उससे कुछ करने को ना कहा जाए।”
क्योंकि यह बिल्कुल इसी प्रकार है,जैसे की आजादी तो सभी को चाहिए थी,लेकिन मानव मंशा यह थी, कि भगत सिंह पैदा तो हों, लेकिन पड़ोस के घर में।
अत: पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण ना कर, वृक्षों को बचाने का सुप्रयास सभी के द्वारा किया जाना अब आवश्यकता नहीं अनिवार्यता बन चुकी है। अत्यंत महत्वपूर्ण संपादकीय के लिए आपको साधुवाद आदरणीय।
ऋतु जी, इस गंभीर एवं विस्तृत टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार।
टिश्यू पेपर पेड़ों के काटने से जुड़ा है, प्रकृति के गर्भ में कम होते जा रहे पानी से हर हाल में इन दैनिक क्रियाओं के लिए चिंतित होना होगा।
अब कोई और विकल्प सोचना होगा क्या? नव सृजन, संचयन और मितव्ययिता सभी अपनानी होगी नहीं तो हम उस कगार पर आ गये हैं। पाश्चात्य देशों की संस्कृति को हमने अपनाया जरूर है लेकिन उसकी महत्ता को गहराई से समझने की जरूरत नहीं समझी। हम आधुनिक बन गये दिखाने के लिए लेकिन कहीं अपनी प्रवृत्तियों को छोड़ नहीं पाये।
रेखा जी आपने सही कहा है। कमर तो कसनी होगी।
सब लोग इस बारे में बात तो करते हैं कि पेङ बहुत तेजी से कट रहे हैं । इस ग्लोबल वार्मिंग के जिम्मेदार भी हम ही हैं । मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं कि लोग खुद कुछ करना नहीं चाहते बस सरकारों से उम्मीद लगाते हैं कि वे ही कुछ करें और दोषारोपण भी उन पर ही होता है। हम सबको अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी यदि हमें अपनी और अपनी आने वाली पीढियों को इस ग्लोबल वार्मिंग से सुरक्षित करना है ।
रेणुका जी इस सार्थक टिप्पणी के लिये हार्दिक धन्यवाद।
जांच पड़ताल करता हुआ।सोचने को विवश करता हुआ अनोखा सम्पादकीय है।
टॉयलेट पेपर प्रयोग हेतु जनमानस को हतोत्साहित करने के लिए मुहिम चलाने की आवश्यकता है आज।पेड़ बचेंगे तो हम बचेंगे।
आपने सच कहा निवेदिता जी
पर्यावरण का मुद्दा आज सबसे बड़ा मुद्दा है l आपने बहुत अहम चीज पर ध्यान दिलाया l जो काम पहले रुमाल और छोंटी तौलिया से हो जाता था, वहाँ भी पेपर का इस्तेमाल प्रकृति का अनावश्यक दोहन है l भारत में भी इसका प्रचलन बढ़ा है, टॉयलेट पेपर के इस्तेमाल के मामले में देशी- विदेशी एक हो रहे हैं l इसके लिए मुहिम शुरू करने की जरूरत है, जैसी की आपने की l ज्वलंत विषय पर तर्कसंगत संपादकीय के लिए बहुत बधाई सर
वंदना इस सार्थक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
अपने संपादकीय में आपने अत्यंत महत्वपूर्ण विषय उठाया है ।जितने तरीके से हम वृक्षों को काटने से रोक सकते हैं, अपने पर्यावरण को बचा सकते हैं,वे सारे उपाय हमें करने ही चाहिए ।जिस तरह से अपने यह विषय उठाया है, इसी तरह गाहे -ब-गाहे इसकी याद दिलाने की जरूरत है क्योंकि आखिर इसका दंश भी तो हम ही झेल रहे हैं। पश्चिमीकरण की ऐसी आंधी चली है कि बिना अच्छे बुरे का ध्यान किए हम अंधानुकरण कर रहे हैं। अच्छी बातों को ग्रहण करना चाहिए किंतु गलत बातों से बचना भी चाहिए। हार्दिक धन्यवाद।
आदरणीय तेजेन्द्र जी!
सबसे ज्यादा आश्चर्य और क्रोध दोनों ही अमेरिका के लिए महसूस हुआ जब पढ़ा कि अमेरिका में टिशु पेपर का बाज़ार लगभग ₹2,213 अरब का है और कितने अधिक पेड़ इसके लिए कटते हैं। सबसे ज्यादा विकसित समझे जाने वाला देश ही जब इस तरह की लापरवाही पर उतारू है तो फिर क्या ही कहा जाए!
हमें तो सारे तरह के अनुभव है। हम देसी से ही विदेशी तक पहुँचे हैं।हम लोग नहानीघर कहते थे।और पखाना शब्द का हम लोगों ने उपयोग नहीं किया। बचपन का तो याद नहीं की क्या कहते थे। वैसे भी हमारी आदत है कि जो शब्द हमें अच्छे नहीं लगता हम उन शब्दों का प्रयोग संकेत से कर लिया करते हैं। वनस्थली में बाथरूम जाने के लिए नंबर वन का प्रयोग होता था और पाखाने के लिये नंबर 2 का। इसके अलावा उंगलियों का भी प्रयोग होता था ।चिटी (कनिष्ठा) उंगली दिखाने का मतलब बाथरूम जाना है और दो उंगली(तर्जनी और मध्यमा )दिखाने का मतलब…… नंबर दो। स्कूल में भी अगर बाथरूम जाना हो तो सर या जीजी से नंबर वन और नंबर टू का ही शब्द प्रयोग होता था। या फिर उंगलियों के इशारे का। यही आदत घर में भी रही।
आपके पाखाने शब्द से अकबर बीरबल का एक चुटकुला याद आ गया।
आले में का सेव
पाखाने का देव।
पर हमें तो पानी का ही प्रयोग पहले भी पसंद था और आज भी वही पहली और आखिरी पसंद है।
टिशू पेपर इस तरह के उपयोग में प्रयोग करने की बात सुनकर भी घिन मचती हैं।
जब तक पता नहीं था कि यह पेड़ों से बनते हैं तब तक तो यह बहुत अच्छे लगते रहे लेकिन जब पता चला कि पेड़ों से बनते हैं तो बहुत ही ज्यादा दुख हुआ।
एक पल कल्पना में दधिचि ऋषि याद आ गए जिन्होंने लोक कल्याण की भावना से देवताओं के हित में वृत्तासुर को मारने के लिये अपनी हड्डियों का खुशी -खुशी दान कर दिया था।
आधुनिक काल में अगर वास्तव में कोई संत कहलाने योग्य है तो वह पेड़ पौधे ही हैं। बकरे को तो बाँध के हलाल किया जाता है पर वृक्ष तो खामोशी से अपना बलिदान दे देते हैं।
पर्यावरण की चिंता आज सबसे अधिक और सबसे बड़ी जरूरत है और पढ़ा लिखा देश अमेरिका ही इसकी सबसे ज्यादा अवहेलना कर रहा है। देश हो या विदेश सभी के लिए यह नियम बनना चाहिये कि जितने पेड़ आपको काटने हैं पहले आप इतने पेड़ लगाइए उसके बाद ही आपको पेड़ काटने की अनुमति मिलेगी अन्यथा नहीं।
कपड़े क्यों नहीं प्रयोग कर सकते? हम तो आज भी अपने किचन में बिना कपड़ों के काम नहीं कर सकते। वह बात अलग है कि अब हमें किचन में जाने की जरूरत नहीं पड़ती।
पहले तो हम लोग पुराने कपड़ों का ही उपयोग किया करते थे। सूती कपड़ों का। पुरुषों की सफेद बनियाइन पुरानी होने के बाद।चौके में चार कपड़े बेहद जरूरी होते थे। एक उसने(गुँथे) हुए आटे पर गीला करके ढाँकने के लिए, एक बर्तनों को पोंछने के लिए थाली वगैर परसने के पहले पोछने के लिये। तीसरा हाथ पोछने के लिये।और एक रोटी रखने के लिये। हम आज भी अपने पुराने सूती गाउन जब पहनना बंद कर देते हैं तो उसे काट के टुकड़ों में तरह कर के रख लेते हैं। रफ यूज के लिये। टिशू पेपर तो हम लोग बच्चों के लिए भी यूज नहीं करते आज भी।
और हमारे बेटियों और बहुओं ने भी ऐसा नहीं किया।
हम तो आज भी उलझन में हैं कि आधुनिकता की पहचान किस तरह से बदल रही है! बाजार किस तरह से सबको बिगाड़ने पर तुला हुआ है। हम कितने आराम पसंद होते जा रहे हैं।शरीर उतना ही अधिक बीमार होता जा रहा है। जैसे-जैसे आधुनिकता बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे इंसान की उम्र कम होती जा रही है। हमारे इस साइड तो आज भी हर पुरुष गर्मी के दिनों में गमछा गले में लटकाए मिलेगा भले ही रंग सफेद हो या कोई और ।ज्यादा गर्मी होती है तो उसको बढ़िया गीला कर लेते हैं और कसकर निचोड़ के डाल लेते हैं गले में। और रुमाल भी रखते हैं जेब में सूती।
हमें दिखावे से ऊपर उठकर सोचना चाहिए। कोई क्या सोचेगा से पहले यह सोचना चाहिए कि हम खुद क्या सोचते हैं?
इस बार के संपादकीय का निचोड़ यही है कि वृहद स्तर पर पर्यावरण के प्रति सबको सचेत किया जाए। वृक्षारोपण की जरूरत और महत्व को बताया जाए।इस विषय को लेकर जागरूकता अभियान चलाया जाए ।सबसे ज्यादा वृक्षारोपण की जरूरत जंगलों को है। वहां वृक्षारोपण की पहल की जाये। इसका अर्थ यह बिल्कुल भी ना लिया जाए कि शहरों में इसकी जरूरत नहीं है शहरों में भी है।
सबसे अधिक पेड़ पीपल,बड़ और नीम के लगाए जाएँ।
एक बार पुनः एक नए और महत्वपूर्ण संपादकीय के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया है तेजेन्द्र जी!
और पुरवाई का आभार तो बनता ही है।
आदरणीय नीलिमा जी, आपने व्यस्त रहते हुए भी संपादकीय और अन्य रचनाएं पढ़ीं। हार्दिक आभार। हमारी एक सहयोगी का कहना है कि जब आप कहीं व्यस्त हो जाती हैं तो पुरवाई परिवार में सन्नाटा छा जाता है। हमारी कामना है कि प्रभु आपको सेहत बख़्शें और आप चाहे कितनी भी व्यस्त क्यों न हों, आपको पुरवाई की रचनाएं पढ़ने और उन पर टिप्पणी देने का अवसर मिलता ही रहे।
अरे वाह! खुशी हुई आपको पढ़कर। कई लोग इनबॉक्स में भी हमसे जुड़कर कहते हैं। पर हमको पढ़कर जैसा महसूस होता है हम वैसा ही लिखते हैं बिना प्रयास।।एक बार अमेरिका से वॉट्सएप कॉल था। काफी देर उन्होंने बात की। नाम तो हमें अब याद नहीं।हालांकि उन्होंने कहा था मुझे पत्र लिखना अच्छा लगता है तो हमने बताया कि हमें भी अच्छा लगता है और उन्होंने हमसे कहा था कि मैं पत्र लिखूंगी।खैर…. शुक्रिया आपका।
जब आपने इतना कहा है तो एक बात और बता दें कि इस समय हमें हाथों में बहुत तकलीफ हैं। ऑपरेशन से सबसे ज्यादा नुकसान हमारे हाथों को ही हुआ है। हम दोनों ही हाथों में मोबाइल ज्यादा समय तक नहीं पकड़ सकते। पूरे कंधे तक में दर्द होने लगता है। उल्टे हाथ की प्रॉब्लम ज्यादा है। सुबह के वक्त थोड़ा फ्री रहते हैं तो बैठकर पैर पर या टेबल पर रखकर लिखते हैं।
थोड़ा बहुत दोपहर को लिखते हैं ज्यादातर रात को ही लिखने की आदत थी लेकिन लेट कर लिखना अभी नहीं हो पाता।कम-कम इसीलिए लिख रहे। बोलकर लिखते हैं फिर उसे सुधारते हैं।
अब लग रहा है कि डॉक्टर को दिखाना ही पड़ेगा।
ईश्वर करे आप लोगों की दुआ से ही हम स्वस्थ रहें।
एक बार बोलना शुक्रिया आपका दिल से।
(एक बार बोलना)यह वाक्य रद्द समझा जाए।
प्रकृति अब इंसानी दांव-पेंच में फंस चुकी है।निकलना मुश्किल है।कागज़, पानी, प्रकाश,हवा, आदि सबके सब संकट के द्वारे।
प्रकृति ही आगे आकर हमें चेता रही है ,फिर भी इंसान नहीं मान रहा है,तो वह फल भी भोग रहा है।भाविष्य के लिए सचेत करता सुन्दर आलेख!