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वाई ज़िंदगी जाकर बचानी चाहिए थी
बुढ़ापे के लिए मुझको जवानी चाहिए थी
समंदर भी यहाँ तूफ़ान से डरता नहीं अब
फ़ज़ाओं में सताने को रवानी चाहिए थी
नज़ाकत से नज़ाकत को हरा सकते नहीं हैं
दिखावट भी दिखावे से दिखानी चाहिए थी
बचाना था अगर ख़ुद को ज़माने की जज़ा से
ख़ला में ज़िंदगी तुझको बितानी चाहिए थी
लगा दो आग हाकिम को जला डालो ज़बाँ से
यही आवाज़ पहले ही उठानी चाहिए थी
हुकूमत चार दिन की है, अना किस काम की फिर
तुझे ‘आसिफ़‘ सख़ावत भी दिखानी चाहिए थी
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हिदायत के लिए मैं कुछ बताना चाहता हूँ सुन
निज़ामत के लिए मैं कुछ सुनाना चाहता हूँ सुन
पड़ेगी ख़ाक मुँह पर और दामन चीख़ जाएगा
नज़ाकत के लिए मैं कुछ दिखाना चाहता हूँ सुन
सज़ा दौर-ए-फ़लक की झेलना बस में नहीं तेरे
ख़यानत के लिए मैं कुछ जताना चाहता हूँ सुन
ज़मीं का रंज भी बर्बाद करना जानता है अब
‘अदावत के लिए मैं कुछ दयाना चाहता हूँ सुन
निशाँ यूँ ज़ख़्म का दे दूँ भला कैसे तुझे मैं अब
फ़ज़ाओं के लिए मैं कुछ ख़ज़ाना चाहता हूँ सुन
सख़ावत भी दिखानी चाहिए ‘आसिफ़’ कभी तुझको
ज़माने के लिए मैं कुछ ज़माना चाहता हूँ सुन
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