राजेश सलूजा की तीन ग़ज़लें
अपने ज़ख्मों को हम कहाँ कहाँ रखते
तेरे वादे का एतबार करने का गुनाह सही
वो जो रुसवा हुए तेरी महफिल मेँ अगर
अब फिज़ा साँसों के मुनासिब न सही लेकिन
पत्थरों से हो गए जब ताल्लुक़ अपने फिर
मेरे रगों में क्या जम गया है
मेरी आंखों में बसी हैं नफ़रत
दर्द कुछ और ही शक्ल ले बैठा
सब सलामत था तेरे बग़ैर फिर
वो लेते रहे तलाशी सब्र की
क्या ज़रूरत किसी खंजर की
भीड़ में खुद की तलाश करते हैं
हवा ले गई कहाँ रिश्ते अपने
जाने कहाँ से गुजर गया बचपन अपना
घर के अंदर ही बने कई घर अब तो
कितने किरदारों में बंट गया अब तो
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उम्दा ग़ज़ल है
Dr Prabha mishra
धन्यवाद प्रभा जी।