डॉ. रूबी भूषण की दो ग़ज़लें
हुनर यही तो मेरी ज़िंदगी के काम आए
कनीज़ बन के स्वागत करूँ मैं शाम ओ सहर
हर एक दिन की शुरुआत हो तेरे दम से
कोई तो हो जो लगे ख़ास की तरह मुझ को
नज़र मिले तो नज़र से मैं काम ले लूंगी
मनाऊंगी मैं उसी लम्हा ईद की खुशियां
उन्हीं के हाथों मेरा कत्ल हो गया रूबी
साथ उसका रहा दिल्लगी की तरह
कोशिश तो रही हर दफ़ा ही मगर
जिसको अपना समझ के बुलाया कभी
मैं वह बाती बनी नाम उसका लिए
हम अंधेरे में कब तक भटकते रहे
डॉ रूबी भूषण
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