‘‘मैत्रेयी पुष्पा का साक्षात्कार उनके रचना संसार के साथ

डॉ. महालक्ष्मी केशरी – मैत्रेयी पुष्पा जी, आप अपने सृजन यात्रा का प्रारम्भ कब से मानती हैं ?
मैत्रेयी पुष्पा – सृजन यात्रा की बात अगर मैं करूँ तो सृजन एक चिट्ठी लिखकर भी होता है। जहाँ तक मेरे सृजन की बात है तो मैं बताऊँ कि मेरे गाँव में खेती लगान पर उठाते थे और मेरे घर में कोई पुरुष तो था नहीं जो पैसे लेने जाता (उन्हें हम लोग चाचा जी कहते थे जिनसे खेती लगान पर उठाते थे)। ऐसे में हुआ कि मैंने उन्हें एक चिट्ठी लिखी और वह झट से दो-चार दिनों में पैसे लेकर आ गये। तब माँ ने कहा ‘‘तुमने चिट्ठी में ऐसा क्या लिखा है, जो ये पैसे देने चले आये। तब मुझे पहली बार यह महसूस हुआ कि मेरे शब्दों में असर है। मेरे भीतर क्षमता है और मैं कुछ लिख सकती हूँ फिर तो मैं जब साहित्य में आयी तो लिखने लगी। दिल्ली में जब मैं पहली बार आई तो बड़ा अजनबीपन था। हाँ लिखने के लिए मैंने खूब पढ़ा, मैंने कहानी संग्रह ‘चिह्नार‘ और उपन्यास ‘बेतवा बहती रही‘ लिखा पर मुझे अपने आप पर ही संदेह होता रहा कि मैंने कुछ सही लिखा है। चिह्नार पर हालाँकि मुझे ‘हिन्दी अकादमी‘ का पुरस्कार मिला। जब मैंने इदन्नमम लिखा तो लोगों को खूब पसंद आया। उसका जैसा स्वागत हुआ और उसके बाद उसकी जो प्रतिक्रिया आने लगी तब भी मुझे अपने ऊपर भरोसा नहीं हुआ। राजेन्द्र यादव जी ने उसकी भूमिका स्वयं लिखी। मेरा मानना है कि कोई एक ऐसी रचना आ जाये जो खड़ी हो सके, हम उसे मील का पत्थर तो नहीं कह सकते लेकिन रचना ऐसी हो जो आप को प्रतिष्ठित कर सके, कोई आपको इग्नोर न कर सके। मेरे सामने तो बड़े-बड़े साहित्यकार रहें, नामवर सिंह जी, विद्यानिवास मिश्र जी। नामवर जी ने मुझसे कहा, ‘‘तुम्हारी किताब ‘इदन्नमम‘ पढ़ी‘‘ और विद्या निवास मिश्र जी किताब को टेªन में पढ़ते हुए आ रहे थे। मैं मानती हूँ कि तब से मेरी सृजन यात्रा प्रारम्भ हुई।
डॉ. महालक्ष्मी केशरी – जी, प्रारम्भिक यात्रा में हर एक को संघर्ष करना पड़ता है और संघर्ष के बाद ही वह पहचान पाता है तो आज अपने साहित्यिक संघर्ष के बारे में बातइए। 
मैत्रेयी पुष्पा – शुरू-षुरू में तो मुझे बहुत मुश्किल हुई। परिवार में थी तो सबको सुनना और समझना भी पड़ता था। जब मैं गोष्ठियों में जाती तो जल्दी लौटना होता था। राजेन्द्र यादव जी ने मेरी पाँच कहानियाँ लौटायीं और उन्होंने कहा, ‘‘मैं तुम्हें छापूंगा नहीं। बाद में जब मैं छठवीं कहानी लेकर गयी (जो चकबंदी पर लिखी गई थी) तो उसे उन्हें छापनी पड़ी। इतना ही नहीं ‘सारिका‘ के सम्पादक से मैंने कहा, ‘‘आप ने तो मेरी कहानी पढ़े बगैर ही लौटा दी तो उन्होंने कहा, कोई बात नहीं बाद में पढ़ लूँगा।‘‘ तो इस तरह का अपमान जब कि मेरी उम्र 45 वर्ष के करीब थी मुझे सहन करना पड़ा। लोगों ने मेरी उम्र का भी ख्याल नहीं किया। मैंने कहा, ‘‘मैं लिख कर दिखाउँगी और इदन्नमम का पाँच, छः ड्राफ्ट लिखा।‘‘ मैं परिवार में बहुत सुनती थी। इसमें तुम मुझे चाहे डरपोक कहो, लाचार कहो, कमजोर कहो, कुछ भी कहो पर मैं अपने परिवार में किसी से बहस नहीं करती थी, किसी के सवालों का कोई जवाब नहीं देती थी क्योंकि इससे समय नष्ट होता है और घर का वातावरण कलहपूर्ण होता है। ऐसे में मेरे कार्य में बाधा उपस्थित होती जिससे मेरा लेखन कार्य प्रभावित हो सकता था। मैंने अपने घर के परिजनों को बड़े होने के नाते कभी जवाब नहीं दिया। समय के साथ-साथ जब उनको यह महसूस होता था कि उनसे कुछ गलती हो गई है, तो कुछ नहीं कहते। कभी-कभी उन लोगों को गुस्सा आ जाता था बावजूद इसके मेरा लेखन कार्य चलता रहा। इस तरह से मेरे साहित्यिक सृजन यात्रा का प्रवाह बना रहा। हाँ एक बात मैं और कहना चाहूँगी, राजेन्द्र यादव जी ने मेरे लेखन को खूब सराहा। लोग कहते हैं कि वह एक बदनाम आदमी थे, एक बदनाम सम्पादक थे पर मेरा और उनका रिश्ता बड़े अच्छे से चला। इसका विशेष कारण है कि जो पुरुष होता है वह हर औरत के लिए अलग होता है। यह स्त्री पर निर्भर करता है कि वह पुरूष को कैसे अपने नजदीक आने देना चाहती है। यदि हमें ठीक नहीं लगता तो हम उससे अलग हट सकते हैं। खाली लालच के पीछे हम उससे करीबी रिश्ता बनायें और फिर उसे बदनाम करें यह उचित नहीं है। हाँ एक बात मैं और कहना चाहती हूँ महालक्ष्मी, जो नजदीकी का पुरूष होता है वह बलात्कार तो कर सकता है पर सम्बन्ध नहीं बना सकता। सम्बन्ध तो सहमति से ही बन सकता है। हाँ सहमति से किसी के साथ सम्बन्ध बनाकर फिर उसे बदनाम करना, यह कहाँ तक उचित है ? मैंने एक किताब लिखी है – ‘वह सफर था कि मुकाम था‘। उसमें मैंने कहा है राजेन्द्र यादव जैसे बदनाम आदमी के साथ मेरा रिश्ता क्यों चला ? क्योंकि हम देानों के बीच एक रेखा खींची थी। वह इस पार थे और मैं इस पार थी और हम दोनों के बीच की वह लाइन कभी नहीं टूटी। उन्होंने अपने सिद्धांत बना रक्खे थे और मैंने अपने। मैंने उनसे कहा, राजेन्द्र जी, ‘‘मैं आपसे सीखने आयी हूँ।‘‘ तो उन्होंने कहा, ‘‘तुम सीखने आयी हो तो मैं तुम्हारी पूरी मदद करूँगा।‘‘ एक बात मैं बताऊँ यदि मेरे घर डॉ. साहब नहीं हैं तो वह कभी नहीं आते थे। मैं अकेली हूँ यह सोचकर वह बिल्कुल नहीं आए। हालांकि हमारा मकान सडक़ पर ही त्रिवेणी नगर में था, मैं कभी कभार कहती थी कि राजेन्द्र जी आ जाइए न, तो कहते फिर आयेंगे। उस आदमी ने अपनी मर्यादा अंततः निभाई। मेरे पति, राजेन्द्र यादव जी के लिए कभी कुछ नहीं कहते थे। वह उनकी बहुत इज्जत करते थे। वह जब आते थे तो मेरे पति कहते, ‘आइए सर।‘ उन्होंने कभी भी मुझे और राजेन्द्र यादव जी को लेकर शुबह पैदा नहीं की। यही कारण था कि मैंने वह किताब लिखी। मैं यह संदेश देना चाहती हूँ कि किस मकसद से आप किसी पुरूष के पास गये हैं। पहले यह तय कर लीजिए कि आप किसी लालच से गये हैं या कुछ सीखने के लिए गये हैं अथवा आप अपने जीवन को आगे बढ़ाने के लालच से गये हैं। आखिरकार मकसद क्या है आपका ? ध्यान रहे, लालच वाले मकसद हमें कुएँ या गड्ढे में गिराते हैं। मेरे सृजन के सफर में राजेन्द्र यादव ने मेरा बहुत साथ दिया क्योंकि मेरे पास अनुभव बहुत थे और मैं अपने अनुभवों को उन्हें सुना देती थी। जब मैं 19 साल की थी तब मेरी शादी हुई बाद में 20-25 साल का अनुभव दिल्ली में बीता। ऐसे में मेरे पास 20 साल के अनुभव इतने ज्यादा थे कि उसे सुनकर वह चैंकते थे और यह कहना कि ऐसा तो हो ही नही सकता। मैंने अपनी किताबों में यह सिद्ध किया कि आपने जो धारणाएँ बना रक्खी हैं, वह उचित नहीं हैं।
डॉ. महालक्ष्मी केशरी – जी, आपका प्रेरणा स्रोत कौन रहा है ? आपकी अपनी निजी जिन्दगी का अनुभव या वह चिट्ठी वाला लडक़ा ? 
मैत्रेयी पुष्पा – महालक्ष्मी जी, यदि आप मेरे प्रेरणा स्रोत की बात करती हैं तो मैं आपको बताना चाहती हूँ कि मेरे कॉलेज के दिनों में चिट्ठी वाला लड़का की कविता को जब मैंने पढ़ा तो मुझे यह लगा कि अगर यह लिख सकता है तो मैं क्यों नहीं। हाँ एक बात तो सच है कि उँगली में कलम पकड़ाने का काम उस चिट्ठी वाले लड़के ने किया और बाद में मेरे जीवन का अनुभव। वह कहता था प्रेम भी करती हो और छिपाती भी हो। वह सभी चिट्ठियाँ मैंने डॉ. साहब (पति) को दिर्खाइं थीं। जब मैं ससुराल व्याह कर आई तो उद्धव शतक, कामायनी और अन्य पुस्तकों के साथ उन चिट्ठियों को भी लाई थी। मेरी माँ ने डाँटा पर डॉ. साहब ने मुझे कभी नहीं डाँटा। मैं आज भी उस लड़के की अहसानमंद हूँ कि उसने मुझे लिखने के लिए पे्ररित किया। बाद में मैं नीरज की कविताएँ, नवनीत विशेषांक ले आई। एक बात मैं और बताना चाहती हूँ आपको कि जब तक हमें पढ़ने की आदत नहीं पड़ती, हम लिखने के विषय में कैसे सोच सकते हैं ? ‘चाक‘ पूरा खेरापतिन दादी लेकर चलती हैं, इदन्नमम की मंदा हो या झूलानट की शीलो ये सभी स्त्रियाँ साधारण हैं। मैं इन्हीं साधारण स्त्रियों को अपनी लेखनी में उतारती हूँ। मैंने बचपन में बहुत कुछ पढ़ा जैसे कालिदास, सत्यार्थ प्रकाश आदि। पर लेखन में अपने बड़े-बूढ़ों के अनुभव ही शेष रह गए थे जिसे मैंने लिखने की कोशिश की। मैंने गाँव की उन स्त्रियों की जीवनशैली को भी लिखने की कोशिश की जिसमें वह अपनी खुद्दारी के साथ जीती हैं। बावजूद इसके मैंने शहर की डिग्री प्राप्त औरतों को बहुत डरपोक, बहुत बनावटी देखा है। उनमें हिम्मत ही नहीं है जबकि गाँव की स्त्री श्रमशील होती है। वह बहुत निडर होती है, वह घूँघट मारकर ही चार बातें कह देगी। अगर शहर की स्त्रियों की अदाएँ श्रृंगार हैं तो गाँव की स्त्रियों का साहस ही उनका श्रृंगार है। राजेन्द्र यादव जी ने तो कहा, ‘‘मैत्रेयी ने तो लेखन को बेडरूम और ड्राइंगरूम से खींचकर खलिहानों तक पहुँचा दिया।‘‘ ऐसे में मैं यही कहना चाहूँगी कि इन ग्रामीण स्त्री-चरित्रों को साहस मैं नहीं दे रही, यह उनका स्वयं का अर्जित किया गया है। जिसे मैंने सिर्फ कलमबद्ध किया है। इस प्रकार मेरे निजी जिन्दगी के अनुभव ही मेरे प्रेरणा-स्रोत हैं।
डॉ. महालक्ष्मी केशरी – जी, आप स्त्री-चरित्रों को जो एक ठोस जमीन प्रदान करती हैं तो आप अपने सृजनधर्मिता से यह कैसे कर पाती हैं ? 
मैत्रेयी पुष्पा – ठोस जमीन आदमी नहीं बनाता बल्कि उसके कर्म बनाते हैं। वह जिस तरह चलना चाहता है, बनना चाहता है, वह वैसा ही बनता चलता है। जीवन की सबसे बड़ी शर्त है ‘ईमानदारी‘। पर आज हर इंसान अपनी ईमानदारी नहीं निभा पाता है, वह फिसल जाता है। अगर आप शुरू से अंत तक ईमानदारी निभा गए तब आप का चरित्र ऐसी ठोस जमीन पर खड़ा हो जाता है, जहाँ से कोई हिला नहीं सकता। उस जमीन पर कोई कब्जा नहीं कर सकता, उस पर कोई झूठ नहीं उगा सकता। ऐसे में मेरी सोच यह थी कि मैं ईमानदारी से लेखन कार्य करूँ। सत्य यह है कि ईमानदारी के कारण भीतर से कोई कष्ट नहीं होता। मेरी रचनाओं में जो पात्र हैं, वह चाहे स्त्री हों या पुरुष ईमानदारी से अपनी बातें रखते हैं। महालक्ष्मी, जिसे तुम मजबूत जमीन कह रही हो, वह हमारी ईमानदारी, सत्य और निष्ठा पर खड़ी होती है। इसके लिए आप का जीवन खरा होना चाहिए। आप में सच कहने का साहस हो, उसके लिए किसी झूठ का सहारा न लेना पडे़ इन सब बातों का ध्यान रखना होता है क्योंकि झूठ बोलना या किसी बात को छिपाना वहाँ पड़ता है जहाँ से हम कमजोर होते हैं, तो वह कमजोरी आपमें नहीं आनी चाहिए। मंदा को तुम ले लो, वह कहाँ टूटती है, वह प्रेम को भी आड़े आने नहीं देती है। वह गई थी ऐसे और लौटती है ऐसे कि तुम्हारी मर्जी हो तो मेरे पीछे आओ। वह गई थी शरणागत होकर और लौटती है मुख़्तार होकर तो उसका दर्षन ही यह है। मजबूत तो हम तब होते हैं जब हमारे खिलाफ स्थितियाँ होती हैं। जब उनमें खड़े होने का साहस होगा तभी तो वह मजबूत होंगी, नहीं तो फूलों के पालने में कोई भी झूले।
डॉ. महालक्ष्मी केशरी – मैत्रेयी जी, आप प्रति दो-ढाई वर्ष में एक पुस्तक की सृजन यात्रा तय कर लेती हैं। यह कैसे संभव कर पाती हैं ? 
मैत्रेयी पुष्पा- देखो महालक्ष्मी, लिखने के लिए आपके पास थीम होना चाहिए और आपकी नजर कहाँ पड़ती है। जिसे कहते हैं ‘विजन‘ (दृष्टि और दृष्टिकोण)। उस दृष्टि को आप पकड़ लेते हैं। जिसमें आपको विसंगतियाँ दिखती हैं कि समाज में क्या हो रहा है, तब फिर वह लिख जाता है। तुम इस सन्दर्भ में ‘फाइटर की डायरी‘ को ले लो। मैं जब लड़कियों से मिली और उनसे कुछ बातचीत की तो वह रोने लगीं। मैंने कहा तुम लोग नौकरी में आ गई हो फिर क्यों रोती हो ? इसके आठ दिन बाद मैंने वहाँ के चीफ विकास नारायण राय को फोन किया कि लड़कियाँ रो रही हैं और मैं उनसे फिर से कुछ बातचीत करना चाहती हूँ कि वह क्यों रो रही हैं ? फिर मैं 4 से 8 शाम को 50-50 लड़कियों का एक साथ क्लास लेती और उनसे बात करती कि आखि़र रोने का कुछ विशेष कारण है क्योंकि मुझे लगता है कि यदि आप अपनी सेवा सिपाही या इस्ंपेक्टर बनकर दे रही हैं तो आप सभी को अपने ऊपर गर्व होना चाहिए उसका कारण यह भी है कि आपकी जरूरत हर जगह है। ऐसे में उनकी बात जानने के लिए मुझे खुद अपनी कहानी उन्हें सुनानी पड़ती थी। (मुझे अपना कलेजा चाक करना पड़ता है) जब उन्होंने मेरी सब बातें सुनी तो वह अपना सब कुछ बताने लगीं, कोई अपने घर से तो कोई अपने पति से परेशान थी। मैं उनसे कहती कि तुम सब पर कुछ लिखूँगी मगर नाम बदलकर, तो वह कहतीं नहीं मेरे नाम से ही लिखिए तब मैं उन्हें समझाती कि देखो ससुराल में तुम्हें दिक्कते आयेंगी। इसी आधार पर मैंने ‘फाइटर की डायरी‘ नामक अपनी किताब लिखी। जब कोई किताब पहली लिखनी शुरू होती है तो ज्यादातर उपन्यास ही लिखे हैं। कहानी तो लगभग 45 के करीब लिखी है। उपन्यास जब लिखना शुरू करती हूँ तो घंटों का कोई हिसाब नहीं रहता है। इदन्नमम और चाक के तो 7-7 ड्राफ्ट लिखे। मैं अगर लिखने सुबह बैठती थी तो रात हो जाती थी। दिन भर लिखती रहती थी। एक खाना बनाने वाली को रक्खा था, वह खाना बनाकर रख जाती थी और वह जो चाय रख जाती थी वह भी ठंडी हो जाती थी। डॉ. साहब (मेरे पति) जब आत थे तब मैं जरूर उठ जाती थी। दो-चार बातें करती थीं लेकिन कई बार आने के साथ जब फ्रीज खोलते थे तो कहते थे कि ये जो रक्खा था तुमने कुछ नहीं खाया। दस-दस घंटा मैं लिखती थी। रात को मुझे लिखने की आदत नहीं है। मैं दिन में ही लिखती थी। ऐसे में मेरे उपन्यास पूरे होने लगते। इस प्रकार मैं उपन्यास लेखन के लिए खूब समय देती हूँ और वह समय पर आने की प्रक्रिया में तैयार हो जाती है।
डॉ. महालक्ष्मी केशरी – मैत्रेयी जी, क्या हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त होगा ? आप हिन्दी अकादमी दिल्ली की उपाध्यक्ष होने के नाते – इसे कहाँ तक सही मानती हैं और इस दिषा में आप हिन्दी भाषा के लिए क्या कर रही हैं ? 
मैत्रेयी पुष्पा – हिन्दी भाषा को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त नहीं होगा क्योंकि अपने देश में ही हिन्दी की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। हर कोई अपने बच्चे को इंग्लिश मीडियम में पढ़ाना चाहता है तो ऐसे में आजकल के माता-पिता तो यह सोचते हैं कि अगर हमारा बच्चा इंग्लिश मीडियम से नहीं पढ़ेगा तो वह अनपढ़ रह जायेगा। ऐसे में जब तक माता-पिता अपनी सोच नहीं बदलेंगे तब तक हम हिन्दी की बात क्या करें। हाँ, एक बात सही है कि हम हिन्दी के विकास के लिए काम करते हैं। गोष्ठियाँ करते हैं, लोगों को बुलाते हैं तो मैं लोगों से यही कहती हूँ कि आज मैं आपके सामने इसलिए खड़ी हूँ क्योंकि मैंने अपनी पढ़ाई हिन्दी में की है। मैंने उन लोगों को भी बुलाया जो लोग यह कहते हैं कि हिन्दी से रोजगार नहीं मिलेगा तो मैं यह कहती हूँ कि ‘‘सारा मीडिया क्या बोलता है ? हिन्दी।‘‘, ‘‘सारा सिनेमा क्या बोलता है ? हिन्दी।‘‘ सारे ‘‘अख़बार क्या बोल रहे हैं ? हिन्दी।‘‘ आज अंगे्रजी अखबार से ज्यादा हिन्दी अख़बार के पाठक हैं। जिन्होंने भी अपनी पढ़ाई हिन्दी में की है, वह सब आज मीडिया में छाए हुए हैं। इतना ही नहीं, कॉलेज में, यूनिवर्सिटीज में सब जगह तो हिन्दी के पढ़े-लिखे लोग ही विद्यमान हैं लेकिन जो मानसिकता बनी हुई है कि अंग्रेजी के बिना तो कुछ होगा ही नहीं। हाँ एक बहुत बड़ी सच्चाई है कि आज अंग्रेजी भाषा के कारण घरों से हिन्दी हटती चली जा रही है इसलिए मैं अपने ग्रामीण अनुभव को लेकर आयी और आगे अकेडमी तक में हिन्दी के लिए काम करती रही। आज मेरे साथ अकेडमी के कारण ही अरविंद केजरीवाल जी का मेरे प्रति जो रवैया है वह बड़े सम्मान का है। आज मुझे जितना सम्मान साहित्य ने नहीं दिया उतना सम्मान मुझे मुख्यमंत्री ने दिया। मुझे वहाँ कोई आर्थिक लाभ नहीं है। सच्चाई यह है कि मैं वहाँ जो करना चाहती थी वह कर पायी और  जिन्होंने रोक-टोक लगाई उन्होंने उसको हटा दिया पर मुझे नहीं हटाया। मैंने बहुत सारा बदलाव वहाँ किया जो करना चाहती थी, या यूँ कहूँ मेरे नाम को कोई बाधा नहीं आयी। वहाँ जो मैगजीन पहले तीन महीने पर निकलती थी, अब उसे मैंने मासिक कर दिया है। यह सारा श्रेय मैं अपने उपन्यास के पात्रों को दूँगी क्योंकि उन्हीं के कारण सब कुछ प्राप्त हुआ है। राजेन्द्र यादव जी ने मुझे रास्ता जरूर दिखाया पर पात्र तो वही उपन्यास के हैं जिन्होनंे मुझे समाज में स्थान दिलाया। मनीष सिसोदिया (दिल्ली के उप मुख्यमंत्री हैं) ने कहा कि मैंने आप की रचनाओं को बहुत गंभीरता से पढ़ा है तो मुझे बडा़ आश्चर्य हुआ। तब मैंने कहा तुम सब मेरे बच्चे जैसे हो तो यह साहित्य की ताकत है, जो बदलाव लाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि अगर  हमारी सोच सकारात्मक है तो कुछ भी कठिन नहीं है ।
डॉ. महालक्ष्मी केशरी – मैत्रेयी पुष्पा जी, आप एक कथा लेखिका हैं ऐसे मे उपन्यास या कहानी की जमीन तैयार करते समय ऐसी कौन सी बात ध्यान में रखती हैं कि वह छपने के बाद चर्चित हो जाती है ?
मैत्रेयी पुष्पा – मेरे ख़्याल में मेरे हर उपन्यास में कुछ अलग होता है जैसे शहरी लोग शहर में रहते-रहते जब थक जाते हैं तो वह यह सोचते हैं कि अब शहर से दूर पिकनिक के लिए गाँव चलना चाहिए तो मैंने भी अपने लेखन में कुछ ऐसा ही किया कि शहर से दूर गाँव के पात्रों को लेकर कुछ रचने की कोशिश की है या मुझे लगता है वह मेरे किताबों से गुजर कर पिकनिक का आनन्द लेते हैं। मेरे उपन्यास मंे कुछ चरित्र ऐसे आ जाते हैं जिसे पढ़कर लोगों को दिक्कत होती है और वह उस चरित्र को लेकर ढोल बजाने लग जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि मैं जानबूझ कर ऐसा लिखती हूँ। ऐसा होता है कि जो चीजें यहाँ बडे़ टैगो के साथ होती है वह हमारे ग्रामीण समाज में बड़ी सहजता से होती है। मैं उसी सहजता से उसे लिख देती हूँ। सबसे बड़ी बात लेखन के चर्चित होने का कारण यह है कि उसके लेखन की शैली क्या है? भाषा क्या है? आप के बोलने का अंदाज क्या है? जैसे मैं तुम्हें एक बात बताऊँ कि जब मैं कॉलेजों और विश्वद्यालयों में जाती हूँ तो मुझे भाषण देना नहीं आता है क्योंकि जो टीचर होते हैं, उनसे  अच्छा तो मैं बोल नहीं सकती। ऐसे में मैं यह देखती हूँ कि कैसी ऑडियेन्स है। उसे देखकर बोलती हूँ। अगर विश्वविद्यालय वगैरह में जाती हूँ तो वहाँ चिट्ठी वाला लड़का की  चर्चा जरूर करती हूँ  तो उसे सुनकर बच्चे बहुत खुष होते हैं। मैं तो यह भी कहती हूँ कि ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जिसे प्रेम नहीं हुआ हो (किशोरावस्था में)। यह एक सामान्य सी बात है। महालक्ष्मी, तुम्हें मैं एक बात बताऊँ एक बार मुझे झाँसी बुलाया गया जिस कॉलेज में मैं पढ़ी हूँ। मैं जब वहाँ गयी तो मैंने कहा, इसी कॉलेज में मुझे एक लड़के ने चिट्ठी लिखी थी। मुझे उसी लड़के की लेखनी ने पहली बार कलम पकड़ना सिखलाया। संयोग से उसी समय दरवाजा खुलता है और एक पुरूष अंदर आते हैं तो मैंने बच्चों से कहा यही है वह जिन्होंने मुझे पहली बार चिट्ठी लिखी थी। सुनकर वह सकपका गये और नजरें नीची कर ली। मैंने कहा, पहले तो बहुत बड़ी-बड़ी बातें करते थे और आज शरमा रहे हैं। आज जब मैं आपकी चर्चा कर रही हूँ तो परेशान क्यों हो रहे हैं तो मैंने उनसे पूछा कि मैं ठीक बोल रही हूँ न, तब सिर झुकाकर कहते हैं, हाँ ‘‘ठीक बोल रही हो।‘‘ महालक्ष्मी, हमारी ईमानदारी जीती है। हमारे सामने कई तरह की परिस्थितियाँ आयीं पर मैंने अपनी किताब के लिए कभी कोई कोशिश नहीं की कि तुम लिख दो, मुझे यह ईनाम दिलवा दो, ऐसा मैंने कुछ भी नहीं किया। जो तुम कह रही हो मेरी किताब चर्चित है, यही मेरे लिए सबसे बड़ा इनाम है। (मेरे किताब की चर्चा हो रही है, इससे बड़ा इनाम मेरे लिए और क्या हो सकता है) मेरी ऐसी किताबें भी हैं कि किताबें आयीं और उसे साहित्य अकादमी का इनाम मिला है तो जो हमारे लेखन में आती जाती रहती है, वह हमें समृद्ध करती चलती है। वही हमें चर्चा में भी ले आती हैं।
डॉ. महालक्ष्मी केशरी – मैत्रेयी जी, आज बडे़-बड़े रचनाकारों में सच कहने की ताकत नहीं है जब कि आप के चरित्र बड़ी सहजता के साथ उसका बयानबाजी करते हैं। इसकी क्या वजह है ? 
मैत्रेयी पुष्पा – सच तो किताबे ही हैं। लोग कोशिश तो करते हैं लेकिन सच को साधना मुश्किल होता है। झूठ पर झूठ तो बोले जा सकते हैं लेकिन कई सच एक साथ नहीं बोले जा सकते हैं। मेरी किताबें जब आती हैं तो पहले बवाल मचता है और फिर लोगों को स्वीकार हो जाता है। अभी ये जो ‘वह सफर था कि मुकाम था‘ इसने भी खूब बवाल मचा दिया। लोगों ने कहा, ‘मैंने मन्नू भण्डारी को खलनायिका बना दिया।‘ मैंने मीता को देखा था। उस पर मैंने मीता को लेकर बहुत कुछ लिखा था तो मैंने गलत क्या कह दिया। यदि वह मेरे घर न आती तो मैं उनके पास न जाती। यदि पास न जाती तो क्यों लिखती? जब राजेन्द्र जी बहुत बीमार हो गए तो मैंने उनसे (मीता से) कहा कि देखो तुम्हारा घर एम्स के पास है और तुम उन्हें रख लो। समय ने कुछ ऐसी करवट ली कि जब राजेन्द्र यादव जी मयूर बिहार में रहते थे तो और बीमारी से ज्यादा जूझने लग गए तब उन्होंने मुझसे कहा कि यह नम्बर उसका लो और उसे बुलाओ। तब मैंने कहा मैं मोबाइल दे रही हूँ, आप ही मिला लीजिए। तब उस पर उन्होंने कहा, ‘‘मैं नहीं बात करूँगा।‘‘ उसके बाद कहने लगे, मेरी आवाज सुनकर उसकी भाभी फोन पर बात करने नहीं देंगी तो उन्होंने मुझसे फिर कहा, ’’अरे तुम कर दो।’’ समाचार पाकर वह आयीं और अठारह-बीस दिन तक थीं। उन्होंने राजेन्द्र यादव जी की खूब सेवा की। इसे मैंने आँखों से देखा है। वह खुद खाना पकाती थीं। जो-जो सब्जी राजेन्द्र यादव जी को चाहिए होती थी, वह उन्हें लातीं और बड़े अच्छे से बीन-बान कर बड़े सलीके से उसे बनाती थीं और जब वह जाने लगीं तो राजेन्द्र जी उन्हें और कुछ दिन रखने के पक्ष में थे तो वह कहने लगीं नहीं अब मुझे जाना ही होगा। राजेन्द्र यादव जी ने एक साड़ी मँगाई हुई थी, वह उसे उन्होंने मीता को दी। दृष्य मेरे पुस्तक पढ़ने के बाद काफी अच्छे से समझ में आ जायेगी। महालक्ष्मी, तुमको मैं बताऊँ कि मैंने जो देख वही लिखा। लोगों ने कहा आप ने मीता को नायिका और मन्नू भण्डारी को खलनायिका बना दिया तो मैंने कहा, ऐसी कोई बात नहीं है,  मैंने वही लिखा जो दिखा। जहाँ तक लेखक का प्रष्न है वह सदैव हारे हुए के पक्ष में खड़ा होता है। वह  जीते हुए के पक्ष में कभी खड़ा नहीं होता है। मेरे पात्रों का साहस ही सच कहने की ताकत जुटा पाता है।
डॉ. महालक्ष्मी केशरी – आप की रचना सदैव पुरुष से समानता की बात करती है जब कि कुछ लोग कहते हैं कि आप पुरुष विरोधी हैं तो ऐसे में उनसे आप क्या कहना चाहेंगी ?
मैत्रेयी पुष्पा – देखो महालक्ष्मी, समाज में यही चर्चा है कि मैं पुरुष की विरोधी हूँ। दिक्कत यह है कि वह इससे आगे सोच ही नहीं पाते। अगर सोचते तो ऐसा कहते ही नहीं। (समाज में लोगों की सोच सकारात्मक है ही नहीं) पुरुष कहता है कि स्त्री सम्मान चाहती है,  जब कि ऐसी बात नहीं है। वह समानता चाहती है। मैंने दोनों को बराबरी पर खड़ा किया है। जबकि पुरुष उसे अर्धांगिनी, अनुगामिनी और क्या-क्या कहकर उसे पीछे खड़ा करते हैं। एक बार की बात है कि कार्यक्रम में अरविन्द केजरीवाल थे और महिला दिवस पर भाषण हो रहा था तो मैंने वहाँ यही बात कही  थी कि स्त्री यह कभी नहीं कहती कि उसे देवी की तरह पूजो, वह समानता की बात करती है। एक बात मैं बताऊँ आज का पुरुष ज्यादा सजग हो गया है। या यूँ कहूँ कि वह स्त्री के पक्ष में खड़ा होता हुआ दिखलाई पड़ रहा है। इसका मुख्य कारण ‘शिक्षा‘ है, जिसके कारण सामानता की बात आ रही है लेकिन कहीं-कहीं यह भी देखा जा रहा है कि  बहुत पढ़ी-लिखी महिलाएँ भी आर्थिक अर्जन के बावजूद भी अपने से खर्च नहीं कर पाती हैं। इसके लिए भी उन्हें पति की इजाजत चाहिए। सारी विरोधात्मक परिस्थितियों के बावजूद मैंने पुरुष को सदैव सहयोगी के रूप में रखा है और चाहती हूँ कि वह सदैव स्त्री के साथ अपने इसी रूप में रहे ताकि समाज का विकास हो और किसी प्रकार का कोई वैचारिक टकराहट न होने पाए।
डॉ. महालक्ष्मी केशरी – मैत्रेयी जी, सृजनाधर्मिता के  लिए क्या जरूरी है?
मैत्रेयी पुष्पा – सृजनधर्मिता के लिए सबसे पहली शर्त है कि आप के पास अनुभव हो क्योंकि बिना अनुभव के तो कुछ लिखा नहीं जा सकता। मैं अगर अपनी बात करूँ तो मैंने जब पहले-पहल  कुछ लिखा तो मैं स्वयं उससे संतुष्ट नहीं हुई। मेरा एक उपन्यास ‘स्मृतिदंष‘ था और जब मैंने उसे री-राइट किया तो वह बाद में ‘अगनपाखी‘ नाम से लिखा। यह सही है कि शुरू में अच्छा लेखन नहीं बन पाता पर बाद में लिखते-लिखते अच्छा लिखा जा सकता है। तुम कोशिश करो कि शुरू में कहानियाँ लिखो। कविताएँ लिखती हो तो कविताएँ लिखो। हाँ एक चीज का ध्यान रहे लिखने के लिए पढ़ना ज्यादा जरूरी है। समाज में कैसी रचनाएँ आ रही हैं, इसका भी ध्यान रखना होगा। साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि रचना पकी हुई हो जो समाज को कुछ दे सके।
डॉ. महालक्ष्मी केशरी – मैत्रेयी पुष्पा जी, आपसे मेरा अंतिम प्रश्न यह है कि क्या आपको कविताएँ भी अच्छी लगती हैं, यदि हाँ तो कोई ऐसी कविता जो आपको बहुत अच्छी लगती हो तो सुनाइये। 
मैत्रेयी पुष्पा – महालक्ष्मी, मुझे कविताएँ अच्छी लगती हैं। कृष्ण कल्पित की कविता बहुत अच्छी लगती है-
राजा-रानी प्रजा संतरी,
बेटा इकलौता,
माँ से कथा सुनी थी
जिसका अंत नहीं होता।
मेले में बिन पूछे कैसे
आई पुरवाई
राजा ने दस बीस जनों को
फाँसी लगवाई।
राम-राम रटता रहता था
राजा का तोता
माँ से कथा सुनी थी जिसका
अंत नहीं होता।
मैंने पूछा तो माँ बोली
केवल गुनता जा
तुझे कहानी से मतलब है
केवल सुनता जा
समझ नहीं पाया किसका है
किससे समझौता
माँ से कथा सुनी थी जिसका
अंत नहीं होता।
राजा राज किया करता था
राजा राज करे
प्रजा भूखा मरा करती थी
प्रजा भूखी मरे
अब मैं किसी कथानक का भी
दर्द नहीं ढोता
एक कहानी सुनी थी,
उसका अंत नहीं होता (सन् 1977 में रचित कविता है)
मैत्रेयी पुष्पा जी, मैं आप को बहुत-बहुत धन्यवाद देती हूँ जो आप ने मेरे प्रश्नों का उत्तर बडे़ अच्छे ढंग से मुझे दिया। 
डॉ. महालक्ष्मी केशरी, दिल्ली, Email: dr.mlk.bhu@gmail.com

1 टिप्पणी

  1. मैत्रेयी जी ने ये साक्षात्कार बेहद चतुराई से दिया है । उनके गोलमोल जवाब के कारण साक्षात्कार कुछ अधूरा सा लगता है । हर बार की तरह इस बार भी उन्होंने मन्नू भंडारी को एक खलनायिका से ज्यादा तवज्जो नहीं दी । तो मीता के प्रेम को फिर महिमा मंडित किया है ।

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