गीताश्री वर्तमान समय की युवा पीढ़ी की उल्लेखनीय कहानीकार, उपन्यासकार और पत्रकार हैं। उनका व्यक्तित्व और कलम दोनों धाकड़ हैं। जो उनके दिल में है वही उनकी ज़बान में है। नारी की लड़ाई वे अपने पन्नों पर इतनी शिद्दत से लड़ती हैं कि कई बार विमर्श साहित्य पर भारी पड़ने लगता है। मगर गीताश्री अपनी शर्तों पर लिखती हैं, छपती हैं और चर्चित होती हैं। दोस्ती और कमिटमेण्ट में गीताश्री का जवाब नहीं। पेश है उनकी पुरवाई टीम से बातचीत। पाठक उनकी बेबाकी से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाएंगे।
प्रश्न. गीता जी आप दिल्ली में एक लम्बे समय तक पत्रकार एवं संपादक रहीं। बिहार से दिल्ली आकर पाँव जमाना ज़ाहिर है कि आसान तो नहीं रहा होगा। राजधानी की पत्रकारिता के शुरूआती दिनों में आपको कितना संघर्ष करना पड़ा?
उत्तरः शुरु-शुरु में मुझे भी दिक्कते हुईं। पर मुश्किलें आसान होती गईं। कुछ अच्छे लोग मिले, जिन्होंने साथ दिया। बढावा दिया। कड़वे अनुभवों के साथ कुछ अच्छे अनुभव भी हैं। अगर अवसर नहीं मिलते तो इतने साल से पत्रकारिता में सक्रिय नहीं रहती। मैं भी घर बैठ गई होती। लेकिन मैं हार मानने वालो में से नहीं हूं। जब जब जो काम मिला, किया। ये अलग बात है कि जब रिपोर्टिंग करनी चाही तो डेस्क मिला और जब डेस्क पर काम करने का मन था तो रिपोर्टिंग करनी पड़ी। पर मैंने हर काम को एंजॉय किया। जब कभी नौकरी नहीं रही तो फ्री-लांसिग भी जम कर की। अपने समय की सबसे ज्यादा छपने वाले फ्री-लांसरो में से एक थी। निराशा कई बार हुई पर निराशा के किसी भी गहन क्षण में पत्रकारिता छोड़ देने का खयाल नहीं आया। मेरा बहुत बुरा अनुभव कभी नहीं रहा। महिला होने के नाते भेदभाव का शिकार कभी नही हुई। कहीं कुछ नहीं मिला तो मैंने समझा कि मुझमें कोई कमी ज़रुर रही होगी।
मीडिया ने मुझे वह सब दिया, जिसकी मुझे दरकार थी। जो माहौल चाहिए था, जो मैं करना चाहती थी, सब किया। मैं अधिक से अधिक लोगों से जुड़ना चाहती थी। हर तरह की रिपोर्टिंग और लेखन करना चाहती थी। मुझे अवसर मिले और मैंने किया। जब मैं पत्रकारिता में आई, उन दिनों हिंदी मीडिया में कम लड़कियां थीं। काम टफ़ था पर हमने कभी खुद को लड़कों से कभी कमतर नहीं आंका और जमकर डयूटी की, रात-बेरात, देर-सबेर। खुद को स्थापित करने की जद्दोजहद से गुजरे। मैंने वह सब पाया और किया जिसकी मैं हकदार थी।
प्रश्न. एक पत्रकार के लिये अपनी न्यूज़ स्टोरी तुरत-फुरत लिख कर डेडलाइन के हिसाब से देनी होती है… जबकि साहित्य ठहराव माँगता है। आपको पत्रकारिता से साहित्य जगत में आते समय अपने व्यक्तित्व में किस प्रकार का बदलाव लाना पड़ा?
उत्तरः मित्र लोग कहते हैं, मेरा स्वभाव हड़बड़िया है। बचपन से ही मेरे तेज़ चलने पर घर में भाइयों को आपत्ति होती थी कि कैसे उनके आगे निकल गई। लड़की थी तो उनके पीछे चलना चाहिए था। मेरी स्वभाविक चाल ही तेज़ है, काम की गति भी उतनी ही तेज़। फास्ट चलना, बोलना, लिखना… खाना-पीना… कई बार लगता था, जीवन तेज़ न जिया जा सका। बस यही काम न हो पाया कि जल्दी जी कर मर जाऊं। खैर… विषयांतर न हो जाए। मेरा लालन-पालन पत्रकारिता में हुआ और साहित्य में पनाह मिली। साहित्य मेरी छूटी हुई जमीन थी। मुझे वापस मिल गई। लेकिन जहां से छोड़ा था, उसी रुप में नहीं मिली। कविता पर छोड़ा था, पत्रकारिता के अनुभवों ने कहानीकार बना दिया। लौटी तो फसल पक चुकी थी। साहित्य में आने के बाद तो दुनिया ही पलट गई है। यहां की नैतिकताएं अलग, आचार संहिताएं अलग। इसके आग्रह-पूर्वग्रह अलग। यहां के गणित, समीकरण और हिसाब-किताब अलग। पत्रकारिता में सोचने विचारने का मौका कहां मिलता था। यहां तो विचार ही मूल बिंदू है जिसके ऊपर रचना खड़ी होती है। साहित्य की दृष्टि एकदम भिन्न होती है। जिसने मुझे थोड़ा अधिक विनम्र बनाया, थोड़ा अधिक उदार और संवेदनशील। दुनिया को, चीजों को देखने की मेरी दृष्टि बदल गई।
मुझे निर्मल वर्मा का एक साक्षात्कार याद आ रहा है जिसमें प्रख्यात पत्रकार करण थापर उनसे पूछते हैं कि लिखना लेखक को कुछ-कुछ देवता-सा बना देता है। वह उन चीजों को समझ पाता है जिन्हें एक व्यक्ति, एक मनुष्य के रुप में वह समझ नहीं पाया था। पता नहीं , मैं कितनी देवता बनी, मगर देवत्व की मेरे भीतर रासायनिक प्रक्रिया हुई कि मैं बदलने लगी। जैसे गाना है न… “मैं ठहरा रहा, ज़मीं चलने लगी… ” वैसा ही कुछ हुआ। मैं खुद को किसी करिश्मे की तरह देखती हूं। मैं वही हूं क्या, जो थी। नहीं। साहित्य के प्रयोगशाला में मैंने खुद को बदलते देखा। लेखन और व्यक्तित्व को बदलते देखा। मेरे स्वभाव में अंतर आया। थोड़ी थमने लगी। पहले की अपेक्षा थोड़ी शांत हुई हूं मैं। मुझमें करुणा की मात्रा बढ़ी है। मैं चकित होती हूं। कई बार झुंझला पड़ती हूं। दुनिया कुछ और है, अशांत और हिंसक है, हमलावर है, लेकिन ये बदलाव मेरे चित्त को शांत किए जा रहा है। हालत ये है कि जिन घटनाओं में मैं रिपोर्ट की संभावना देखती थी, वहां मैंने कहानी देखना-खोजना शुरु किया। केस-स्टडी वही रही, दृष्टि बदल गई। साहित्य में आकर समझा कि पत्रकारिता हड़बड़ी का साहित्य है, तात्कालिकता का इतिहास। स्थायी महत्व का काम तो अब कर रही हूं, साहित्य के माध्यम से। माध्यम बदलने से स्वभाव बदलता है। मैं साक्षात उदाहरण हूं। मगर मुझे कई सालों तक संदेह से देखा गया। मेरी कहानियों पर रिपोर्टिंग का असर करार दिया गया। कुछ ने कहा हड़बड़ी में रहती हूं कहानी जल्दी खत्म कर देती हूं। कहानी के अंत तक आते –आते कहानी पटक कर भाग खड़ी होती हूं। मैंने खुद पर बहुत काम किया। अब हालत ये है कि कहानी खत्म ही नहीं होती। छोटी कहानी लिख ही नहीं पाती।
प्रश्न. आज पत्रकारिता कहीं पीछे छूट गयी है। और साहित्य डिजिटल होता जा रहा है। फ़ेसबुक पर एक अलग ही साहित्य की दुनियां बसती जा रही है। आप आज के डिजिटल युग में आपने आपको साहित्य सृजन में किस हद तक सहज महसूस कर पाती हैं?
उत्तरः डिजीटल युग में पत्रकारिता का स्वरुप बदल गया है। कुछ साल मैंने भी इस माध्यम में काम किया है। बहुत कम लोगो को पता है कि जब विश्व का पहला हिंदी पोर्टल वेबदुनिया शुरु हुआ था तो मैं उसे दिल्ली ब्यूरो की हेड थी। तब वेब-पत्रकारिता का नाम भी कम लोगों ने सुना था। उन दिनों मुझे इसे जमाने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता था। एक अच्छी बात रही कि मेरे पीछे नई दुनिया अखबार का हाथ था। वेबदुनिया उन्हीं का था। मैं उनके अखबार से मान्यता प्राप्त पत्रकार हो गई तो राजनीतिक गलियारे में घुसने में दिक्कत न हुई। अन्यथा मुझे संसद में या कहीं एंट्री नहीं मिलती। ये बताना इसलिए ज़रुरी है कि तभी से पत्रकारिता बदलने लगी थी। बदलने वालों में हम लोग भी शामिल थे। नयी तरह की भाषा , खबरें पैदा हो रही थी। उस बदलाव की साक्षी और कारक रही हूं।
नया माध्यम था लेकिन मुझे आनंद आने लगा था। प्रिंट से डिजीटल में आई थी। वापस फिर प्रिंट में गई, क्योंकि तब वेब पत्रकारिता के लिए माहौल नहीं बना था। बाद में और न्यूज़ पोर्टल आए। आज तो बूम है। अब तो साहित्य छाया हुआ है वेब की दुनिया में। जैसा कि मेरा स्वभाव है, जल्दी, तत्परता… मेरे लिए यह दुनिया मुफीद है। तुरंत लिखो और छपो। न संपादक के बहुत नखरे, न छपने की लंबी कतारे। हां एक बात खराब जरुर हुई कि वेब पत्रकारिता और लेखन की वजह से “क्वालिटी चेक सिस्टम” ढह गया। हरेक तरह का माल यहां साहित्य के नाम पर मौजूद है। इससे लेखकों में आत्म-विश्वास तो आया है मगर उन्हें कसौटी पर कसे जाने का स्वाद नहीं पता।
प्रश्न. हिन्दी साहित्य एक लम्बे अर्से तक एक ख़ास विचारधारा से प्रभावित एवं संचालित होता रहा। एक विशेष विचारधारा वाले लोगों को ही साहित्यकार माना जाता था। ‘पहल’ जैसी पत्रिकाएं तो यहाँ तक लिख देती थीं कि हमें रचना न भेजिये। हमें जिस साहित्यकार से रचना मँगवानी होगी, उनसे स्वयं ही संपर्क कर लेंगे। आपके निकट, विचारधारा के दबाव में लिखा गया साहित्य आम पाठक से जुड़ने में कहां तक सक्षम होता है।
उत्तरः मैं साहित्य की लंबी परंपरा से अनभिज्ञ हूं। मैंने अपने लेखन के साथ-साथ पढ़ना शुरु किया है। ये जो सवाल है, उससे कुछ हद तक सहमत हूं। मैं ये देखती हूं कि कुछ लोग अपनी विचारधारा के अनुरूप लेखन करते हैं। इसमें गलत क्या है। बिना किसी विचार या दृष्टि के रचना किस जमीन पर खड़ी होगी? लेखको के अपने सरोकार होते हैं। किसी की राजनीतिक विचारधारा होती है। किसी की सामाजिक। साहित्य सबसे मजबूत प्रतिपक्ष रचता है, जो प्रतिरोध जताता है। वही असली विपक्ष है। आज के समय में तो इसकी भूमिका, जिम्मेदारी और बढ़ गई है। साहित्य को दरबारी नहीं होना चाहिए। राज्याश्रय में पलने वाले साहित्य से जनहित नहीं होगा। सत्ता को या किसी एक व्यक्ति को खुश करने वाली रचना आम अवाम के किस काम की। फिर सभ्यता के आतंक को जो न पहचाने, उसकी अंधेरी गुफा में घुस कर जो कारणो की तलाश न करे, न्याय की मांग न उठाए, ऐसा साहित्य किस काम का। साहित्य तो सत्ता के लिए चोखेरबाली है। लोकतंत्र है, जिसको जिस विचारधारा के दबाव में लिखना है लिखे, बस खयाल रहे कि हाशिये पर पड़ा हुआ वह अंतिम मनुष्य ओझल न हो जाए। जरुरी नहीं कि इसके लिए कोई किसी राजनीतिक पार्टी के फौलोअर हो। मैं वरिष्ठ कहानीकार धीरेंद्र अस्थाना की एक बात कभी नहीं भूलती हूं – “मैं उन लोगों के बीच खड़ा हूं जिनके हक छीन लिए गए हैं।”
अशोक वाजपेयी की बात तो गांठ बांध ली हैं कि साहित्य का काम अपने समय के सच को कहना और सच पर संदेह करना है। साहित्य का नैतिक कर्म है – प्रश्न करना और हिंसा को तोड़ना। साहित्य का सच तभी पूरा होता है जब पाठक का सच उससे जुड़ जाए। बस हमें ये ध्यान रखना होगा कि हम किसी हठधर्मिता में पड़ कर पाठक का सच न खो बैठे। विध्वंसकारी शक्तियों के खिलाफ, रुढ़ियों के खिलाफ, जो तनी हुई मुट्ठियां हैं, उन्हें पाठकों तक दोस्ताना बनाकर ले जाना चाहिए।
प्रश्न. आप हमारी बात को बहुत प्यार से टाल गयीं। चलिये अगले प्रश्न पर चलते हैं – हिन्दी साहित्य में दो धाराओं के लेखक शुरू से रहे हैं। पहले जो मानते हैं कि अनुभव की प्रमाणिकता के बिना उच्च कोटि का साहित्य सृजन संभव नहीं। वहीं दूसरी धारा के आलोचकों का मानना है कि किसी भी लेखक के लिये परकाया प्रवेश किये बिना उच्चकोटि का संवेदनशील साहित्य नहीं रचा जा सकता। इस बारे में आप क्या सोचती हैं?
उत्तरः मैं हमेशा काफ्का को कोट करती हूं, यहां फिर कहना चाहूंगी आपके सवाल के जवाब में। पहले मैं अपनी बात कह दूं कि कथा लेखन के लिए ये दोनों ही बातें जरुरी हैं। मैं साहित्य की किसी कोटि के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करुंगी क्योंकि मुझे पता ही नहीं चला कि कौन तय करता है, ये उच्च कोटि का है ये निम्न कोटि का साहित्य है। पाठक, लेखक-वर्ग या आलोचक। या वक्त तय करता है। कोटि से परे जाकर कहूं तो मेरे लिए ये दोनों बातें जरुरी है। निर्भर करता है कि आप लिख क्या रहे हैं। समुद्री डाकुओं या चंबल की कथा कहने के लिए बागी होना जरुरी नहीं। कोठेवालियों पर लिखने के लिए कोठे का अनुभव जरुरी नहीं। ऐसे अनेक विषय हैं जिन पर जब आप काम करते हैं, तो पहले गहन शोध प्रक्रिया से गुजरते हैं। जब लिखने बैठते हैं तो लेखक को परकाया प्रवेश करना ही पड़ता है। एक साथ लेखक कई भूमिकाओं में होता है। बहुत दिलचस्प प्रक्रिया है लेखन। समझिए। कितना रोमांच पैदा करता है। एक साथ कितनी कायाओं में कितनी बार आवाजाही करता है। तभी मैं काफ्का को कोट करती हूं – आखिरकार लिखना प्रेत-छायाओं का आहवान है। सिर्फ उस वक्त लेखक में ये क्षमता होती है कि वह कायांतरण करता रहे…पल-पल…अंधेरे–उजाले का कौतुक है लेखन। कितने चरित्र उठाते हैं हम और उन्हें सजीव कर देते हैं। अनुभव एक हद तक बहुत जरुरी है। वह आपको यथार्थ की खुरदरी जमीन पर ले जाकर खड़ा करता है। इसके बाद कल्पना की मायावी राह शुरु होती है।
प्रश्न. हिन्दी में ऐतिहासिक चरित्रों को लेकर लिखने की परम्परा ख़ासी पुरानी है। ठीक उसी तरह मिथकों पर आधारित साहित्य भी छपता और बिकता रहा है। आज के आधुनिक संदर्भों में ऐतिहासिक चरित्रों पर लिखे उपन्यासों की हमारी नयी पीढ़ी के पाठकों के लिये क्या प्रासंगिकता समझती हैं?
उत्तरः ये सच है। ऐतिहासिक पात्रों पर लिखने का चलन पुराना है। मिथकीय साहित्य की भी पुनर्व्याख्याएं हुईं। होना भी चाहिए। लोग कहते हैं कि बहुत आसान हैं, पहले से तय कहानी और चरित्र को उठा कर कहानी बुन दी गई। अगर इतना ही आसान होता तो सब कर लेते। ये बहुत श्रमसाध्य काम है और एक अलग दृष्टि की मांग करता है। आप प्रचलित कथा या पात्र उठाते हैं तो उसे किस तरह लिखते हैं, क्या विचार देते हैं, किस तरह उस चरित्र को खड़ा करते हैं, नया क्या देते हैं… ये सब बहुत मैटर करता है। हूबहू लिखना अलग बात है। कुछ ऐसे लेखन भी हुए कि इतिहास में कोई पात्र दबा रह गया, उसके साथ न्याय नहीं हुआ, लेखक का मन खौलता है। यदि वरिष्ठ कवि पवन करण की दो किताबें स्त्री-शतक पढ़े कोई तो समझ जाएगा कि क्यों मिथकीय चरित्रों का नैरेटिव बदलने की जरुरत है। एक कविता याद आ रही है-
कविता संग्रह की एक नायिका कहती है-
“अपनी कथाओं में आखिर
कितनी स्त्रियों का वध करेंगे आप
कथाओं में वधित स्त्रियां
जिस दिन खुद को बांचना
शुरु कर देंगी, कथाएं बांचना
छोड़ देंगी तुम्हारी।”
कविता जीवन में, साहित्य में घटित होते दखिए न। किस तरह स्त्रियां अपनी कथा खुद कह रही हैं। यही सबसे विश्वसनीय कथा होगी। पीड़ित जब अपनी कथा कहेगा तो यकीनन जज, वकील से बेहतर कहेगा।
हां तो मैं ये कह रही थी कि मिथकीय पात्र हो या ऐतिहासिक पात्र, उन्हें लिखते समय लेखक की दृष्टि ही उसे नये संदर्भ देती है। कथा को इस तरह कहना होता है कि नयी पीढ़ी उससे जुड़ जाए। शिखंडी (शरद सिंह का उपन्यास) जैसा पात्र आज भी प्रासंगिक है कि नहीं। शर्मिष्ठा (अणुशक्ति सिंह का उपन्यास) की कथा आज से जुड़ती है कि नहीं। कितने नाम बताऊं। सीता, अहिल्या, द्रौपदी जैसी अनेक स्त्रियों की कथाएं तो युगों तक दोहराई जाती रहेंगी। उन्हें लिखा भी जा रहा है, आधुनिक संदर्भो के साथ। हाल ही में मैंने महेंद्र मधुकर जी का उपन्यास पढ़ा-लोपामुद्रा । लोपामुद्रा ऋषि अगस्त्य की पत्नी थीं लेकिन इस कथा को जिस तरह कहा गया है, लोपा का चरित्र बहुत बड़ा दिखाई देता है। अपनी शर्त्तो पर जीने वाली विदुषी राजकुमारी। अद्भुत आख्यान है, मानो हम नये जमाने की स्त्री की कथा पढ़ रहे हों। लोपा अपने ऋषि पति को शुद्ध गृहस्थ बनने को कहती है, क्योंकि उसे भोग और सुख-उन्नति भी चाहिए। वह कहती है- “मैं जीवन को एकांगी भाव से नीरस होकर बिताना नहीं चाहती। आप उद्योग करें, स्वर्णाभूषण, धन-संपत्ति एकत्रित करें, मै काषाय वस्त्रों में समागम नहीं चाहूंगी।” वह विवाह के बाद भी पति को तब तक अपनी देह नहीं सौंपती जब तक वे उसकी शर्त्तो को पूरा करने पर राजी नहीं होते। एक स्त्री का अपनी देह पर स्वामित्व का भाव क्या आज की नव-स्त्री की मांग नहीं?
अब आते हैं इतिहास की ओर…
हम जिस समय में, जिस व्यवस्था में जी रहे हैं, इतिहास के साथ छेड़-छाड़ हो रही है। उसका नैरेटिव बदलने की कोशिश हो रही है। सच पर झूठ का परदा डाला जा रहा है। देखिए, इतिहास ने तो कई चरित्रों के साथ न्याय नहीं किया है जबकि उनकी भूमिका समाज के लिए बहुत उपयोगी रही है। एक उदाहरण देना चाहूंगी। वरिष्ठ कथाकार उषाकिरण खान का उपन्यास है, अगिन हिंडोला । शेरशाह के जीवन पर आधारित उपन्यास है। पिछले दिनों कहीं मैंने पढ़ा कि शेरशाह ने ग्रैंडट्रंक रोड नहीं बनवाया। कुतर्क का आधार ये था कि सड़कें महाभारत काल में भी थीं, जिससे सेनाएं कुरुक्षेत्र तक युद्ध लड़ने आई थीं। सड़कें रही होंगी। किसे इन्कार है, क्या इसी रुप में रही होंगीं? और क्या इसका कोई ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद है। शेरशाह के काम का इतिहास गवाह है। इन कुतर्को का सटीक जवाब देने आईं थीं, उषाकिरण खान जो प्राचीन इतिहास की अध्येता हैं। उन्होंने प्रतिवाद किया। मिथकों को सत्य मान कर ढोने वाला देश, इतिहास के साक्ष्य को मिटाने पर, झूठा करार देने पर आमादा है। हद है न। नयी पीढ़ी को इतिहास से जोड़ने के लिए साहित्य का मार्ग सबसे बेहतर मार्ग है। नहीं तो मैं खुद स्कूल में फकरा पढ़ती थी-
“हिस्ट्री-ज्योगरफी है बेवफ़ा
रात में रटंत
सुबह को सफ़ा।”
साहित्य उन्हे रुचिकर बना देता है। कई बार गुमनाम नायकों और नायिकाओं को खोज निकालता है। जो आज के लिए बहुत प्रेरक और प्रासंगिक होते हैं। इतिहास का उत्खनन साहित्य को करते रहना चाहिए।
प्रश्न. ब्रिटेन में शेक्सपीयर को स्कूली सिलेबस के अनिवार्य लेखकों की सूची से हटा दिया गया है। यहां माना जाता है कि शेक्सपीयर को वही विद्यार्थी पढ़ें जिन्हें पुराने साहित्य में विशेष रुचि हो। क्या आपको लगता है कि अब समय आ गया है कि भारत में भी समकालीन लेखन को पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाना चाहिये?
उत्तरः हमारे यहां भी मांग होती रहती हैं, वरिष्ठ लेखकों को सिलेबस से हटाने की। इससे तो हम परंपरा से पूरी तरह कट जाएंगे। बल्कि रास्ता निकालना चाहिए कि समकालीन साहित्य भी सिलेबस में जोड़ा जाए। भले ही स्वैच्छिक रहे। जैसे इतिहास में विभाजन है न। उसी तरह हो।
प्रश्न. फ़ेसबुक, ट्विटर और व्हटस्एप पर निरंतर बहसबाज़ी चलती रहती है। लगता है जैसे अंग्रेज़ी में हिट एण्ड रन वाली पॉलिसी पर लोग चल रहे हैं। इस आभासी दुनिया में लिखे हुए शब्दों को इमोशन तो पढ़ने वाला व्यक्ति देता है। क्या इस बहसबाज़ी से आपसी रिश्तों में कभी तनाव पैदा होते हैं? साथ ही सोशल मीडिया सृजनात्मक लेखन के रास्ते में बाधक है या सहायक?
उत्तरः सोशल मीडिया ने कुछ लोगों को बेलिहाज़ बना दिया है। तकनीक का बेजा फ़ायदा ये है कि आप हमलावर रहे। जरा भी मतभेद हो तो पूरा झुंड लेकर हमला कर बैठे। कुछ लोगों के लिए वधस्थल की तरह साबित हुआ है। यहां पर ट्रोलिंग, मॉब-लिंचिंग आसान है। बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से यहां किसी को घेर कर वध किया जाता है। किसी की इज्जत उतारी जाती है। व्यक्तिगत खुंदक निकाली जाती है। पर्सनल झगड़े को पब्लिक झगड़े में बदल दिया जाता है। कुछ लोग आए दिन धमकी भी देते देखे गए हैं कि फेसबुक पर लिख देंगे। फेसबुक न हो गया कि कचहरी है, लगाइए और फैसले दीजिए। कुछ लोग सोशल मीडिया पर ही जीते-मरते हैं। यहीं सोते–जागते हैं। कुछ लोग अपने खालीपन को यहां की भीड़ से भरते हैं। कुछ इतने तन्हा हैं कि यहां पर टाइम पास करते हैं। कुछ के लिए प्रचार प्रसार का माध्यम है। मैंने भी यहां बहुत संबंध बनाए, बहुत गंवा दिए। जो रिश्ते इसी दुनिया में बने, वो एक दो मतभेदों और बहसों से निपट गए। बहुत कच्चे थे, यही होना था। जीवन के संबंध यहां न उलझे, न टूटे। बहुत लोगों के मुखौटे उतर गए। कुछ बहुत अच्छे लोग जाने गए, जिनसे जुड़ना सौभाग्य रहा। कॉलेज, होस्टल की कई बिछुड़ी हुई सहेलियां मिलीं।
जहां तक लेखन का सवाल है, सोशल मीडिया ने लेखन को समृद्ध चाहे न किया हो, उसका प्रसार तो किया है। पाठक कम, लेखक ज्यादा दिए हैं। कुछ को सेलिब्रिटी तो इसी माध्यम ने बनाया। इस माध्यम ने किसी भी अखबार, पत्रिका से ज्यादा बड़ा काम किया है। जो लोग अपने भीतर आग दबाए बैठे थे, वे लिखने लगे। स्त्रियां अचानक से लिखने लगीं। उनके भीतर कितना कुछ अनकहा था। अब वो कितना श्रेष्ठ है, नहीं है, ये तो वक्त बताएगा। अभी जल्दबाजी होगी किसी निर्णय पर पहुंचना।
हां, एक बात इधर समझ में आई है कि अगर किसी किताब में डूबे हो तो कुछ दिन की दूरी आवश्यक है। दिमागी शांति के लिए, समय बचत के लिए। यह एक लत भी है जो रह-रह कर उंगली थाम कर वहां ले जाती है। मैंने एक बार प्रयोग किया, सफल रही। फिर करने की सोच रही हूं।
देखूं, सफल हो पाती हूं या नहीं। कुछ भी कहिए, मनलग्गू जगह तो है जहां हर इन्सान कभी न कभी बेनकाब या अपमानित हो ही जाता है।
प्रश्न. पुरस्कारों और सम्मानों को लेकर हमेशा कोई न कोई विवाद सुनाई देते रहते हैं। हमारे हिसाब से शायद ही कोई ऐसा सम्मान या पुरस्कार होगा जिस पर कभी कोई विवाद न उठा हो। आप क्या सोचती हैं, सम्मान या पुरस्कार किसी लेखक के जीवन में कितना महत्व रखते हैं? क्या लेखक सच में पुरस्कार या सम्मान पाने के लिये जुगाड़ लगाते हैं?
उत्तरः पुरस्कारों पर बात करने के मामले में मैं अपने आपको अयोग्य समझती हूं। ये बड़े लोगों की बातें हैं। जिन्हें बड़े–बड़े पुरस्कार मिले हैं, वे बेहतर बता सकते हैं। पुरस्कार के लिए छटपटाते तो मैंने बहुत लोगों को देखा है, सफल होते भी देखा है। पुरस्कार की चाहत सब को होती है। भले कोई इन्कार करता रहे। मैंने इस मसले पर कभी दिमाग नहीं लगाया कि किसे कैसे पुरस्कार प्राप्त हुआ। बिना कुछ किए तो कुछ हासिल होता नहीं। जिसे भी मिलता है, काम के आधार पर ही मिलता है। मैं क्यों खारिज करुं। अब काम का मूल्यांकन कौन करेगा, एक ज्यूरी होती है, उस पर भरोसा तो करना पड़ेगा न। विवाद तो हर बड़े पुरस्कार पर होता है। कुछ दिन का तूफ़ान है। उठता है, मर जाता है। अंत में लेखक का काम बच जाता है।
प्रश्न. आजकल क्या लिख रही हैं?
उत्तरः इस साल की शुरुआत बहुत ख़राब रही। छह महीने बीत गए, कुछ न लिखा गया। माहौल ही इतना दुखद था कि कुछ लिखने का मन न हुआ। अब जब हालात संभले हैं तो अब काम शुरु करूंगी। योजनाएं तो कई हैं। शोध भी कर लिया है। एक साथ कई शोध चलते रहते हैं। कई प्रकाशन से उपन्यासों का करार हुआ है। उन्हें समय पर पूरा करके देना है। फिलहाल यात्रा-वृतांत का एक खंड पूरा कर लिया है। और उपन्यास शुरु करने के लिए मुहूर्त नहीं निकाल पा रही हूं। साथ-साथ कई किताबों का संपादन भी चल रहा है।
सब ने बहुत टोका है कि बहुत ज्यादा और तेज़ गति से लिखती हो। कुछ दोस्त कहते हैं- कितना लिखोगी।
तो हमने अब रफ्तार कम कर दी। वैसे भी हम मर-मर कर लिखने वालों में से नहीं है। जीते हैं तो लिखते हैं… लिखने के लिए नहीं जी रहे।
और भी ग़म हैं ज़माने में… !
पुरवाई टीम: हमसे बातचीत करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
सुंदरी