मित्रों,
जब पुरवाई का ज़िम्मा मैनें अपने सिर उठाया था तो बहुत से मित्रों और पक्षों ने यह विश्वास दिलाया था कि मुझे इसके लिये आर्थिक बोझ नहीं उठाना होगा। एक साहित्यिक बिगुल जो कि भाई पद्मेश ने 1997 में पहली बार बजाया था, बस उसकी आवाज़ बन्द नहीं होनी चाहिये।
मैं इससे पहले भी दो वर्षों तक पुरवाई का संपादन कर चुका था और अपने संपादन में बहुत से विशेषांक निकाल चुका था। इनमें हिन्दी सिनेमा में साहित्य, हिन्दी साहित्य में मिथक का उपयोग, ब्रिटेन की हिन्दी कहानी और कथाकार कमलेश्वर जैसे विशेषांक बहुत चर्चित भी हुए थे। मगर उन दिनों आर्थिक ज़िम्मेदारी मेरी नहीं थी। पद्मेश मुख्य संपादक थे और उन्होंने मुझे कभी इस विषय में परेशान नहीं होने दिया। यहां तक कि पद्मेश ने संपादन में कभी कोई दख़ल भी नहीं दिया।
अब बात दूसरी थी। अब पुरवाई का ज़िम्मा पूरी तरह से मेरा था। मुझ में एक कमी है कि मैं पैसे के मामले में पूरी तरह से असफल इन्सान हूं। पिछले 48 वर्षों से फ़ुल-टाइम नौकरी कर रहा हूं मगर बैंक बैलेंस के मामले में आज भी वहां का मैनेजर मुझे आंखें दिखाता है। इस बार भी यही हुआ कि पुरवाई पर जो कुछ भी बचत के नाम पर पैसे इकट्ठे किये थे, सब होम हो गये। और मैनें पाया कि अब मेरे लिये और ख़र्चा वहन कर पाना संभव नहीं है।
दरअसल पत्रिका को प्रकाशित करवाना तो केवल एक ख़र्चा होता है। एक बहुत बड़ा ख़र्चा उसे पोस्ट करने पर लग जाता है। दिल्ली से अमरीका और इंग्लैण्ड पत्रिका भेजने में क़रीब सवा सौ रुपये प्रति कॉपी लग जाते हैं। यदि आप किसी तरह वो भी वहन कर लें तो कोई ऐसा कमिटिड व्यक्ति चाहिये जो उन प्रतियों को पोस्ट करे। यह सब काम मैं अकेला नहीं कर सकता था।
मैं किसी पर इल्ज़ाम नहीं लगा रहा क्योंकि उससे कुछ हासिल नहीं होने वाला। मगर सच तो यही है कि समय रहते पुरवाई की प्रतियां हम पाठकों और लेखकों तक पहुंचा नहीं पा रहे थे। यश प्रकाशन के राहुल भारद्वाज ने एक अंक निकाला, महेन्द्र प्रजापति, अंकिता चौहान और नीलिमा शर्मा ने ख़ासा उद्यम किया। वंदना यादव ने एक दो बार मित्रों को पुरवाई के कार्यक्रम के लिये इकट्ठा भी किया। निखिल कौशिक और जय वर्मा ने कुछ ख़र्चा भी उठाया मगर गाड़ी पटरी पर चली नहीं।
दरअसल हमें भारत से सहायता लेने के लिये भारत में एक बैंक अकाउण्ट चाहिये था और हमारी पत्रिका का रजिस्ट्रेशन लंदन में हुआ था। सबका कहना था कि भारत में रजिस्ट्रेशन करवा लीजिये तो आसानी से अकाउण्ट खुल जाएगा। मगर मेरा मानना था कि फिर यह ब्रिटेन की पत्रिका कहां रहेगी… फिर तो यह भी भारत की पत्रिका ही बन जाएगी। मैं पुरवाई को भारत की पत्रिका बनाने के पक्ष में नहीं हूं।
ऐसे में विचार आया की परिवर्तन संसार का नियम है। आज जब सारा भारत विश्व का डिजिटल गुरु बन रहा है तो हम अपनी पत्रिका को डिजिटल क्यों ना बनाएं। बस एक बैठक की और सबने एकमत से यही परामर्श दिया कि हमें पुरवाई को डिजिटल बनाना है।
पुरवाई को डिजिटल बनाने में हमें युवा सहयोग के रूप में जलंधर के एकान्त पुरी ने भरपूर सहयोग दिया। कई बार तो लगता था जैसे मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त। मगर उस बच्चे ने हार नहीं मानी और हमारी पुरवाई को एव वैबज़ीन का रूप दे कर ही माना। मैं ऐसे प्यारे बच्चे को आप सबसे छुपा कर नहीं रखना चाहूंगा। यदि आपमें से किसी को भी अपनी पत्रिका, संस्था या निजी वैबसाइट बनानी हो तो आप एकान्त को संपर्क कर सकते हैं। उसका मोबाइल नंबर हैः 09041916343.
हमारे पुरवाई परिवार का एक पन्ना अलग से बनाया गया है। फिर बताता चलता हूं कि पुरवाई परिवार कुछ इस तरह हैः ज़किया ज़ुबैरी (संरक्षक), तेजेन्द्र शर्मा (संपादक), कैलाश बुधवार, डॉ. अरुणा अजितसरिया एम.बी.ई. (परामर्श मण्डल), जय वर्मा, डॉ. निखिल कौशिक, शिखा वार्ष्णेय (संपादक मण्डल), नीलिमा शर्मा, महेन्द्र प्रजापति, वंदना यादव (दिल्ली प्रतिनिधि), आर्या शर्मा (मुंबई प्रतिनिधि)।
सो मित्रो आप सबका इस नई पुरवाई में स्वागत है। रचनाओं के प्रकाशन में बस एक ही शर्त है कि आपकी रचना किसी अन्य इलेकट्रॉनिक मीडिया पर प्रकाशित नहीं होनी चाहिये। हमें कहानियां, कविताएं,  ग़ज़लें, व्यंग्य, लेख, कार्यक्रमों की रिपोर्ट आदि भेजिये।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

3 टिप्पणी

  1. शानदार स्वागत योग्य निर्णय , उत्तरोत्तर विकास और लोकप्रियता के लिये शुभकामनाएं।

  2. भाई तेजेन्द्र जी,
    मेल पर ही खुखरी मार दी. अरे भाई! मैं आपका पाठक हूँ. जब मैं जागरण में था, कमलेश्वर जी से पता नहीं कितनी बार आपकी कुछ कहानियों पर बातें करता था. जब हमने जागरण का साहित्यिक पेज ‘आदाब अर्ज़’ निकाला तो जो काम हम करने जा रहे थे, उनमें आपको भी शामिल किया था. नासिरा शर्मा के लेख को छापा, आगे भी कुछ था कि स्ट्राइक हो गयी और हम बाहर आ गए. कमलेश्वर जी सहारा चले गए. ‘पुरवाई’ में सोचकर मैंने लेख भेजा था. दूसरा लेख गगनांचल में भेजा.
    आप अच्छे इंसान भी तो हैं. मैं रिश्ते ख़त्म नहीं करता. हाँ! समय पहले जैसा नहीं रहा है. थोड़ा दूर बचकर रहने लगा हूँ. वक़्त बदल गया है. वर्ना तो हम कहीं न कहीं मिल ही जाते.
    सादर!
    रंजन ज़ैदी
    94, प्रथम तल, अहिंसा खंड-2,
    इंदिरापुरम-201014
    ग़ज़िआबाद, उत्तर प्रदेश (एनसीआर) भारत
    +91 9354597215

  3. पुरवाई पत्रिका मुझे बहुत अच्छी लगी, मैं जिस तरह की रचनाएं और सृजन साहित्य पढ़ना चाहती हूं,वह मुझे इस पत्रिका में मिला,,आप सभी की मेहनत और लगन से जो सुंदर साहित्यिक उपवन पुष्पित पल्लवित हो रहा है, उसकी यात्रा चलती रहे अविराम अविचल,, हार्दिक शुभकामनाएं मंगलकामनाएं,,,पद्मा मिश्रा जमशेदपुर झारखंड-भारत

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.