29 अगस्त, 2021 को प्रकाशित पुरवाई के संपादकीय पर व्यक्तिगत संदेश के माध्यम से प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं।
तेजेन्द्र जी, आपका यह संपादकीय बेबिनार की दुनिया का यथार्थ है। इसमें आपने बहुत ईमानदारी से बाल की खाल निकाल कर इसकी झाँकी दिखाई है। कोरोना काल में गोष्ठियों का रूप ही बदल गया। वो कहते हैं ना कि जहाँ चाह, वहाँ राह। अचानक ही लोगों ने इसका ऑनलाइन तरीका ढूँढ लिया। और जूम पर गोष्ठियों की धूम मच गयी। बिना यात्रा किये या पाई-धेला खर्च किये ही मेला देखने को मिलने लगा। लेकिन धीरे-धीरे इससे जुड़ी समस्यायें भी उपजने लगीं जैसा कि आपने उनका बखान किया है। और एक ही दिन में अगर कई कार्यक्रम हों तो मन चकरिया जाता है कि किसे देखो, किसे छोड़ो। बात कड़वी है पर सच है। आपकी यह बात भी सही है कि अपने भले के लिये लोग मुँह बंद रखते हैं। लेकिन उससे बात नहीं सुधरती। बेबिनार के मेलों में उलझे लोगों की तृष्णा भविष्य में उन्हें कहाँ से कहाँ ले जायेगी यह एक चिंता का विषय है। खैर, जब तक आप बेबिनार की दुनिया का आनंद उठाते रहें। शुभकामनायें।
– शन्नो अग्रवाल, लंदन
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