आज यानी 10 अक्टूबर, 2021 को ‘जब रक्षक ही भक्षक बने’ शीर्षक से प्रकाशित पुरवाई के संपादकीय पर व्यक्तिगत संदेशों के माध्यम से प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं

पद्मा मिश्रा, जमशेदपुर, झारखंड
तेजेन्द्र भाई, प्रणाम,
संपादकीय पढ़ा…
जब ऐसी जघन्य घटनाएं जन्म लेती है तो मन बहुत व्यथित और विचलित हो जाता है, वह चाहे भारत हो, लंदन हो या अन्य कोई देश, मानवता की आंखें शर्म से झुक जाती हैं।
भारत की नैना साहनी, निर्भया हों, या ग़रीब आदिवासी लड़की सुषमा बड़ाइक, जिसका शोषण एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने ही किया था; प्रश्न उठता है कि क्या हम आदिम युग में वापिस जा रहे हैं, या पाषाण काल पुनः लौट आया है, जहां केवल लूट, हिंसा प्रतिहिंसा की भावनाएं ही जागृत थीं।
परंतु पश्चिम की उदार संस्कृति में भी जब ऐसे अमानवीय कृत्य होते हैं, तो सचमुच ख़ुद के मनुष्य होने पर भी शंका होने लगती है। महिला आदर गौरव, सम्मान की अधिकारिणी न होकर केवल भोग की वस्तु रह गई है। ऐसा क्यों…?
मेरा प्रश्न उस तथाकथित सभ्य समाज से भी है, जो विकास और प्रगति के बड़े-बड़े दावे करता है, परंतु ऐसे शोषण और अन्याय के खिलाफ उचित न्याय क्यों नहीं कर पाता? कभी जाति-भेद, कभी रंग-भेद तो कभी केवल महिला होने की सज़ा क्यों भुगतती हैं महिलाएं? कब तक? जिसे रक्षा का भार सौंपा गया है यदि वहीं भक्षक बन जाए, तो किससे न्याय और सज़ा की उम्मीद करें? आपने अपने संपादकीय के माध्यम से अनेक महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए हैं,इस आवाज को दबने नहीं दे,आपके समाज के समक्ष रखे गए सवाल विचारणीय है, तथाकथित सभ्य समाज ज़रा विचार करें कि हम मनुष्य रह गये हैं क्या?
उस नृशंस अपराधी को फांसी हो! सज़ा मिलनी चाहिए कठिन से कठिन!  मैं विश्व की तमाम महिलाओं की आवाज़ के रुप में प्रस्तुत हूं।  आभार भाई, इतने सार्थक और सकारात्मक सोच से भरे संपादकीय के लिए।
सुधाकर अदीब – लखनऊः
तेजेन्द्र भाई आपने बहुत जघन्य अपराध का अपने संपादकीय में लोमहर्षक वर्णन किया है। यह घटना अत्यंत निंदनीय और अविश्वसनीय है। संपादकीय में आपने अपने मनोवेगों को हावी नहीं होने दिया है, जिससे वह और भी स्तरीय बन पड़ा है।
शैलजा सक्सेना – कनाडाः
तेजेन्द्र जी, मन दहलाने वाला संपादकीय!
विक्षिप्त मानसिकता के इस व्यक्ति पर जनता की सुरक्षा का भार था, यह बहुत ही डराने वाली बात है। यह मानसिकता इतने लंबे समय तक छिपी कैसे रह गयी, यह बहुत हैरानी की बात है। एक ‘वेन’ को सज़ा देकर ही इंग्लैंड की न्याय व्यवस्था को चुप नहीं बैठना चाहिए बल्कि पुलिस, फ़ायर डिपार्टमेंट आदि जैसे महत्वपूर्ण और लोगों के निरन्तर संपर्क में आने वाले विभागों के कर्मचारियों की मानसिक स्थिति की नियमित जाँच आदि करवानी चाहिए।
यह बहुत अच्छी बात है कि आपने भारत की किसी घटना को उठाने की बजाय लंदन की बात की। भारत की बात कहने को अनेक पत्र-पत्रिकाएँ हैं पर भारत के बाहर के सच को दिखाना भी ज़रूरी है और आप यह काम कर रहे हैं। आपके जनता को सचेत करने वाले संपादकीयों की शृंखला चलती रहे… बधाई!
इंद्रजीत पाल, मुंबई
तेजेन्द्र भाई वह ब्रिटेन की पुलिस है, भारत की नहीं। यदि यह मामला भारत में होता तो कब का ठंडे बस्ते में जा चुका होता। लोकतंत्र में जनता का विश्वास इस तरह से बढ़ता है, बयानबाज़ी से नहीं।
विनोद पाण्डेय, दिल्ली
धन्यवाद सर l बहुत विषय पर आपके द्वारा लिखा पुरवाई का सम्पादकीय पढ़ कर विचार में डूबा हूं। समाज में कैसे-कैसे लोग ,किस तरह वेश में छुप कर रह रहे हैं। मैं भारत या अन्य एशियाई और अफ़्रीकन देशों में ऐसी घटनाएँ होने को एक सोच सकता था लेकिन सभ्य और शिक्षित यूरोपीय समाज में रंगभेद, नस्ल भेद के कारण ऐसी बर्बर घटना का हो जाना विश्वास नहीं हो पा रहा l
आपने एकदम सही कहा जब रक्षक ही भक्षक हो जाए तो कौन बचा सकता है। सम्पादकीय के माध्यम से एक सार्थक विषय पर आपने चर्चा की। इस घटना से हम तो अनभिज्ञ थे। बहुत बढ़िया सम्पादकीय, सुंदर शाब्दिक संयोजन। पुरवाई के इस अंक हेतु बधाई सर l प्रणाम
रक्षा गीता, कालिंदी कॉलेज, नयी दिल्ली
सर, पुरवाई का संपादकीय पढ़ा।
उफ़्फ़…!
विकृति आ जाए तो विक्षिप्तता साथ आती है। इंसान और इंसानियत तथाकथित सभ्यता के भेंट चढ़ रहें हैं। मानव ने मानवता की संकल्पना तो कर ली लेकिन स्थापना अभी बहुत कठिन लग रही है।
आपके द्वारा बेल्ट के स्थान पर पेटी शब्द इस्तेमाल करना बहुत अच्छा लगा। लेकिन स्त्री होने के नाते यह शब्द अच्छा नहीं लगा।
उसकी ‘इज्ज़त लूटने’ का प्रयोग थोड़ा खटका यद्यपि ‘फ़िल्मी’ शब्द होने के कारण भी  ‘फ़िल्मी’ होने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन इस शब्द के इस्तेमाल का अर्थ यही हुआ है कि दुष्कर्म पुरुष करेगा लेकिन इज्जत बेकसूर औरत की ही ख़राब होगी। इसी रुढ़ सोच के कारण दुष्कर्म होने के बाद भी लोग पुलिस में जाने से डरते हैं।
कहीं गलत हूं तो सर क्षमा कीजिएगा 🙏।
तरुण कुमार, ग़ाज़ियाबाद
तेजेन्द्र जी, ब्रिटेन में इस तरह की घटना, हो सकता है, परेशान करती होगी… हम भारत के लोग इन छोटी मोटी घटनाओं के आदी हैं। पुलिस यहाँ क्या-क्या कर सकती है, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
सुरेश चौधरी, कलकत्ता
अद्भुत संपादकीय… अन्य संपादकीयों से बिल्कुल अलग, सामयिक ज्वलंत समस्याओं का विस्तार से बतलाना सरल भाषा में आप ही कर सकते हैं
कैलाश मुंशी, भोपाल
‘जब रक्षक ही भक्षक बन जाये’, ऐसी बहुत सी कहावतें और मुहावरे हैं जैसे जब ‘बाड़ ही खेत को कहा जाए’… चौकीदार ही चोर है… इत्यादि… इत्यादि।
ये मुहावरे, कहावतें ऐसे ही नहीं बन जातीं। एक गहन अध्ययन व शोध पर मंथन, मनन करने के बाद जीवन का निचोड़ निरूपित करती हैं। सदैव वास्तविक और राजनीतिक परिपेक्ष्य में सटीक रहती हैं। कभी कुछ कहावतों पर रोक भी लगा दी जाती है जैसे चौकीदार ……
इस प्रकार की दमन नीति से रुकती नहीं बात निकल कर और बहुत दूर तक चली जाती है।  ऐसी कहावतें यूनिवर्सल होती हैं। दुनिया देश स्थान समय व्यक्ति आदि बदल जाते हैं परन्तु एक लाइन की कहावत पूरी कहानी बयान कर देती हैं। अधिकांशतः मीडिया उनको राजनीतिक दबाव में तोड़ मरोड़ कर पेश करते हैं।
सम्पादकीय सराहनीय है।
अंजु शर्मा, दिल्ली
सर, इतना कोल्ड ब्लडेड और प्लांड मर्डर करना वो भी एक अजनबी लड़की का! मामला बहुत हैरत अंगेज़ है। कजन्स ने अपनी सफाई में कुछ नहीं कहा? उसने सारा को ही क्यों चुना ये भी स्पष्ट नहीं हुआ। पर जो भी है ये बहुत ही नृशंस वारदात थी। मामला पुलिस नहीं एक व्यक्ति के निजी तौर पर अपराधी हो जाने का है पर उसने अपने पद का दुरुपयोग किया इसलिये सवाल पुलिस पर भी बनता है।
कुसुम पालीवाल, नोयडा (उ.प्र.)
तेजेन्द्र जी, देश हो या विदेश, जिस जगह पर इंसान हैं वहाँ ये समस्याएँ तो हमेशा रहेंगी । हम जब छोटे थे तो लोगों से सुनते थे हमारे भारत में हर चीज़ की चोरी-चकारी होती है विदेशों में नही… लेकिन जब हम खुद विदेश घूमकर आये और लोगों की बातें सुनी तो जाना… हर जगह एक सा हाल है कहीं ज़्यादा, कहीं कम ..
आजकल कोविड ने सब जगह सारी व्यवस्थाओं को चरमरा दिया है। जानवर के वारे में कहा जाता है कि न जाने कब आक्रामक हो जाए कुछ पता नहीं लेकिन आजकल इंसान की फ़ितरत कब बदल जाए कुछ नहीं कहा जा सकता… रक्षक कब भक्षक बन जाए…
संजीव जायसवाल संजय, लखनऊ
तेजेन्द्र भाई, ब्रिटेन जैसे देश में जहां जनता पुलिस को अपना रक्षक मानती है वहां ऐसी घटना पुलिस के ऊपर एक बदनुमा दाग साबित होगी। मामला चाहे श्वेत का हो या अश्वेत का, अपराध, अपराधी ही होता है उसके खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। आप जैसे जागरुक संपादक इन सामाजिक मुद्दों को उठा रहे हैं यह प्रशंसनीय है।
शन्नो अग्रवाल, लंदन
तेजेन्द्र जी,
विभिन्न मुद्दों पर लिखे आपके संपादकीय जानकारी देने के साथ रोचक व सहज और सुंदर भाषा शैली में होते हैं। और सच में जैसा आपने कहा ‘साप्ताहिक खुराक’ बनते जा रहे हैं ।
आज आपने कुछ वर्ष पूर्व यहाँ यू के में एक पुलिस वाले के दुस्साहसी और दुष्कर्म के बारे में जिक्र किया है। इसे पढ़कर अब पुलिस वालों पर से भी विश्वास उठता जा रहा है।
अब सवाल यह है कि अगर पुलिस वाले ही बलात्कारी और हत्यारे बन जायेंगे तो देश में लोग कैसे सुरक्षित रह सकते हैं? किंतु फिर भी किसी परेशानी या कानून से जुड़े मसले को लेकर इंसान को उनके पास जाना पड़ता है। ‘मरता न तो क्या करता’ वाली बात है।
पुलिस अपने कुकर्मों से लोगों का भरोसा तोड़कर अपने हाथों में कानून ले रही है और अपनी पावर का दुरूपयोग करने लगी है। ऐसे ही तमाम केस अब भारत में भी हो रहे हैं।
अभी हाल ही में क्राइम की कुछ ऐसी वारदातें हुई हैं कि सुनकर मन दहल गया। भारत में राबिया सईद, जो पुलिस की कर्मचारी थी, उसका रेप और मर्डर का केस व गोरखपुर में मनीष गुप्ता नाम के एक व्यक्ति का कत्ल का केस।
सुना है कि दोनों में ही पुलिस का हाथ था। लेकिन जनता को गुमराह करने के लिये पुलिस गलत रिपोर्ट लिख कर देती है। क्योंकि वह लोग पुलिस विभाग में बड़े अफसर थे और उनपर लगे खून के धब्बों को वह खुद ही साफ करने की कोशिश करती है।
तो फिर अब पुलिसिया कार्यवाही का क्या अर्थ रह गया? अब तक तो आम जनता के लोग अपराध करते सुने जाते थे । लेकिन अब सुरक्षा विभाग के लोग भी अपराधी हो रहे हैं। हे भगवान! क्या कलियुग में यह सब भी होना था? 😢
जय शंकर तिवारी, हिंदी विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री डिग्री कॉलेज गोंडा, उत्तर प्रदेश
संपादक महोदय, नमस्कार
आपके संपादकीय से ब्रिटेन में हुई इस बेहद दु:खद घटना की जानकारी हुई। यह भी ज्ञात हुआ कि ब्रिटेन के लिए यह घटना अत्यंत विरल एवं चौंकाने वाली है। स्पष्ट हुआ कि तीन कारणों से यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना लोगों का ध्यान खींच रही है। एक, श्वेत व्यक्ति के द्वारा दूसरी श्वेत महिला के प्रति यौन हिंसा एवं हत्या की गई है। दो, वह बलात्कारी और हत्यारा कानून का रखवाला पुलिस कर्मी है। तीन, ब्रिटेन के सभ्य समाज में इस तरह की घटनाएं प्रायः नहीं होती। यह बेहद पीड़ादायक खबर है।
लगता यही है कि वहशी दरिंदे हर देश में पाए जाते हैं, प्रतिशत कम – ज्यादा हो सकता है। सज्जन, सदाचारी सब देश और समाज में होते हैं, प्रतिशत कम – ज्यादा हो सकता है।
हो, न हो, पोर्नोग्राफी ने दुनिया भर में बहुतों को बीमार किया है। ज्यादा समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक इस पर प्रकाश डाल पाएंगे, पर सोच विचार, खानपान, रहन सहन, संवेदनहीनता, पारिवारिक वातावरण – ये सब मिलकर व्यक्ति के मानस का निर्माण करते हैं।
सादर

1 टिप्पणी

  1. अति सराहनीय सम्पादकीय
    जब रक्षक ही भक्षक बन जाये
    ऐसी और भी कई कहावतें मुहावरे हैं जैसे
    जब बागड़ ही खेत खाने लगे
    घर का भेदी
    चोकीदार ही चोर है
    पुलिस …..
    उन सबका विवरण यहाँ नहीं किया जा सकता, ये सदियों पुरानी आज भी जीवन्त लगती हैं। राजनीतिक क्षेत्र में सटीक बैठने पर उन पर बैन भी लगा दिया जाता है। उनका उपयोग वर्जित कर दिया जाता है। अपराध पूरे विष्व में होते हैं। बलात्कार हत्या रंगभेद बड़ी आम हो गए हैं। अधिकांशतः रसूख वाले इनके मुख्य पात्र होते हैं। अब तो विस्वास नही किया जा सकता कि बहुत ही गहन प्रक्रिया से फिल्मी कहानी या नॉवल से प्रेरित या सीख लेकर। हमारी जांच एजेंसियां यदि भ्र्ष्ट न हो तो अति प्रवीण हैं। सराहना तो हर क्षेत्र की करनी होगी।

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