पुरवाई के संपादकीय ‘फफूंद (Mould) जानलेवा हो सकती है’ पर निजी संदेशों के माध्यम से प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं। यहाँ केवल वही प्रतिक्रियाएं शामिल की गई हैं, जो संपादकीय के टिप्पणी बॉक्स में नहीं आ पाई हैं।

कीर्ति माहेश्वरी
तार्किक, शोधपरक एवम वैज्ञानिक लेख, पिछले साल मुझे भी इसी तरह की एलर्जी की शिकायत हुई थी, सरकारी आवास हमेशा से ही नमी युक्त होते हैं, दूसरा प्रमुख कारण नमी का कूलर भी है, जिससे भी जुखाम, खाँसी की समस्या उत्पन्न हो जाती हैं।
डॉ. तबस्सुम जहाँ
बहुत बढ़िया सर। हमारे एरिया के अधिकतर घरों में धूप और दिन की रोशनी नहीं आती। दिन रात बस रात ही रात। सीलन से बदबू अलग। यहाँ रहने वाले लोगों की हड्डियां कमज़ोर, आँखे कमज़ोर, बाल कमज़ोर सब कुछ कमज़ोर ही कमज़ोर। बेशक यहाँ फफूंद दीवारों या घरों में इतना नहीं पर लोगों के दिलों में ज़रूर लग चुकी है। आपका लेख हमेश की तरह दिलचस्प है। पहली बार पता चला कि दीवारों की फफूंद भी इतना खतरनाक हो सकती है। मुझे तो ब्रेड या खाने पर लगी फफूंदी को देख कर ही डर लगता है।
डॉ यासमीन मूमल
ग़ज़ब हर बार ज्ञानवर्धक आवश्यक विषयों पर बेमिसाल लिखकर चौका देते हैं। निःशब्द…!
डॉ मुक्ति शर्मा
आज का संपादकीय हट कर है, जिस को हम नजरांदाज कर देते हैं। उस पर आपने सोचने के लिए विवश कर दिया। अच्छे लेखक की यही पहचान है। घर पर लगी फफूंद को तो हटा सकते हैं। मन दिमाग से हटानी अनिवार्य है। सादर आभार तेजेंद्र जी।
डॉ तारा सिंह अंशुल
वाह जी !
एक समसामयिक,सारगर्भित संपादकीय
“फफ़ूंद ( mould ) जानलेवा हो सकती है…!”
पुरवाई के संपादक आदरणीय तेजेन्द्र शर्मा जी द्वारा, फफ़ूंद (mould ) पर ध्यान आकर्षित किया गया है, जिसे लोग अक्सर नज़रअंदाज करते हैं। यह स्वस्थ के लिए कितनी हानिकारक है ,शायद इसका भान नहीं है।
यूं अत्यंत तुच्छ फफ़ूंदी अपनी नगण्यता में ही अपना विस्तार कर घर ,परिवार , हर जगह अपने दुष्प्रभावों से मनुष्य के जीवन के लिए ख़तरनाक साबित हो रही है। यह हमारे स्वास्थ्य पर ही निशाना साधे है। हुकूमत के आशियाने में लगी फफ़ूंदी का क्या कहना , यह तो पूरी भवकुंभी बनकर ( जलकुंभी की तरह ) हर तरफ़ व्याप्त है।
इस फफ़ूंद के कारण सांस सम्बंधी बीमारियों से , वहां इंग्लैंड में बच्चे की दर्दनाक मृत्यु हो गई , इससे स्पष्ट होता है कि , ” कदाचित घर परिवार इसके गिरफ़्त आ गये हैं। इसका वक्त पर कारगर इलाज़ होना बहुत आवश्यक है।”
यहां भारत में राजनीतिक फफ़ूंद भी तेजी बढ़ती प्रतीत हो रही है, मेरा विचार है कि, इससे बचने के लिए लोंगो को ख़ुद को भी स्वच्छ रखना होगा , यक़ीनन समाजिक राजनीतिक फफ़ूंद के उचित इलाज़ करने के लिए सदैव तत्पर रहना होगा। बेईमानी का दामन छोड़ना होगा ईमान की संजीवनी घुट्टी पीनी होगी।
पुरवाई के संपादक, आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी, आप समाज में अहितकारक , कुछ ख़तरनाक विषय/ मुद्दे , जो कहीं कोने में दुबके पड़े होते हैं , उन पर अपनी पैनी निगाह डालते हुए , अपनी सारगर्भित , जनहित में संपादकीय आलेख लिखकर , पुरवाई के पाठकों की नज़र में लाते हैं , इसके लिए आपको, हार्दिक साधुवाद, शुभकामनाएं।
शन्नो अग्रवाल
नई जानकारी। आँखें खोलने वाला संपादकीय। कभी न सोचा था कि घर मे फफूंद लगना खतरनाक हो सकता है।
नमी और सीलन से भरी जगहें खतरनाक साबित हो सकती हैं इसे सोचकर गौर करना पड़ता है कि यूके भी सीलन भरा देश है। और तिसपर भी आजकल के मॉडर्न घरों या अपार्टमेंट्स में बाथरूम से खिड़कियाँ गायब हो रही हैं। बाथरूम में जाने पर दिन में भी लाइट व Xtractor फैन को चलाना पड़ता है।
जिस चीज में भी फफूंदी लग गयी उसका सत्यानाश हो सकता है। सोचकर मन काँप उठता है। कुछ रिश्ते भी फफूंदी से नष्ट हो जाते हैं। जैसे कि श्रद्धा व आफताब के इश्क में फफूंदी लगने से श्रद्धा की जान चली गयी।
उत्कृष्ट संपादकीय के लिये आपको व आपकी कलम को नमन, तेजेन्द्र जी।
अर्चना चतुर्वेदी
आपके संपादकीय आंखे खोलने वाले होते हैं । जिन बातों पर लोग ठीक से गौर तक नही करते उनकी पूरी पड़ताल करके आप उसका हर तथ्य सामने रख देते हैं।
प्रज्ञा पाण्डेय
फफूंद पर आपका संपादकीय मानीखेज है। वाकई कहीं भी फफूंद का होना ठीक नहीं है।

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