कोई कुछ भी कहता या बातें बनता फिरे लेकिन वक्त तो सच में आज बिलकुल भी नहीं था मेरे पास। भागदौड़ ही इतनी थी कि बस पूछो मत। सुबह से ले कर दोपहर भी अब होने को आयी थी मगर मजाल है जो एक कप चाय भी ढंग की नसीब हुई हो। उफ्फ…कितने इंतज़ाम बाकी पड़े हैं अभी। ना ढंग से गेट सजा है और ना ही कुर्सी-मेज़ों पर ताज़े फूलों के गुलदस्ते। ऊपर से मेहमानों का आना भी शुरू हो चुका है। किसी को ना पूछो या थोड़ी देर से पूछ लो तो फट से मुँह सूज जाता है। कोई ये नहीं सोचता कि एक अकेली जान…कितने करे काम? खैर… ग़लती तो मेरी ही थी, किसी और को क्या दोष दूँ? जोश-जोश में होश गंवा बैठा।
हड़बड़ाहट में मैं कभी हलवाई का तो कभी टेंट वाले का नम्बर घुमाए चला जा रहा था मगर मजाल है जो कोई एक ही बार में फ़ोन उठा ले। एडवांस लेने के नाम पर तो सब हाँजी…हाँजी और अब काम के वक्त पर सब स्साले पता नहीं कहाँ जा के मर गए हैं? जबसे ये कमबख्त फ्री इनकमिंग का झुनझुना थमाया है इन मुय्ये मोबाईल वालों ने, जिसे देखो कान पे टुनटुना लगाए हर वक्त तमाशबीनी करता फिरता है मानों फ़ोन…फ़ोन ना हुआ किसी ताज़ी-ताज़ी बनी माशूका का इत्र फुलेल में डूबा रसभरा लव लैटर हो गया। जी ही नहीं भरता स्सालों का। बताओ ये भी कोई बात होती है करने की कि…
“मेले लाजा बेट्टे ने थाना थाया कि नहीं?”
“अरे…तुम्हें टट्टू लेना है कि थाना थाया कि…ऊप्स सॉरी…खाना खाया है या नहीं? या कौन से कपड़े पहने हैं?…पहने हैं तो किस कलर..किस ब्राण्ड के पहने हैं? अन्दर क्या पहने हैं और बाहर क्या पहने हैं? पहने भी हैं या नहीं?”
अरे!…उसकी मर्ज़ी जो मर्ज़ी खाए…जो पहनेपहने या ना पहने, हमारी बला से, हमें क्या फ़र्क पड़ता है? लेकिन नहीं, फ़र्क तो पड़ता है। तभी तो एक से मन भर जाए या जब बातें ख़त्म होने पर उतारू हो उठें तो झट से दूजी को फ़ोन मिला वही पुराना घिसा पिटा डॉयलाग कि…”और सुनाओ।” 
सही है बेट्टा, “और सुनाओ” कह के गेंद दूसरे के पाले में डाल दो कि…अब तू ही नयी-नयी बातें ढूँढ या गढ़ करने के लिए, अपना कोटा तो पिछली वाली के साथ ही कब का पूरा हो गया।
“उफ़्फ़…तौबा, खामख्वाह में कितना बिज़ी रखते हैं लोग खुद को।” 
इधर स्साली दुनिया भर की टेंशन हुए जा रही थी और उधर उसे बढाने को ढोल वाला पूरी लगन और शिद्दत से मानों ढोल का मुँह आज ही फाड़ डालने की ठान, उतावला हुआ बैठा था। बैठे भी क्यों ना? बख्शीश जो मनमानी दिहाड़ी से अलग मिल रही थी। और मेहमान?…उनको तो मन भर मौक़ा चाहिए होता है तमाशबीनी करने का। नागिन धुन पे ऐसे मस्त हो कर बीच सड़क लंबलेट हुए जा रहे थे मानों अपने बाप की बरात पे ढिंचैक..ढिंचैक कर ठुमके लगाने आए हों। ये सब इंग्लिश की लावारिस खुली पड़ी पेटियों का असर था। फ्री में मिले सही, कोई भी स्साला ना आव देखता है और ना ताव देखता है और बस सीधा टांग उठा के कूद पड़ता है मैदान-ए-जंग में कि फ़िर मौका मिले ना मिले। पराया माल समझ बिना किसी झिझक या हिचकिचाहट के तर माल पे इस तरह हाथ साफ़ किया जा रहा था मानों अगले जन्म में नसीब हो ना हो।
अपना बँगला और लॉन वगैरह तो खैर ऊपरवाले के फ़जल-ओ-करम से सुबह-सवेरे ही सबसे पहले सज चुका था मगर फ़िर भी अगर कोई छोटी-बड़ी…माड़ी–मोटी कसर रह गयी तो देखा जाएगा। बस…थोड़ी बहुत दिक्कत और फ़िर मौजां ही मौजां। वैसे ऊपरी तौर पर तो सारे मेहमान खुश नज़र आ रहे थे मगर भीतर कहीं ना कहीं थोड़ी-बहुत कुतकुताहट (सुगबुगाहट) तो सबके चेहरों पर साफ़ नुमायां हो रही थी कि आख़िर…माज़रा क्या है? ये कंजूस-मक्खीचूस आख़िर इतना दिलदार कैसे हो गया? कहीं इसकी कोई लॉटरी-शॉटरी तो नहीं लग गयी? अगर बाय चाँस भूले भटके से ही सही, ऊपरवाले के पल दो पल के लिए आँखें मूँद लेने से, लग लगा भी गयी हो तो ऐसे पागलों की तरह भला कौन बावला लुटाता फ़िरता है?
“कहीं ना कहीं दाल में कुछ ना कुछ काला तो ज़रूर है।”
हुँह!…दाल में कुछ ना कुछ काला तो ज़रूर है। अरे!…तुम क्या जानों यहाँ तो पूरी की पूरी दाल ही काली है। मुफ़्त का माल मिलता देख वैसे तो ऊपरी तौर पर सभी चुप थे कि…हमें क्या? मगर कोई ना कोई बेवकूफ वक्त-बेवक्त झिझकते…शरमाते सवाल दाग़ ही देता था कि…”किस ख़ुशी के मौके पे दावत दी जा रही है जनाब? कोई लॉटरी-शॉटरी लगी है क्या?” 
“अरे!…तुम्हें टट्टू लेना है? लगी हो या ना लगी हो। तुम अपना खा-पी कर मौज करो लेकिन नहीं…सबको दूसरे के फटे तंबू में अपना बंबू जो घुसाना होता है। अंधों में काणा राजा की तर्ज पर आए हुए मेहमानों में कुछ सज्जन टाइप के ऐसे समझदार लोग भी थे जो बिना किसी टेंशन के विरक्त भाव से निर्विकार हो खाओ-पिओ और अपना रास्ता नापो की चिरस्थायी…चिरयुवा पॉलिसी को अपना ईमान धर्म मान, अपना निजी वाला उल्लू सीधा करने में जुटे थे। मेहमान इतने ज़्यादा थे कि मेहमानवाजी के चक्कर में मेरी हालत पतली हुए जा रही थी लेकिन ख़ुशी का मौक़ा ही कुछ ऐसा था कि इस पर तो ऐसे सौ-सौ कष्ट कुर्बान। मेरी अब तक की पूरी ज़िन्दगी में ये कोई छोटी-मोटी ख़ुशी का मौक़ा नहीं था, पूरे चौदह साल की घनघोर तपस्या के बाद आज जा के मुझे उसका फ़ल प्राप्त हुआ था। ख़ुशी के मारे मन ही मन ये बोल फूट रहे थे कि.. 
“दुःख भरे दिन बीते रे भईय्या, अब सुख आयो रे।”
नौकर-चाकर तो आज रविवार का दिन होने की वजह से वैसे भी कम पड़ने थे, सो…पड़ ही गए मगर बाकी के जो बचे-खुचे थे, वो सब मोटे इनाम के लालच में जी जान से जुटे हुए थे। ऊपरी तौर पर तो वैसे सब कुछ ठीकठाक ही चल रहा था मगर फ़िर भी मन में कुछ न कुछ खटक सा रहा था कि कहीं ना कहीं, मैं कुछ न कुछ तो ज़रूर भूल रहा हूँ। 
कहीं कोई यार-दोस्त या रिश्तेदार तो बुलाने से नहीं रह गया कि इतने मोटे खर्चे के बावजूद भी बाद में मुझे ताने सुनने को मिलें? बड़ी ही बारीकी से मेहमानों की लिस्ट को कई बार चैक करने के बाद भी जब कोई कमी..कोई कोताही नज़र नहीं आयी तो मैंने मुस्कराहट भरी चैन की साँस ली। 
मुस्कराहट अभी ढंग से पूरे चेहरे पर खिल भी नहीं पायी थी कि अचानक काटो तो खून नहीं। सब का सब आँखों के सामने तहस-नहस होता चला जा रहा था कि इतनी ज़रूरी बात मैं भूल कैसे गया? हे!…भगवान अब क्या होगा? उफ्फ…ये मैंने क्या कर दिया? कहाँ मति मारी गयी थी मेरी जो इतनी ज़रूरी बात भी मेरे दिमाग़ से उतर गयी? बेवकूफी की भी हद होती है। समझदार हो कर भी मैं इतना नासमझ कैसे हो गया? रौंगटे खड़े होने को आए थे मेरे लेकिन कैसे ना कैसे कर के हिम्मत तो मुझे ही करनी थी। ओखली में जब सर जा ही चुका है तो अब मूसल से क्यों डरूँ? जितनी जल्दी हो सके, इस टंटे को भी अभी के अभी निबटा दूँ। साँप के बिल से निकलने से पहले ही अगर लाठी भांज दी जाए तो बेहतर। बस यही सब सोच डरते-डरते हिम्मत कर फ़ोन घुमाया और फ़िर वही सब हुआ जिसका मुझे डर था। सामने से कड़कती…डपटती बुलंद आवाज़ सांय-सांय करती मेरे कानों को बेंधती हुई गुंजायमान हो रही थी कि..
“कब?…कहाँ?…कितने बजे? अभी तक सोए हुए थे क्या? पहले फ़ोन क्यों नहीं किया हरामखोर वगैरह-वगैरह…
पता नहीं मेरे दिमाग़ में स्साला उस वक्त क्या चल रहा था कि बेध्यानी में खामख्वाह की फूं-फां के चक्कर में मुँह से निकल पड़ा कि…
“तुम्हें टट्टू लेना है? अपना आराम से खाओ-पिओ और मौज लो।”
“मौज तो खैर बेट्टे…हम आ के ले ही लेंगे और हमें काम ही क्या है? पहले फ़टाफ़ट अपना नाम और पता बोल, आधे घंटे में पहुँच रहे हैं। कहीं जाइओ मत, वहीं रहिओ।”
“ज्ज…जी…रर…राजीव, ए.ई – 173 XXXX…..ग़”
“हम्म!…और ये आस-पड़ोस में क्या शोर-शराबा लगा रखा है?”
“ज्ज…जी!…दरअसल मेरी बीवी भाग गयी है ना तो बड़े दिनों बाद दोस्तों के साथ थोड़ा-बहुत एन्जॉय करने का मौका मिला इसलिए ह्ह..हमने सोचा कि बैण्ड बाजे वाले को भी…
“रुक….वही रुक स्साले, हमें बरगलाता है? हमारे रिमांड के आगे तो अच्छे-अच्छों के बोल बचन फूट पड़ते हैं। तू भला किस खेत की मूली है?” इतना कह कर दूसरी तरफ़ से गुस्से में फ़ोन पटक दिया गया।
बैण्ड तो अब मेरा…खुद का ही बजेगा बच्चू, कुछ और नहीं बक सकता था क्या? शेर सी दहाड़ सुन घिग्घी बँधी तो मैं पागल, बावला हो सब का सब उगल उठा। कंठ सूखे जा रहा था मेरा और ज़बान तो जाने कब की तालू से चिपक, पंगू होने का इरादा बना चुपचाप कुंडली मार दुबक कर बैठ चुकी थी। मन ही मन काँप रहा था कि पता नहीं क्या-क्या पूछेंगे और मैं क्या-क्या जवाब दूँगा। 
टट्टू जवाब दूँगा, फटी तो अपनी पहले से पड़ी है। कुछ और भी तो बोल सकता था मगर सच्चाई के सुलेमानी कीड़े ने जो काट खाया था मुझे। सो…दंश भी तो मुझे ही सहना है, अब भुक्तो। इसी सब की उधेड़बुन में मैं अभी डूबा हुआ ही था कि मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम करने को गली में पुलिस का दनदनाता हुआ सायरन चिंघाड़े मारता हुआ गूँज उठा। 
एक बात बताओ, क्या सिर्फ़ हिंदी फिल्मों ही पुलिस को देर से आना एलाउड होता है? असल ज़िन्दगी में इनका इस सबसे कोई वास्ता नहीं? ये तो सच में बड़ी ग़लत बात है कि सामने कुछ और परदे पर कुछ। इन सबसे तो फ़िर फ़िल्मी पुलिस ही अच्छी है कि कम से कम कुछ पल के लिए ही सही, राहत के पल दे, दर्द-ओ-ग़म सब भुला देती है। एस.एच.ओ साहब खुद अपने दल-बल के साथ पधारे थे। 
“हाँ!…भय्यी, यहाँ वो चिड़ीमार कौन है जिसने फ़ोन किया था?” एक कड़क आवाज़ सुनाई दी। 
कोई कुछ नहीं बोला तो एस.एच.ओ साहब फ़िर चिल्ला पड़े। “ओए!…सीधी तरह बताते हो या एक-एक को पकड़ के अन्दर कर दूँ?”
मैं डरते-डरते आहिस्ता से सामने आया और सर झुका कर खड़ा हो गया। “ज्ज…जी!…म्म…मैंने ही फ़ोन किया था मगर…
“नाम बोल…क्या नाम है तेरा?” 
“ज्ज…जी!…राजीव तनेजा।”
“काम क्या करता है?”
“ज्ज..जी ऐसे ही छ…छोटा-मोटा लेखक हूँ, हह..हास्य व्यंग्य लिख लेता हूँ थोड़ा बहुत।”
“हम्म!…”
“सर जी…पक्का तभी भागी होगी।” पास खड़ा हवलदार एस.एच.ओ साहब के कान में फुसफुसाता हुआ बोला।
“हम्म!…तो तूने फ़ोन किया था?” एस.एच.ओ साहब ऊपर से नीचे तक घूरते हुए मेरा मुआयना सा करते हुए बोले।
“ज्ज…जी!…”
“इसका चौखटा देख के तो नहीं लगता जनाब कि… (ना में मुंडी हिलाता हुआ एक सिपाही आगे बढ़ा।)
“पता कर ज़रा आस-पड़ोस से।”
“जी!…जनाब।” कहता हुआ सिपाही मुस्तैदी से तमाशा देख रही भीड़ की तरफ़ बढ़ गया और थोड़ी देर बाद प्रफ़ुल्लित मन से मुस्कुराता हुआ वापिस लौट कर एस.एच.ओ साहब से कुछ खुसर-पुसर करने लगा। 
“जनाब!…लौंडा तो सच कह रहा है, सच में ही दुड़की हो ली।”   
“हम्म!…वैसे इसका चौखटा देख के लगता तो नहीं कि इतना बड़ा तीसमार खां है मगर क्या पता चलता है। तू बात कर के देख इससे।” 
“जी!…जनाब।” कहते हुए सिपाही मेरी तरफ़ बढ़ आया। 
“देख भय्यी, अपने एस.एच.ओ साहब बड़े कड़क मिजाज़ के आदमी हैं। उनके सामने झूठ बोलने की बिलकुल भी कोशिश मत करियो। सब कुछ अपने आप ही साफ़-साफ़ बता दे तो फ़ायदे में रहेगा नहीं तो भाई मैं भी कुछ नहीं कर सकूँगा तेरे लिए।”
“म्म..मैं सच कह रहा हूँ सर जी। सच में भाग गयी है। आप चाहो तो आस-पड़ोस में किसी से भी पूछ लो।”
“चल!…ठीक है, मान ली तेरी बात, तू भी क्या याद करेगा किसी दिलदार से पाला पड़ा था।” 
“थ…थैंक्यू जी।” 
“न..ना, ख़ाली थैंक्यू से काम नहीं चलने वाला।” 
“ज्ज…जी हवलदार जी, मैं समझ गया।” मैंने अपना हाथ अपनी जेब की तरफ़ बढ़ाया तो सिपाही एकदम से बौखला उठा।”
“बावला है क्या? खुद भी मरेगा और मुझे भी मरवाएगा। चल उधर, तेरे से प्राइवेट में कुछ बात करनी है।” सिपाही मेरे कंधे पे हाथ रख मुझे एक कोने में ले गया। वहाँ पहुँच कर इधर-उधर सावधानी से देखने के बाद मेरे कान में फुसफुसाता हुआ बोला। 
“ये कमाल कैसे कर दिखाया गुरु?” सिपाही के चेहरे पर मुस्कराहट तैर रही थी।
“ज्ज…जी दरअसल वो क्या है कि इसमें मेरी कोई ग़लती नहीं। वो तो अपने आप ही… (मेरा बौखलाया स्वर।)
“अबे!…ये ज्ज…जी-जी…व्व…व्व वो से आगे भी बढ़ेगा या इसी के साथ चिपक कर खड़ा रहेगा। लेखक है इसीलिए आराम से समझा रहे हैं वरना….(तभी एक हवलदार आगे बढ़ मेरा गिरेबान थाम मुझे धमकाता हुआ बोला।)
“चोप्प!…बिलकुल चुप, जब अगला आराम से बता रहा है तो फ़िर पुलसिया रुआब झाड़ने की क्या ज़रूरत है?” एस.एच.ओ साहब हवलदार को पीछे हटा, अपनी आवाज़ को भरसक मुलायम करते हुए बोले। 
“हाँ!…चलो, अब तुम शुरू हो जाओ।” एस.एच.ओ. साहब की ज़बान में मानों मिश्री पूरी तरह से घुल चुकी थी। 
“चलो!…शुरू से शुरू हो जाओ और बिना कुछ छुपाए सब कुछ सिलसिलेवार ढंग से साफ़-साफ़ बताओ।”
“ज्ज…जी!..दरअसल ब्ब…बात ये है कि…
“घबरा मत, सब सच-सच बता दे, साहब खुश हो गए तो तुझे बड़ा इनाम भी देंगे। लिखने-लिखाने से गुज़ारा तो चलता नहीं होगा, ले रख ले।” कहते हुए हवलदार ने चुपचाप पाँच-पाँच सौ के दो कड़कड़ाते हुए नोट मेरे नानुकर करने के बावजूद भी मेरी जेब में डाल दिए। 
“ज्ज..जी!…दरअसल ब्ब..बात ये है कि…(मेरी ज़बान लड़खड़ा रही थी।)
मेरी हिचकिचाहट देख सबने आँखों ही आँखों में इशारे से आपस में कुछ बात की और फ़िर एस.एच.ओ साहब ने ख़ुद पाँच-पाँच सौ के आठ नोट और मेरी जेब के यह कहते हवाले कर दिए कि आज तो बस इतने ही इकट्ठे हो पाए हैं अपने चाहने वालों से और ये सब भी तुमने देखा ही है कि हम सब मिल कर दे रहे हैं। और हाँ…लेखक हो तो ये सब कहीं लिखने मत लग जाना वरना…(एस.एच.ओ साहब ने ऊँगली से मुझे इशारा करते हुए अपनी बात अधूरी छोड़ दी।
“अब यार तुम्हें तो अच्छे से पता ही होगा कि आजकल ख़र्चे कितने ज़्यादा हैं और कमाई कितनी कम है। हम सब एक ही कश्ती के सवार जो ठहरे।” इस बीच खिसियानी हँसी हँस झेंपता हुआ हवलदार हौले से मुस्कुरा पड़ा।
कौन कहता है कि हमारे देश में एकता नहीं है। बराबर का मौक़ा मिले तो शेर और बकरी हमारे यहाँ एक ही घाट पर, एक ही लौटे को मुँह लगा पानी पी सकते हैं। हाँ!…ये और बात है कि प्यास हर एक की अपनी क्षमता और औकात के हिसाब से आंकी जाती है। हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या? खुद का अपनी आँखों देखा ताज़ा-ताज़ा तजुर्बा था ये। 
“आजकल तो यार, बड़ा मंदा चल रहा है। कोई शराफत से दे के तो कसम से राज़ी ही नहीं। ख़ामख्वाह का डंडा ना करें अगर तो हम सब तो बेकार में भूखों ही मर जाएँ।” मेरे चेहरे पर अभी भी असमंजस का भाव देख मुस्कुराता हुआ एस.एच.ओ बोल पड़ा।
“अब तुम तो जानते ही हो सरकारी तनख्वाह से तो हमारी क्या किसी की भी दाढ़ गीली नहीं होती। पेट भरना तो दूर की बात है। वैसे भी ये सब तनख्वाह वगैरह तो हमें आराम करने के लिए मिलती हैं।” हवलदार मेरी भरी जेब को हौले से थपथपाता हुआ बोला। 
“और नहीं तो क्या? सारी मुस्तैदी तो हम इस भरी जेब के लिए दिखाते हैं।” सिपाही ने भी बातचीत में खुद को शामिल कर लिया।
“ल्ल…लेकिन…
“बता दे भय्यी, क्यों नखरे दिखा रहा है? हम सब की भी यही प्रॉब्लम है। तेरे बहाने हल हो जाएगी।” हवलदार मेरे कंधे पे हाथ रख चिरौरी सी करने लगा।
“कोई ऐसा जुगाड़ बताओ गुरु कि साँप भी मर जाए और…
“लाठी भी ना टूटे।” सिपाही की अधूरी छूटी बात को एस.एच.ओ समेत सभी पुलिस वाले पूरी करते हुए एक साथ बोल पड़े।
“अरे!…अरे…आप सब तो मेरे ही भाई-बंधु निकले, अब तो आपको बताना ही पड़ेगा।” भरी जेब पर अपने हाथ का दबाव बढ़ा मैं मुस्कुराता हुआ बोला। 
“सबसे पहले तो आप हर रोज़ कुछ ना कुछ ऐसा करें कि मुसीबत खुद तंग आ कर एक ना एक दिन अपने आप ही भाग जाए।” मैं अपने स्वर में गंभीरता का पुट लाता हुआ बोला। 
“किसको पढ़ा रहे हो गुरु? ये सब तो हमें पहले से ही पता है। कई-कई बार तो हम सब खुद ही इस बरसों पुराने नुस्खे को आज़मा चुके हैं मगर नतीजा वही…
“ठन ठन गोपाल?” मैंने प्रश्न किया।
“नहीं!…ढाक के तीन पात।” सभी एक एकमत स्वर। 
“अड़ोसने-पड़ोसनें तो रोज़-रोज़ के हंगामे और क्लेश से तंग आ मोहल्ला छोड़ के चली गयीं लेकिन अपने वाली हैं कि टस से मस होने तक का नाम नहीं लेतीं।” हवलदार बोल पड़ा। 
“अरे!…यार पहले पूरी बात तो सुन लो, लगे बीच में ही टोका-टाकी करने। जहाँ टोका-टाकी करनी चाहिए आप सब को, वहाँ तो बोल नहीं फूटते होंगे ज़बान से।” मेरा तैश भरा तमतमाया स्वर।
सब के सब एकदम हक्के-बक्के…बिलकुल चुप…टकटकी लगा मेरी तरफ़ देखने लगे तो हौसला पा, मैं शुरू हो गया कि…
“उनके हर काम में ‘टोका-टाकी’ करो, घड़ी भर को भी चैन से ना बैठने दो। कभी ये ला तो कभी वो ला। ले आए तो ये नहीं वो ले के आ, वो ले आए तो माथे पे हाथ मार के बोलो कि…अरे!..ये क्यों ले आयी? मैंने तो वो लाने को कहा था।”
“और?…” सिपाही मेरी तरफ़ देख प्रश्नवाचक मुद्रा में बोल उठा। 
“और खाना जितना मर्ज़ी स्वादिष्ट बना हो लेकिन एक बात गाँठ बाँध लो कि तारीफ़ तो कभी भूल के भी नहीं करनी है। खाने की तरफ़ देखते ही नाक-भोहं ज़रूर सिकोड़ो कि ये क्या बवाल बना के ले आयी? और सबसे ज़रूरी और अहम बात कि तारीफ़ तो भूल से भी कभी करनी नहीं है बेशक लार टपक-टपक के पेट में ओवरफ्लो की वजह से बाढ़ तक क्यों ना आने लग जाए।”
“और?…” एस.एच.ओ साहब ने मुस्कुराते हुए फ़िर से सवाल दाग़ दिया। उनकी उत्सुकता ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी।
“पड़ोसन चाहे कैसी भी क्यों ना हो, उसकी तारीफ़ में ज़मीन-आसमान इस हद तक एक कर दो कि जितने मर्ज़ी पुल बाँधने पड़ें, सब काम छोड़ के बाँधो।”
“और?…” इस बार एस.एच.ओ साहब से पहले हवलदार खुद ही टपक पड़ा।
“आती-जाती लड़कियों को जी भर घूरो…छेड़ो। उनकी माँ-बहन एक करने में कोई कसर नहीं छोड़ो।”
“इस सब में तो हम सब एक्सपर्ट हैं।” पास खड़े दोनों सिपाही एक साथ बीच वार्तालाप के कूद पड़े। 
उनकी बातों को अनसुना करता हुआ मैं आगे बढ़ा कि… “हर लड़की/औरत को तुम ज़रूर छेड़ो।”
“भले ही वो हमसे उम्र में दुगनी क्यों ना हो?” एक प्रश्न फ़िर उछला।”
“बेशक तुम्हारी माँ के बराबर क्यों ना हो, फ़िर भी ज़रूर घूरो।”
“ओके…और?” एस.एच.ओ साहब कुछ समझने का प्रयास करते हुए बोले।
“बीवी की कोई बहन या पक्की सहेली हो तो उसे बिना नागा लाइन मारो।”
“और?…”
“और उन पर उलटी सीधी फब्तियां कसने में कोई कसर नहीं छोड़ो। अपने लिए नए-नए कपड़ों-जूतों…मोबाइल-लैपटॉप वगैरह की शॉपिंग करो और उसके ऊपर फूटी कौड़ी भी ना खर्च करो।”
“और?….”
“कम दहेज ले कर आने के नाम पर बार-बार तंग करो। ताने मारने में कोई कसर नहीं छोड़ो और उसके हर काम में बिना किसी नागे के कोई न कोई नुक्स ज़रूर निकालो।”
“हम्म!…”
“इससे बात नहीं करनी है…उसकी तरफ़ नहीं देखना है वगैरह…वगैरह जैसे पेट डॉयलाग रोज़ाना की खुराक के तौर पर डिलीवर करने के लिए रट लो। उसके रिश्तेदारों को वक्त-बेवक्त बेइज्ज़त करते रहो। और सबसे इम्पोर्टेंट बात कि चाहे उसका मन *&^%$%#@ के लिए करे ना करे, तुम ज़रूर करो।”
“न…ना, इन सबसे बात नहीं बनने वाली, कोई फ़ायदा नहीं। ये सब तरीके तो हमारे पहले से ही आजमाए हुए हैं।” एस.एच.ओ साहब ना में अपनी मुंडी हिलाते हुए निराश स्वर में बोले।
“कोई ऐसा जुगाड़ बताओ गुरु जिसके काटे का इलाज तक ना आया हो बाज़ार में। जिससे कि काम का काम बने और लाठी भी ना टूटे।” हवलदार मेरी ठुड्डी पर हाथ लगा चिरौरी करने लगा।
“अगर ऐसी ही बात है तो पुलसिया हाथ है जनाब आपका। ज़रा ढंग से दो-चार जमा दो खींच के कान के नीचे कि एक ही बार में शैंटी फ़्लैट हो जाए।” कहते-कहते मेरा हाथ झटाक से सीधा एस.एच.ओ साहब के कान पे एक ज़ोरदार तमाचा रसीद कर चुका था। 
“स्साले!…हरामखोर, हमारे एस.एच.ओ साहब पे हाथ उठाता है? तेरी माँ की…तेरी भैण की।” कहते-कहते सब के सब पुलिस वाले बौखलाते हुए मेरे से पिल पड़ गए। एक-आध मिनट में ही मेरे दोनों गालों पर गहरी-गहरी उँगलियाँ छप चुकीं थी। पता नहीं मार का असर था या फ़िर कुछ और। एस.एच.ओ साहब की आवाज़ कुछ-कुछ बदल कर मेरी बीवी जैसी कर्कश और जनाना सी हो चुकी थी। ध्यान से आँखें मिचमिचाते हुए जब देखा तो टेंट, कुर्सियाँ और मेहमान सब का सब ग़ायब हो चुका था और मैं अपने गालों पर हाथ धरे अपने पलंग से नीचे गिरा पड़ा हूँ और बीवी सर पे खड़ी ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रही है कि..
“उठ कुम्भकरण की औलाद, उठ और ये तो बता ज़रा कि किसको शैंटी फ़्लैट करने के सपने देख रहे थे? मैं घड़ी दो घड़ी के लिए बाहर क्या गयी, सब काम-धंधा छोड़ के आराम फरमा रहे हो?”
“म्म…मैं दरअसल…
“और ये किसे उलटी पट्टी पढ़ाई जा रही थी कि मन हो या ना मन हो… कितनी बार समझा के देख लिया कि सपने वही देखो जिनके पूरे होने की गुंजाइश हो।”
“व्व…वो दरअसल ऐसी कोई बात नहीं है…म्म…मेरे से प्प..पूछा तो…
“कितनी बार कह चुकी हूँ कि मेरे सामने तो बिलकुल मिमियाया मत करो। सच्ची!…बड़ी कोफ़्त होती है।”
“अरे!…अब उठो भी फटाफट, बरतन नहीं मांजने हैं क्या? पूरी किचन बिखरी पड़ी है और हाँ…याद आया, ये आजकल कपड़े कैसे धो रहे हो? किसी पे ढंग से नील नहीं लगा होता तो किसी का कॉलर गंदा रह जाता है। पूरे चौदह साल हो चुके हैं तुम्हें समझाते-समझाते मगर भेजे में कोई बात घुसे तब ना। दिमाग तो जैसे घास चरने गया रहता है हरदम। लगता है जब ऊपरवाला अक्ल बाँट रहा था तब भी तुम सो ही रहे होगे। हुंह!…बड़े आए शैंटी-फ्लैट करने।” बीवी का भुनभुनाना जारी था।
कोई और चारा ना देख मैं सर झुकाए किचन की तरफ़ बढ़ गया। थोड़ी देर बाद मुझे बरतन मांजता देख टीवी देख रही बीवी मन ही मन मुस्कुरा रही थी और टीवी पर भूले-बिसरे गीतों के कार्यक्रम में गाना बज रहा था।
“दुःख भरे दिन बीते रे भईय्या…अब सुख आयो रे”
व्यंग्यकार हैं. व्यंग्य-विधा की एक से अधिक पुस्तकें प्रकाशित. संपर्क - rajivtaneja2004@gmail.com

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