मैं अपने कमरे और दिमाग की खिड़की लगभग बंद ही रखता हूं। गलती से खुली रह जाए तो रह जाए। इसलिए नहीं कि मुझे शुद्ध हवा, शुद्ध विचार से चिढ़ है। मुझे शुद्ध हवा से महंगाई जितनी घुटन होती है। मुझे शुद्ध हवा से बेरोजगारी जितनी घुटन होती है। मुझे शुद्ध हवा से नेताओं के आश्वासनों जितनी घुटन होती है । या फिर जितनी घुटन ईमानदारों से होती है। या फिर जितनी घुटन सच बोलने वालों से होती है।
मैं अपने कमरे की खिड़की इसीलिए आठ पहर चौबीसों घंटे बंद रखता हूं कि खिड़की के रास्ते मेरे घर में शुद्ध हवा का रूप धर महंगाई न घुसे। मैं अपने कमरे की खिड़की इसलिए बंद रखता हूं कि खिड़की के रास्ते मेरे घर में शुद्ध हवा का रूप धर बेरोजगारी ने घुसे। मैं शुद्ध हवा के बिना मजे से जी सकता हूं, पर इनके होते हुए मत पूछो मेरा क्या हाल हो जाता है। इनका नाम सुनते ही मेरा रोम रोम दहकने लगता है। मुझे एकाएक सब ठीक होने के बाद भी पता नहीं क्यों चक्कर आने लगते हैं?
आज रात गर्मी से पसीना पसीना होने के बाद भी खिड़की बंद कर हवा को ठेंगा दिखाता सोने का मंचन कर रहा था कि मुझे बंद खिड़की से भी भीतर झांकता कोई दिखा। या कि मुझे लगा बंद खिड़की से भी कोई भीतर झांकने की सुचेष्टा कर रहा है। अजीब प्राणी हो गए हैं आजकल मेरे आसपास के। बंद खिड़की होने पर भी भीतर झांकने की कोशिश करना नहीं छोड़ते। अहा रे निष्काम भोगियो ! अरे ,भीतर झांको उनके जिनकी खिड़कियां खुली हों। अपनी तो यहां कमरे से लेकर दिमाग तक की सब खिड़कियां पता नहीं कबसे बंद हैं।
लाइट जला डरते हुए बंद खिड़की से बाहर झांका तो बाहर मच्छर। हद है यार! ये मच्छर भी न! मंहगाई , बेरोजगारी तो तंग किए ही है, अब ये मच्छर भी मेरे विरूद्ध मोर्चा खोले है… अच्छे दिनों में बहुधा ऐसा ही होता है। आप ही कहो, एक अकेला निहत्था अब किस किसके खिलाफ लड़े? मैं फटाफट खाली माचिस से गुड नाइट जलाने लगा तो मच्छर ने गंभीर होते कहा,‘ बधाई दो दोस्त मुझे!’
‘किस खुशी में? क्या मेरे पड़ोसी का खून चूस कर आ रहे हो?’
‘ आज मुझ पर अखबार ने संपादकीय लिखा है, पूरे पांच कलम का! वाह! अब मच्छरों पर भी संपादकीय लिखने के दिन आ गए!’
‘ मच्छर पर संपादकीय?’
‘ चौंक गए क्या? अरे दोस्त! आजकल ऊंचे मीडिया हाउसों पर मच्छरों का ही तो कब्जा है। इसलिए उनका मच्छरों पर लिखना लाजिमी है ताकि जनता को लगे कि…’ मच्छर नीतिपरक हुआ तो मैं चौंका,‘ तो क्या लिखा है संपादकीय में?’
‘उन्होंने लिखा है दोस्त कि मच्छर से सावधान! व्यवस्था सबको जीत सकती है , पर मच्छर को नहीं। इसलिए मच्छर बोले तो मैं अविजित हूं। मैं अविनाशी हूं। मैं मथुरा हूं, मैं काशी हूं। हर घर मेरा वास है। मेरे लिए ऊंच नीच बकवास है। मैं आरक्षण में विश्वास नहीं करता। सबको समान रूप से सलाम करता हूं। मेरे लिए हर जात, धर्म समान खून चुसाने वाला है। मेरा कोई धर्म नहीं, मेरा कोई ईमान नहीं। मैं बहुत खुश हुआ जब मुझे पता चला कि मेरे खिलाफ सारे काम छोड़ वैज्ञानिक आरपार की जंग छेड़े हैं , पर सच कहता हूं दोस्त! उन्हें मुझे हराने में कामयाबी मिलने वाली नहीं। यह मेरा अहंकार नहीं, तुमसे मेरा प्रेम प्यार बोल रहा है। मच्छर को कोई नहीं हरा सकता। वह इंसानियत के नाते खुद खुद से हार जाए तो दूसरी बात है। असल में हमने भी तुम्हारे साथ रहते अपने को बदलती परिस्थितियों के हिसाब से ढालना शुरू कर दिया है। तुम्हारी तरह हमने भी कीटनाशकों से फ्रेंडशिप कर ली है। जिस तरह तुम हर कानून की काट ढूंढ लेते हो, उसी तरह हमने भी हर टाइप की मच्छरदानी की काट ढूंढ ली है। अब हमें मच्छरदानी के बाहर से काटने का हुनर आ गया है। जब मच्छरदानी के बाहर से ही काम हो जाए तो मच्छरदानी में घुसने का नाहक परिश्रम क्यों?
दोस्त! तुमने सीखा हो या न, पर अब हमने भी नई स्थिति के कदम के साथ कदम मिलाकर चलना सीख लिया है। हम जानते हैं कि जो बदलती स्थितियों के साथ न बदले ,वह खत्म हो जाता है। पहले हम रात को ही काटते थे। पर तुमने जबसे हमारे खिलाफ रात को किस्म किस्म की मोर्चाबंदी करनी शुरू की तो हमने दिन को काटना शुरू कर दिया। शोषक को शोषण करने से कोई नहीं रोक सकता। उसके लिए हर पल मौके ही मौके होते हैं। बस, उसे अवसर का उपभोग करना आना चाहिए। हमारे ऊपर तुम भ्रष्टाचारियों की तरह कितनी ही नकेल कसने की कोशिश कर लो दोस्त! पर हम तुमसे पराजित होने वाले नहीं। पता चला है कि आजकल तुम्हारे वैज्ञानिक रात रात भर लोगों की खिड़कियों के बाहर डेरा डाले रहते हैं अपने नख से लेकर शिख तक ओडोमॉस लगाए, यह देखने के लिए कि हम कैसे सोए हुए तो सोए हुए, जागे हुए लोगों पर भी उन्हें सूचित कर उन पर हमला करते हैं। दोस्त! पीठ पीछे से हत्थे निहत्थे किसी पर भी हमला करना हमारी नीति रणनीति नहीं। क्योंकि हम मच्छर हैं, आदमी नहीं,’ उसके ओज भरे भाषण को सुन मैं और भी परेशान हो गया। जिस आदमी पर लोकतंत्र में मच्छर तक हॉवी हो, लानत है उस ऐसे आदमी को लोकतांत्रिक आदमी होने पर।
चारों ओर से तक जात जात के मच्छरों से घिरा होने पर तब मैंने बंद खिड़की से ही उसके सामने भी समर्पण करते कहा,‘ दोस्त! खून चूसने वालों के आगे जनता की चली ही कब है? जिसे जनता का खून चूसने की एकबार लत लग जाए, उस पर किसी भी तरह के लतनाशकों का कोई असर नहीं होता। मौका मिलते ही वह कानून को भी चूस लेता है,’ मैंने उससे बात करते डेंगू, चिकनगुनिए , मलेरिए के बारे में सोचा तो रोंगटे न होने के बाद भी मेरे रोंगटे खड़े हो गए।
अशोक गौतम,
लेखन यात्रा का आरंभ प्रदेश के अग्रणी साप्ताहिक गिरिराज से होते हुए अपने समय के उत्तरी भारत के अग्रणी दैनिक वीरप्रताप, आकाशवाणी शिमला से। फिर दैनिक ट्रिब्यून, पंजाब केसरी, ब्लिट्ज, देशबंधु, दैनिक भास्कर, अमर उजाला, दैनिक जागरण, नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, हिमाचल दस्तक, दिव्य हिमाचल,हरिभूमि, नई दुनिया, दैनिक जागरण, इंदौर समाचार , जनसत्ता, सुबह सवेरे, प्रजातंत्र, वागर्थ, कथाबिंब, सरिता, सरस सलिल , गर्भनाल, वीणा, समकालीन अभिव्यक्ति, सुगंध, नया ज्ञानोदय, कादंबिनी, आजकल, सोमसी, विपाशा, हिमभारती, हरिगंधा, नूतन सवेरा , वायस ऑफ लखनऊ, जनसंदेश टाइम्स, प्रवक्ता डॉट काम. हिंदयुग्म ,रचनाकार, साहित्यकुंज (कनाडा) , विभोम स्वर, (कनाडा) लेखनी (लंदन), द अम्सटेल गंगा (नीदरलैंड) , वीणा में निरंतर रचनाएं, आलेख ( हिंदी, पहाड़ी में प्रकाशित ।
प्रकाशन:- लट्ठमेव जयते , साढ़े तीन आखर अप्रोच , गधे ने जब मुंह खोला , झूठ के होलसेलर , वफादारी का हलफ़नामा, नमस्कार को पुरस्कार , आओ दलाली खाएं, भक्ति बिनु मुक्ति नाहीं गोपाला , ओम् व्हाट्स्यपाय नमः ओ तेरी…. ,सिंक पर बॉस , चिकन शिकन ते हिंदी, लोकडाउन , जन्मदिन पर जूते , ठेले पर लाइफ, खड़ी खाट फिर भी ठाठ, ये जो पायजामे में हूं मैं , पुलिस नाके पर भगवान , श्री श्री एक सौ साठ श्री, विमोचन का रीटेक , फ्रेश नाक वाले , फेसबुक पर होरी, गरम जेब ,ठंडी रजाई , नंदू दिन में सपना देखा , डुप्लिकेट चाबियों का , सदाचार का सैनिटाइजर ,मक्खन जिंदाबाद!, हवा भरने का इल्म , करोनो अतिथि भव , अमृत अल्कोहल दोऊ खड़े , ज्ञानपीठ कोचिंग सेंटर , पांव दबा, पांव जमा, हम नंगन के ,पूंछ चमकाने वाला तेल, मेवामय ये देश हमारा , लिटरेचर फर्टिलिटी सेंटर, कालजयी होने की खुजली, श्री जुगाड़मय सब जग जानी सहितसैंतालीस व्यंग्य संग्रह और सौ के लगभग कहानियां।