Sunday, October 6, 2024
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दिलीप कुमार का व्यंग्य – कुविता में कविता

“जुड़ती है सड़क  एक सड़क से
बासी रोटी ने महका रखा है घर को
मैं कौन,  निश्चित मैं मौन हूँ
टूटी हैं बेड़ियां,  लड़कर थकी नहीं
सड़क का कूड़ा,  समय से लड़ती कूची
दिमाग का दही बनाती है कविता”
जी नहीं,  अंतिम लाइन कोई स्टेटमेंट नहीं है,  अलबत्ता कविता का ही हिस्सा है।   आजकल कुछ कविताएं खुद कहती हैं कि मैं आपके दिमाग का दही कर दूंगी,  कविता पढ़कर आपको ये कहने की तकलीफ नही करनी पड़ेगी।   ऊपर जो कविता आपने पढ़ी वो,  उस कविता को किसी अकादमी का पुरस्कार मिला है।
“क्या कहा आपने,  वो कविता है क्या ?”
“जी हाँ खालिस कविता ही है प्रभु,  आईएसआई मार्का।   अगर आईएसआई मार्का से आपको एतराज है तो इसको एगमार्क मार्का कर देते हैं।  अरे आप शुद्ध शाकाहारी हैं और एगमार्क के मार्का में आपको एग होने से एतराज है तो फिर इसको आप किसी भी शुद्ध -स्वदेशी हर्बल टाइप के मार्का का समझ सकते हैं।  क्योंकि हर्बल, ऑर्गेनिक के मार्के के नीचे आजकल बहुत कुछ -छुप जाता है।  यकीन ना हो तो बताऊं,  चिट्ठी लिखकर या चिट्ठी बम फोड़कर “।
“क्या कह रहे हैं कि इस कविता में कविता जैसा कुछ नहीं है ?”
“अरे हुजुरेवाला,  ये क्या सितम नाजिल कर रहे हैं आप।  कविता में कविता होना किस संविधान में  लिखा है।  अरे जब सियासत से रहनुमाई,  दीन से ईमान,  इश्क से जुनून,  प्रेम से निष्ठा,  शेर से वजन,  कहानी से किस्सागोई,   गायब हुई तब आपको कुछ अजीब ना लगा,  अब अगर कविता से कविता गायब हो गयी तो कौन सी आफत आ गयी “।
“ऐसी कविता कोई बड़ा कवि नहीं लिखता,  ऐसा लिखकर कोई बड़ा कवि नहीं बन सकता,  ऐसी कविताओं का ना तो कोई औचित्य है ना भविष्य”।
“प्रभु,  आपके चरण कहाँ हैं ?
लगता है चंकी पांडे पर लिखी कविता नहीं पढ़ी आपने।  वरना इतनी भोली बातें ना करते।
ऐसी ही एक कविता को  हिंदी के शीर्षस्थ आलोचक ने एक बड़े पुरस्कार के लिये चुना था।  लोगों ने आपकी तरह ही कविता में कविता होने का मुद्दा उठाया तो उन्होंने अपने निर्णय का बचाव नहीं बल्कि बखान करते हुए कहा था कि उनके द्वारा पुरस्कार हेतु चुनी गयी कविता पाठकों और श्रोताओं पर मन्त्र सा प्रभाव पैदा करती है।
आपकी तरह ही भोले, सरल काव्य प्रेमियों ने इस कविता को कई -कई बार सुना अपनी साहित्यिक क्षुधा को शांत करने के लिये।  ये और बात है कि बाद में वो लोग अनिद्रा, सरदर्द और कब्ज की शिकायत  से पीड़ित पाये गए।  लेकिन यही सब तो आधुनिक कविता के रिटर्न गिफ्ट हैं”।
“रिटर्न गिफ्ट हैं या कोई गिफ्ट भी है,  ये भी तो पता चले “
“हाँ ये आपका वाजिब सवाल है।  इसके गिफ्ट ही गिफ्ट हैं।  ऐसी कविताई  से सबसे पहले आप “युवा तुर्क ” की संज्ञा पाते हैं।  फेलोशिप की शुरुआत इन्ही कविताओं से होती है।  आपकी दो-तीन सत्र की एडहॉक की नौकरी किसी डिग्री कालेज में पा सकते हैं बिना गाइड की सब्ज़ी -भाजी खरीदने की तकलीफ उठाये हुए।  मान लीजिये आप अस्थाई बेरोजगारी से पीड़ित हैं और किसी साहित्यिक संस्थान में लेटर डिस्पैच वगैरह का काम कर रहे हों तो ऐसी उत्तर आधुनिक कविताएं लिखने से आपके प्रूफ रीडर से सहायक सम्पादक बनने का हाइवे बन जाता है।
जिस संस्थान में आप आगन्तुकों को माला पहनाते थे वहां खुद मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाये जाने लगेंगे।  और भी बहुत से लाभ हैं जो आपको इस विशेष कविताई के समंदर में उतरने पर पता चलेंगे,  जैसे कि काफी हाउस जैसी जगहों पर आप जाने से हिचकिचाते हों कि अव्वल तो काफी हाउस में काफी नहीं रही और काफी के नाम पर जो पेय पदार्थ आपको मिलते हैं उन पर आप अपनी जी तोड़ मेहनत की कमाई खर्च करना अफोर्ड नहीं कर सकते।  तो फिक्र ना करें इस अति आधुनकि कविता के समंदर के यही तो मोती हैं कि आप बस ऐसी कविताएं कहने और सुनने की आदत डाल लें तो आपको अक्सर  “हॉट काफी  विद  ट्रेन्डिंग कविता “
जैसे किसी प्रोग्राम में काफी हाउस के बजाय किसी पब में बुलाया जाए और फिर आपको तरल और गरल दोनों प्राप्त हों”।
“हुंह,  ऐसी कविता पर तरल और गरल दोनों मिलेंगे,  अलबत्ता ऐसी कविता  कही और सुनी तो साथ की गर्ल भी नाराज होकर कहीं चली जायेगी “।
“ना, ना आपकी निश्छलता बिल्कुल पप्पू टाइप की है।  कोई गर्ल कहीं नहीं जाएगी और क्यों जाएगी?
वे भी तो  ऐसी कविताएं कहती-सुनती हैं।  उन्हें भी तो भोज और पेय पदार्थों  की आवश्यकता होती है अपनी -अपनी रुचियों के अनुसार।
अलबत्ता कई बार तो वो भी अपने घर से खाने का सामान लाती हैं,  कुछ समय पूर्व एक कवियत्री ने अपने काव्य पाठ के सफलता से पूरे होने पर सौ कबाबों का वितरण किया था,  मेरे भी हिस्से में दस कबाब आये थे।  अभी तक लार टपक जाती है उन कबाबों के बारे में सोचकर। भगवान उस कवियत्री को शतायु करे,  वो हजारों कविताएं लिखे और लाखों कबाब बांटे “।
“ऐसा कोई अपवाद रहा होगा,  वरना कौन खुद की कविता भी सुनाता है और कबाब भी खिलाता है।  ऐसा होता है क्या भला ?”
“आप की जिज्ञासा पर हँसी भी आती है और सिर पीटने का भी मन करता है।   अरे हिंदी के बहुतेरे कवि किसी फाइव स्टार होटल में तभी जा पाए हैं जब किसी बड़े अफसर टाइप की पुस्तक का विमोचन या काव्य चर्चा वहां हुई हो।
नेपाल जाने की भी महंगाई ना अफोर्ड कर पाने वाले लोग चार- चार बार काव्य पाठ विदेशों में कर आये हैं।  हाई स्कूल में ग्रेस मार्क से हिंदी में पास होने वाले लोग ऐसे  ही (कुख्यात या विख्यात अपनी सुविधानुसार समझें)  लोग अपनी कुविता  के बूते पर  आलोचना में जाते हैं और तमाम मानद उपाधियों से विभूषित होते हैं और तमाम कमेटियों में मानदेय वाली मीटिंगों में अक्सर पाये जाते हैं।  “
“लेकिन इस सबसे कुछ खास हासिल नहीं,  फेसबुक पर ही तो पूरा साहित्यिक परिदृश्य थोड़े  ही ना उपस्थित है,  इसे लोग गंभीरता से नहीं लेते “।
“ये आपसे किसने कहा कि फेसबुक आदि की कविताओं को लोग गम्भीरता से नहीं लेते।  ना जाने कितने कामरेडों ने फेसबुक पर कविता से क्रांति करके अपने बच्चों को तमाम हिंदी पोषित परियोजनाओं में सेट कर दिया।   तमाम नेत्रियों और पुरुष लेखकाओं ने कविताई करके एक डेढ़ लाख से अधिक के फॉलोवर बना लिये। मुंबई में ये फैन फॉलोइंग बनाने के लिए इवेंट मैनेजमेंट कम्पनियां लाखों रुपये ले लेती हैं।  कविता विथ किटी पार्टी चलाने एक मोहतरमा ने तो अपने डूबते व्यापार को बचा लिया अब हथकरघा विभाग के कवि सम्मेलनों में मानदेय भी लेती हैं और कविता के बूते बने सम्पर्कों पर हथकरघा विभाग से अच्छा -खासा अनुदान भी लेती हैं,  अक्सर फेसबुक पर उनकी फ़ोटो आती है जिसमें वो गरीब बच्चियों के उन्नयन हेतु कविताएं लिखकर उन्हें हथकरघा के जरिये अब हथकरघा के जरिये जिंदगी बदलेंगी “।
“कविता का हथकरघा से क्या सम्बन्ध,  कविता का अनुभव हथकरघा में कैसे काम आ सकता है ?”
“यही तो चमत्कार है आधुनिक कविता का।  यहां एक अति प्रतिष्टित कविता के अवार्ड का चयन ऐसा व्यक्ति कर सकता है जिसका कविता से दूर -दूर तक नाता नहीं रहा,  जो सदैव पत्रकार रहा है,  तो फिर कविता से हथकरघा में जाने पर किसी को  आस्चर्य नहीं होना चाहिये,  बिके तो कविता बेचो, नहीं तो हथकरघा के उत्पाद,  मगर कुछ ना कुछ बेचो जरूर। देखा ना कविता के प्लेटफॉर्म पर क्या -क्या बिकता है “।
“वो सब तो ठीक है लेकिन उसके लाखों वाले कोई पुरस्कार ऐसी कविता पर नहीं मिलते होंगे,  उसके लिये दिनकर जी  या बच्चन जी जैसी कालजयी कविताएं लिखनी पड़ती होंगी “।
” अरे भाई जिस तरह भारत सपेरों  के देश की छवि को तोड़कर आगे बढ़ चुका है,  उसी तरह  हिंदी की कविता जिसे तुम कुविता कहते हो,  वो भी इससे बहुत आगे बढ़ चुकी है,  अब की कालजयी कविताएं इस तरह होती हैं
“पटक,  नोच, मार,
कीचड़ खूब उछाल
कीच को खींच
भर दिमाग में गलीज
कूड़ा पढ़कर कर सर्जन
उससे बड़े मानसिक कूड़े का कर उत्सर्जन “
“वाह क्या कविता है,  इसे कौन सा अवार्ड मिल सकता है ?”
“बड़े से बड़ा,  ये नौकरी भी दिलाएगा,  वो भी परमानेंट वाली।  एक बार इस कविता के जरिये नौकरी में घुस जाओ,  फिर उम्र भर कुविता करते रहना।  क्योंकि जब तक तुम जियोगे तब तक तुम्हे इस सवाल का सामना नहीं करना पड़ेगा कि कविता मानसिक उत्पादन है या मानसिक उत्सर्जन “।
“फिर भी इस कविता को कौन सा अवार्ड मिल सकता है ?”
“…………..वगैरह,  वगैरह टाइप के अवार्ड।
“कौन सा अवार्ड,  सुन नहीं पाया “?
मैंने फिर उस अवार्ड का नाम दुहराया।  लेकिन पाठक फिर नहीं सुन सका,  क्योंकि इस बीच एक सिरफिरा आशिक बड़े ही जोर से जोर से  गा रहा है –
“मैं कहीं कवि ना बन जाऊं तेरे प्यार में ए कविता “।
अब आप ही तय करें कि आप संगीतमयी कविता सुनेंगे या अवार्ड वाली कुविता ?
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