चाय की दुकान पर सिगरेट का कश फूंकते हुये इतवार का अखबार मैंने इस उम्मीद में खोला कि अगर मेरा व्यंग्य छप गया होगा तो तीन सौ रुपये मिलेंगे। 
उम्मीद थी कि इससे चाय- सिगरेट की उधारी निबटाने में आसानी रहेगी।  चाय की दुकान पर मैं मुफ्त का अखबार पढ़ने और उधारी की सिगरेट पीने आता था। मैं बागैरत कलमकार रहा हूँ। मेरा उसूल था कि गंगाराम की दुकान पर ही उधारी की सिगरेट और मुफ्त का अख़बार पढूंगा। खुद से यह भी अहद ले  रखी थी कि चाय सिगरेट का बकाया तभी निपटाएंगे जब व्यंग्य का मानदेय मेरे खाते में आ जाया करेगा।
 तब तक गंगाराम के तकादे सहते रहेंगे और उफ न करेंगे । मेरा व्यंग्य दो लोगों की बद्दुआ खूब झेलता था। पहला तो मेरी पत्नी का, जिसका मानना था कि यदि मैं व्यंग्य न लिखकर बच्चों की लोरियां लिखता तो कम से कम मेरी लेखनी बच्चों को सुलाने के काम तो आती और दूसरे गंगाराम जो मेरे व्यंग्य को इसलिये बद्दुआ देते थे कि क्योंकि छह-छह महीने तक व्यंग्य का मानदेय न मिलता था।
जबकि मोहल्ले के लड़के इतवार के अखबार की वर्ग पहेली लिखकर पचास रुपये जीत लेते थे और उसका भुगतान तुरंत अखबार वाले भेज दिया करते थे। 
गंगाराम मुझे पसन्द करते थे क्योंकि मैं उनका ग्राहक था।यह पसन्द उसी तरह की थी जैसे मेरी पत्नी मुझे इसलिये पसन्द करती थी क्योंकि मैं उसका हस्बैंड-कम- एटीएम था। 
अखबार खोला तो खबर शाया थी कि पूनम पांडे और उर्फी जावेद पर मुकदमा कर दिया गया है। मैं दुखी हो गया कि कैसे कुछ वर्ष पूर्व “राखी का इंसाफ” नामक टीवी शो होस्ट करने वाली राखी सावंत पर सिर्फ इस बात पर मुकदमा कायम कर दिया गया था क्योंकि उनके शो पर रोस्ट किये जाने के बाद एक विवाहित युवक ने खुदकुशी कर ली थी। उस टीवी शो के प्रसारित किए जाने के कुछ दिन बाद। राखी सावंत उस शो में विवाहित जोड़ों की समस्याएं निपटा कर इंसाफ किया करती थीं। जिसमें एक एपीसोड में एक युवक को “नामर्द” आदि कहते हुये इतनी फजीहत की गई कि कुछ दिनों बाद डिप्रेशन में उस युवक ने आत्महत्या कर ली थी।
मुकदमा दायर होते ही राखी सांवत डर गई और तब से दूसरों के व्यक्तित्व पर छीछालेदर पर आधारित वक्तव्य देने कम कर दिए थे।
अब राखी सावंत, पूनम पांडे,उर्फी जावेद पर मुकदमे कायम होंगे तो गॉसिप लिखने वाले फिल्मी पत्रकार और व्यंग्यकार क्या लिखेंगे और क्या किससे प्रेरणा लेंगे ? मैं इसी उधेड़बुन में उलझा था कि प्रेमनारायन प्रतापी जी आ गए। प्रेमनारायन प्रतापी जी स्थानीय डिग्री कालेज से रिटायर्ड । वह खुद को प्रोफेसर बताते हैं और फिलहाल “कबीरी धार”नामक एक अनियतकालीन पत्रिका निकालते हैं । हालाँकि  मैंने उनको साहित्य पर कम बातें करते ही देखा है ।  जब भी उनको देखा तो तूफान तंबाकू , मोहम्मद जर्दा और शुद्धि पनीर के विज्ञापन की ताड़ में ही पाया। उन्हें तुकबंदी के जिंगल लिखने से विज्ञापन कराने वाले उन्हें जर्दा,तम्बाकू पनीर इफरात भेजा करते थे ।
 यह उनकी साइड इनकम तो थी  ही पर वह होली-दीवाली या ईद पर मोहम्मद जर्दा, तूफान तम्बाकू और शुद्धि पनीर के फुल पेज का विज्ञापन भी हथिया लिया करते थे। क्योंकि कबीरी धार तो मोहम्मद जर्दा और गंगाजल जैसे शुध्दता का दावा करने वाले शुद्धि पनीर पर बराबर असरदार थी। कबीर उनके लिए बहुत बड़ी सहूलियत थे कभी वह रामनामी हो जाते थे कभी खूब ज्यादा सेक्युलर और कभी मौका पड़ने पर नास्तिक होकर निर्गुण भी गा लिया करते थे।
उन्होंने कबीरी धार की मार चारों तरफ मारी थी। 
 निदा फाजली का मशहूर शेर उनका तकिया कलाम हुआ करता है –
“ईमान का हमारे क्या पूछती हो मुन्नी,
शिया के साथ शिया ,सुन्नी के साथ सुन्नी। ”
सो जर्दा खाते हुए कबीरी धार की दुहाई देकर अक्सर पाला बदल दिया करते थे प्रेमनरायन प्रतापी साहब।
वैसे तो वह खुद को तीन दशक से नास्तिक बताते आये हैं मगर कबीरी धार पर चलना प्रिय शगल है । उनके आफिस में कबीरदास और मीराबाई की तस्वीर लगी है ।
ऐसा नहीं है कि उनकी कबीरदास और मीराबाई के प्रति कोई अगाध श्रद्धा रहती हो । मीरा के चार पदों पर उन्होंने पढ़ाते पढ़ाते तीस साल से ज्यादा की डिग्री कालेज की नौकरी निकाल दी।
  आज भी उनके सर्दियों में केरल और गर्मियों में सपत्नीक शिमला जाने का जुगाड़ मीराबाई के चार पदों की व्याख्या करके हो जाया करती थी। 
मीरा उनके लिए सुविधा थीं क्योंकि वर्तमान साहित्य पढ़ाने के लिए पढ़ना पड़ता है । पढ़ने -लिखने पर उनका फंडा बिल्कुल क्लियर है कि वह किसी को क्यों पढ़ें ? बल्कि लोग उन्हें पढ़ें । इसी तरह लिखने पर भी उनकी सोच बहुत क्लियर है कि वह अपने किसी वरिष्ठ-कनिष्ठ समकालीन पर क्यों लिखें ? अलबत्ता वो सब ही उन पर लिखें। प्रेमनरायन प्रतापी जी गुणगान वाले लेख आईएयस अफसरों, अपनी पत्रिका के विज्ञापन दाताओं या ऐसे विभागों के अध्यक्षों पर लिखते आये हैं जो उन्हें प्रतिकूल मौसम में अनुकूल जगह बुला सकें जैसे गर्मी में शिमला और सर्दी में केरल।
प्रतापी जी खुद को मेरा शुभचिंतक बताते थे । उन्होंने मुझसे पूछा-
“क्यों भई, कुछ छपा है क्या अखबार में तुम्हारा। ये सामयिक व्यंग्य वगैरह छोड़ो अब भी उम्र है हिंदी से नेट या पीयचडी  करके कहीं सही जगह लग जाओ। एक बार सिस्टम में घुस गए और मीरा के चार पद पढ़ और पढा लिए तो नैया पार  समझो।”
मैंने सकुचाते हुए पूछा-
“ जी मीराबाई को पढ़ -पढ़ाकर मेरी नैया पार कैसे होगी? ”
उन्होंने मेरा मखौल उड़ाते हुए कहा – “ तो क्या इतवार को छपने वाले तीन सौ रुपये वाले व्यंग्य से होगा कुछ होगा ? वो भी जो मानदेय छह -छह महीने तक नहीं आता । अपना लक्ष्य साधो जैसे मैंने साधा। मुझे देखो मीरा बाई की चार कविताएं पढ़ाकर मैंने चार दशक की डिग्री कॉलेज की नौकरी काट दी। उसके बाद मैंने कबीर को पकड़ा और कबीरी धार  पत्रिका निकालनी शुरू की और जीवन में कबीरी लाइन पकड़ ली ।कबीर दास का कमाल देखो आज भी मेरे लिए दूसरी नौकरी का इंतजाम किए बैठे हैं । इसी कबीरी धार पत्रिका की बदौलत मोहम्मद जर्दा, तूफान तम्बाकू और शुद्धि पनीर की इफरात मेरे जीवन में भरी पड़ी है । हर दिन कोई न कोई आयोजन कभी मीराबाई पर तो कभी कबीर पर। दोनों का नाम लेता हूँ तो हर दो -तीन दिन पर कोई न कोई आयोजन,उपहार या निमंत्रण मिल ही जाता है । इसीलिये  मेरे पूजाघर में एक तरफ देवी देवताओं की मूर्ति और फोटोज तो हैं मगर मैं हर सुबह कबीरदास और मीराबाई को अगरबत्तियां जलाकर स्तुति कर लिया करता हूँ कि ऐसे ही आप दोनों हम पर कृपा बरसते रहो । हमें अन्न,फल,मिठाई,जर्दा,तम्बाकू,पनीर यूँ ही मिलता रहे ।हमें सपत्नीक विपरीत मौसम में अनुकूल जगह आने जाने का टिकट व रहने खाने की व्यवस्था भी मिलती रहे। अब समझे?”
मैं उनकी बातों को समझने का प्रयत्न कर रहा था मेरे चेहरे पर असमंजस के भाव । मैंने  अपनी नजरें प्रतापी जी के चेहरे से हटा लीं और गंगाराम को देखने लगा । गंगाराम ने भी उनकी बातें ध्यान से सुनी थी । उनके चेहरे पर संतुष्टि थी। 
गंगाराम ने मुझे कुद्ध दृष्टि से देखते हुए कहा – 
“ देखा,अब आप भी किसी कबीर या मीराबाई को पकड़ लो । शिमला- केरल घूमो। मुफ्त की पनीर -जर्दा खाओ और कभी-कभी हमको भी खिलाओ ताकि ये छह -छह महीने की चाय -सिगरेट की उधारी न चले।”
मेरे माथे पर बल पड़ गए कि जो बात प्रतापी जी बरसों से जानते हैं और जो बात मेरी बीवी तक काफी पहले समझ गई थी औऱ यहाँ तक गंगाराम भी ये बात एक बार में समझ ही गये । वही बात मैं मूढ़मति अब तक क्यों न समझ पाया कि मुझे क्या लिखना और पढ़ना  चाहिए? मुझे मीराबाई और कबीरदास की अमित महिमा का भान हो गया था आज के युग में भी।
कदाचित गंगाराम और प्रतापी जी मेरी खीझ ताड़ गए क्योंकि मुझे देखकर वह दोनों ही कुटिलता से मंद मंद मुस्करा रहे थे ।
अचानक मैं उठ खड़ा हुआ और बाजार की तरफ चलने लगा तो पीछे से प्रतापी जी और गंगाराम ने पुकारा – “अरे कहाँ चले?”
बिना मुड़े ही उन्हें मैंने जवाब दिया  “ मीराबाई और कबीरदास के पोस्टर और उनसे जुड़ी किताबें लाने ताकि ,,,,,,, ।” 
मैंने आगे क्या कहा आपने सुना क्या ?


2 टिप्पणी

  1. अच्छा और सही व्यंग लिखा दिलीप जी! “महिमा अमित न जाए बखानी” आजकल साहित्य में सम्मान देना और लेना भी अच्छा खासा मजाक बना हुआ है।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.