“टैंकर आ गया है…मैं पानी ले आती हूँ।तू अपना ध्यान रखिओ…।” कैन उठा कर घर से बाहर निकलते हुए सुखिया ने बहू को कहा।
“माई…न जा,दर्द हो रहे हैं मुझे।”
“झूठे दर्द हैं अभी, तुझे पता है न टैंकर चला गया तो क्या हाल होगा!…पानी रखा है खाट के नीचे,प्यास लगे तो पी लीजो।” इतना कहकर सुखिया अपनी कैन बगल में दबाए भागी चली गयी।
मर्द काम पर निकल चुके थे। लुगाई और बच्चे चीखा चिल्ली मचाते टैंकर के पीछे दौड़ पड़े। बस्ती में जैसे सन्नाटा पसर गया। दरवाजे पर खड़ी कल्ली, दूर जाती सास को देखती रही।
जचगी का दर्द हिलोरें ले रहा था। जो धीरे धीरे बढ़ता जा रहा था। अपने होंठों को दाँतों से भींच कल्ली खाट पर पसर कर चीखने लगी।
लेकिन उसकी आवाज़ सुनने के लिए किसी के कान खाली नहीं थे।सबकी आँखों के सामने बस सूखे पड़े बरतन थे। गले में उठती खुश्की और पेट में लगता जोर कल्ली को बेदम होने लगी।
दिन ढले,सुखिया खोली के अंदर थी लेकिन खाली हाथ… खाट के नीचे लुड़का गिलास सूखा था।उसे कुछ पानी कल्ली के पैरों के पास नजर आया।
न जाने क्या हुआ कि वह दहाड़े मारकर रोने लगी।
कल्ली के पैरों के बीच निकले  पानी के साथ दो जान भी बह चुकी थी।
सुखिया के बहते आँसू सूखी धरती  की प्यास बुझाने लगे।

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