“सौ दिए लेने है मुझे, पैसे सही सही बताओ अम्मा…”
“अरे ये तो टेढ़े मेढ़े और फूटे हुए भी है, लग रहा है पचास भी मुश्किल से छांट पाऊंगी।”
बुढ़िया की आँखों में आती हुई हल्की सी चमक अब फीकी सी पड़ने लगी थी।
“जितने लेने हैं जल्दी ले लो बिटिया, पर पैसे जल्दी दे दो तो….”
“अरे ऐसी क्या जल्दी पड़ी है अम्मा… छांटने तो दो न” मैंने ज़रा चिढ़ के कहा
“बिटिया, ये दोनों बच्चे कल से भूखे हैं, तुम पैसे थमाओ तो मैं इन्हें कुछ खिला दूँ” बुढ़िया ने किनारे बैठे दो छोटे बच्चों की ओर इशारा करते हुए कहा
मैंने ध्यान से उन दोनों बच्चों की ओर देखा।
“अरे ये दोनों तो कभी कभी तुम्हारे बेटे बहू के साथ आते हैं ना ? उन्ही के बच्चे हैं ना ? आज वो कहाँ रह गए और तुम क्यों आ गईं? ऐसी गत क्यों बना रखी है इनकी…?” मैं एक ही साँस में पूछ गई थी
“परसों रात घर वापिस आते समय किसी गाड़ी ने टक्कर मार दी उन्हें। दोनों ने वहीं दम तोड़ दिया…और…. “
“क्या…अरे कैसी माँ हो तुम? बेटे बहू की राख अभी ठंडी भी नहीं हुई और…. ” मैं लगभग चीख पड़ी
“बेटे बहु की राख ठंडी हो जाएगी बिटिया, पर इन बच्चों के पेट की आग …. उसका क्या करूँ। चाहे कोई भी क्यों न चला जाए पर बचे हुए लोगों के पेट की आग उन्हें ज़िंदा होने का एहसास कराती रहती है। जो जा चुके हैं उनके लिए रोती रही तो बचे हुए को भी खो दूँगी … और इस उम्र में इस से ज्यादा कुछ भी खोने की हिम्मत मुझमे नहीं है?? बुढ़िया ने बात काटते हुए कहा-
“दिए ले लो बिटिया… तुम्हारे घर में अगर ये मिटटी के दिए जलेंगे तो मेरे घर के भी ये नन्हे चिराग बने रहेंगे…” बुढ़िया ने मेरा रुका हुआ हाथ देख कर कहा
मेरी भीगी आँखों के आगे कभी बुढ़िया के मृतक बेटे-बहु का तो कभी इन भूखे बेसहारा बच्चों का चेहरा आ रहा था। सोचने समझने की शक्ति क्षीण होती जा रही थी और अब मैं बिना देखे ही थैले में ज्यादा से ज्यादा दिए भरे जा रही थी।

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