बाप की तेरहवीं अभी बीती ही थी कि दोनों बेटों ने घर बेच दिया । साठ साल पुराना आलीशान घर । बाप की गाढ़ी कमाई का घर ।
दूसरा तो प्रवासी हो गया था । हाँ, बडे ने थोड़ा कुछ निवेश कर उसे कोठी का रूप अवश्य दिया था । तो वह भी अब महानगर में बसने के सपने देख रहा था ।
बाप की वसीयत के अनुसार घर तो वंशोद्धारकों के ही नाम था । “मैं कहे दे रहा हूँ भैया, अब जब घर पिता ने हमारे नाम किया है और माँ के गहने वे ले चुकीं है तो और क्या चाहिए उन्हें? अच्छी तरह समझ ले वें …और उन्हें कुछ न मिलेगा” । छोटा एक पाई छोड़ने को तैयार न था ।
पर बडे ने पहली की पतली स्थिति का मान रख उसे भी हिस्सेदार बनाया था । अधिक नहीं ,पर कुछ तो दिया ही था । बाकी बहनों को भी नकद दी थी, पर खुश न कर सका था । जीवन भर का वैर मोल ले लिया था उनसे ।
वैसे भाई-बहनों में बड़ा अनुराग हुआ करता था बचपन में । हर दिन की शुरुवात एक दूसरे की चुगलियों से होती और शाम ढ़लती हाथापाई से । बड़ा तो फाइटर था । दबदबा था स्कूल में ,मोहल्ले में । मजाल कि कोई उनकी बहनों की ओर आँख उठाकर देखे । और छोटा… वह तो लाड़ला था परिवार का । हर लड़ाई का समझौता उसी की जीत से हो जाता था जिसका रहस्य कभी उजागर न हो सका था ।
अब उम्र के ढलते पडाव पर बड़े ने महानगर में पचासवीं मंजिल पर आलीशान फ्लैट ले लिया है जिसकी बालकनी से समुद्र साफ दिखता है । गर्दन टेढ़ी करो तो दाईं ओर नीचे कब्रगाह के भी दर्शन हो जाते है । वाजिब है, इतनी ऊँचाई से तो ईश्वर भी दिख जाए । काफी नामी सोसाइटी है…भीड़-भाड से दूर महानगर के छोर पर । पहले श्मशान छोर पर हुआ करते थे और लोग शहर के बीचों बीच । पर जब से घर शहर के छोर पर आ गए तो मुर्दाघर ही पड़ौसी हो गए ।
वैसे सुना है, घर काफी खूबसूरत है । अब तो घर के फर्श पर भी हल्के कदमों से चला जाता है । कहीं पत्थर चटक न जाए ।
आखिर गाढ़ी कमाई का ‘घर’ जो है……।
वसीयत के टुकड़ों पर टूटे घरों का सच
शहर के छोर पर आ गए और मुर्दाघर पड़ौसी हो गए ।
कड़वे सत्य को उजागर करती कहानी
पर लेखिका डा पद्मावती जी को
बहुत बहुत बधाई