सहायक अभियंता अनूप के पास वरिष्ठ अधिकारी का फोन आया
“प्रभात सिंह जी को जानते हो?”
“उनको कौन नहीं जानता सर। उनके मुँह से हिंदी कमेन्ट्री सुनकर एक रोमांच पैदा होता है। उन्होंने हिंदी का गौरव बढ़ाया है। देश में उनके जैसा कोई दूसरा कमेंट्रेटर नहीं हुआ।”
“हाँ, उनका फोन आया था। उनको विभाग से कोई काम है। जाकर मिल लेना।”
“जी सर।”
अनूप की जैसे बिन माँगे मुराद पूरी हो गई। क्या वह इतनी बड़ी हस्ती से साक्षात मिलेगा! सोच कर ही वह खुशी के मारे पागल हुआ जा रहा था। वह उनका पता मालूम उनके घर पहुँच गया।
प्रभात सिंह ने अनूप का बहुत अदब के साथ अनूप का स्वागत किया। अनूप उनके अंदाज़ को व उनके मुँह से झरते एक एक शब्द को एकटक मंत्रमुग्ध सा निहार रहा था। अंत मे वे अपने मुद्दे पर आए।
“मेरा एक विद्यालय है।”
“जी मैं जानता हूँ “सरिता देवी पब्लिक स्कूल”।
“जी। उस कैंपस में हमारा पुराना बंगला है। उसे आपसे असुरक्षित घोषित करवाना है।”
अनूप के मन मे प्रभात सिंह के लिए श्रद्धा और बढ़ गई। उसके लिए ये ऐसा पहला केस था जिसमें कोई आगे बढ़कर अपने भवन को असुरक्षित घोषित करवाने के लिए कह रहा था नहीं तो अधिकतर  स्कूल वाले असुरक्षित भवन को भी सुरक्षित घोषित करने के लिए नाज़ायज़ दबाव डालते हैं।
“जी जरूर। मैं एक बार वह बिल्डिंग देख लेता हूँ।”
अनूप गाड़ी से उस बिल्डिंग तक पहुँच गया। बाहर एक सेविका काम कर रही थी वह उसको लेकर अंदर गई।
अनूप ने देखा भवन पुराना था और लगता था जैसे बहुत लंबे समय से उसकी  मरम्मत का कोई कार्य नहीं हुआ था। कई जगह से प्लास्टर भी झड़ गया था।
“कितना अच्छा डिज़ाइन है। मरम्मत क्यों नहीं करवाई कभी?” अनूप ने कहा।
“प्रभात चाहता नहीं कि यह भवन बचे।” एक  संभ्रांत वृद्ध महिला ने  एक कमरे से बाहर आते हुए  कहा। अंदाज़ प्रभात सिंह से मिलता जुलता ही नहीं अपितु अधिक गरिमामय।
“आप?”
“मैं प्रभात की माँ। प्रभात की स्कूल का पूरा भवन हमारी पैतृक ज़मीन पर बना है। वह मुझपर भी इस बंगले को खाली करने का दबाव बना रहा है जिससे  विद्यालय भवन का विस्तार यहाँ तक कर ले। मेरी इस बंगले के साथ जीवन भर की यादें जुड़ी है।  मैं मर जाऊँगी लेकिन मैं यह घर नहीं छोडूँगी।”
अनूप को पूरी कहानी समझ में आ गई थी। माँ खाली नहीं कर रही तो सरकार से असुरक्षित घोषित कर खाली करवाना चाहता हैं।  वह  बिना कुछ कहे वापस ऑफिस आ कर दूसरे शासकीय कार्य मे व्यस्त हो गया । अभी कुछ समय ही गुजरा था कि प्रभात सिंह का फिर फोन आ गया
“ए इन साहब सर्टिफिकेट तैयार हो गया हो तो किसी को भेजूँ?”
“किसी को भेजने की आवश्यकता नहीं है। मैंने बिल्डिंग देख ली है। दस पंद्रह साल कहीं  जाने वाली नहीं है। मैं तो आपको कहूँगा उसकी थोड़ी देखभाल करिए।” कहते हुए उसने फोन बिना प्रत्युत्तर के इंतजार किये काट दिया।जिस आवाज से  पूरा देश सम्मोहित था अनूप के लिए वह आकर्षण खो चुकी थी।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.