असमिया और हिन्दी साहित्य का मेल सदियों पुराना है और इस बात को इन दो भाषाओं के इतिहास को अध्ययन करने से जाना जा सकता है । अगर असमिया और हिन्दी को पढ़ना लिखना आता हो तो दोनों भाषाओं की समानता स्पष्ट हो जाती है। अनगिनत शब्द हैं जो दोनों भाषाओं में व्यवहार किए जाते है।

हिन्दी और असमिया एक ही माँ की दो संतानें हैं। इसलिए इनका सम्बन्ध भी सहोदर भाई बहनों की तरह ही है। जो भाषा अन्य भाषाओं के उन शब्दों को ग्रहण करती है, जो उसकी भाषा में ना हो,  वो भाषा समृद्धि और लोकप्रियता पाती है। परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नही है कि अपनी भाषा या बोली को विकृत किया जाए या उसकी अवहेलना की जाए। भाषा एक जाति की पहचान है, उसका गौरव है ।

हिन्दी वह भाषा है जिसमें हर प्रांत को जोड़ने की क्षमता है । सहज, सरल भाषा होने के कारण तथा हर रंग में घुल जाने की क्षमता रखने के कारण जिस प्रकार भी बोली जाए, भले ही व्याकरण गलत हो, उच्चारण गलत हो, परन्तु इसे हर कोई समझ ही लेता है । उदाहरण के लिए असमिया में च का उच्चारण स होने से चाचा सासा हो  जाता है । चिंता सिंता हो जाती है । इन्हें समझना कठिन नहीं है । हिन्दी व्याकरण का पूर्ण ज्ञान न होने के कारण स्त्रीलिंग और पुलिंग के व्यवहार में भी गलतियां होती है । परन्तु सहोदर जिस प्रकार एक दूसरे को समझ लेते है, पहचान लेते है , उसी तरह यह दोनों भाषाए एक दूसरे को पहचान लेती है ।

हंस दूध और पानी के मिलावट के बाद भी सिर्फ दूध ही अपनी चोंच से पी लेता है और पानी को छोड़ देता है,  इसी तरह एक भाषा और संस्कृति दूसरी भाषा संस्कृति से सिर्फ उत्कृष्ट ज्ञान और व्यवहार को अपनाए तो निश्चय ही वह भाषा और ज्यादा  समृद्धिशाली होगी।

रुपकुंवर ज्योति प्रसाद अगरवाला जी ने हिन्दीभाषी होकर भी असमिया साहित्य को एक नई ऊंचाई, एक नई दिशा दी। असमिया साहित्य, संगीत में उनका स्थान अमर हो गया । आज जरुरत है कि जो असमिया भाषी हिन्दी को असम में या सारे पूर्वोत्तर में उसका उचित स्थान दिलाने के लिए प्रयत्नशील है उन्हे इसका समुचित श्रेय मिले। असमिया भाषा संस्कृति को हिन्दी साहित्य से जोड़कर दोनों साहित्यों के अनुवाद से पूर्वोत्तर में हिन्दी को लोकप्रिय बनाने में मदद मिलेगी।

श्रीमंत शंकरदेव असम की आत्मा और पहचान है। इन्होने भारत भ्रमण कर हिन्दू धर्म सम्बन्धित अपार ज्ञान अर्जित किया । इन्होने वैष्णव धर्म का प्रचार प्रसार काव्य, गीत, नाटक, भाउना, सत्रिया नृत्य आदि के माध्यम से पूरे असम में किया । उन्होंने ब्रजावली का प्रयोग अपने पदों में, गीतों में किया है। ब्रज की बोली  हिन्दी का ही एक रुप है। असमिया भाषा, कला,संस्कृति को श्रीमंत शंकरदेव जी ने एक नया आयाम दिया ।

हिन्दी जो संस्कृत से निकली ब्रज,मैथिली आदि कितनी ही भाषाओं को अपना चुकी है, वह श्री श्रीशंकरदेवजी द्वारा इस्तेमाल किए भाषा एवं साहित्य से जुड़ी है। कृष्ण महिमा को प्रचारित करने के लिए जिस ब्रजबोली भाषा का इस्तेमाल किया, वह साधारण लोगों द्वारा आसानी से समझ में आनेवाली भाषा थी। श्री शंकरदेवजी की रचनाओं में इस भाषा का व्यवहार जनमानस में ब्रजधाम की भाषा ब्रजावली के रुप में लोकप्रिय हुई।

असमिया और हिन्दी साहित्य का मेल सदियों पुराना है और इस बात को इन दो भाषाओं के इतिहास को अध्ययन करने से जाना जा सकता है । अगर असमिया और हिन्दी को पढ़ना लिखना आता हो तो दोनों भाषाओं की समानता स्पष्ट हो जाती है। अनगिनत शब्द हैं जो दोनों भाषाओं में व्यवहार किए जाते है ।

हिन्दी एवं उर्दू हिन्दवी  से निकली प्रचलित हिन्दी,जो रोजमर्रा जीवन और कार्यो में इस्तेमाल की जाती है। वह सिर्फ संस्कृत ही नहीं बल्कि अरबी,फारसी और अंग्रेजी शब्दों से भी प्रभावित है। असमिया भाषा के साथ भी यही हुआ। इसमें भी अरबी, फारसी और अंगरेजी के शब्दों का समावेश है । शुद्ध हिन्दी और शुद्ध असमिया एक दूसरे के बहुत निकट है। इस पुराने सम्बन्ध को प्रकाश में लाने के लिए आवश्यकता है इस पर जमी धूल को हटाने की।

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