“नन्हें और चंदा कहाँ है सुखी? काफी देर से दोनों दिख नहीं रहे।” अम्मा जी का घबराया ऊँचा स्वर पूरे घर में गूँज गया। अम्मा जी के गाँव का नौकर सुखी, नन्हें बाबा की आधुनिक आया चंदा की शिकायतों से आज ही नौकरी से निकाला गया था, अपने गाँव के लिए बस पकड़ने निकलने ही वाला था।
बोला, “दोपहर में मैंने चंदा को नन्हे बाबा को लेकर जंगल के बाहर एक आदमी से बातें करते देखा था।”
“पगला गया है क्या रे, सुखी? चंदा बच्चे को लेकर इतनी देर तक वहाँ क्या करेगी? कोसों तक फैला यह जंगल तो अभयारण्य का हिस्सा है! साहब-मेम साहब को फोन कर, जल्दी से जल्दी घर आएँ।जाने क्यों, चंदा का फोन भी यहीं छूटा हुआ है? तू भी जरा आगे बढ़कर देख, चंदा कहीं रास्ता तो नहीं भटक गई?”
नन्हे के मम्मी-पापा घर की ओर भागे। रास्ते में पुलिस को भी बताया।
पुलिस के रात भर इंतजार करने की सलाह पर बताया गया, “बच्चा सिर्फ दो साल का है, इंस्पेक्टर साहब! रात भर इंतजार नहीं किया जा सकता है। शाम होने वाली है, अभी ही ढूंढना होगा उसे। प्लीज सर! हमारे साथ चलिए।”
चंदा की एजेंसी को फोन किया गया, पर वहाँ से गाँव का पता मिला, जहाँ जल्दी पहुँचने की संभावना नहीं थी। सुखी का फोन भी नेटवर्क से बाहर बता रहा था। नन्हे के माता-पिता के साथ पुलिस की भी चिंता बढ़ती चली जा रही थी। रात भी अमावस्या की थी, उस पर जंगल का रास्ता, वह कोसों तक फैला हुआ। इस घनघोर अंधेरे में किस तरफ जाएँ, यक्ष प्रश्न था यह।
जंगली जानवरों की आवाजें सुन सुखी के रोंगटे खड़े हो जा रहे थे, पर ग्रामीण परिवेश का सुखी जंगल के रास्तों का जानकार था, बस अंदाज से चलता जा रहा था, दिख तो कुछ रहा नहीं था। बच्चों का भोला प्रेम ऐसा ही होता है। कुछ रोशनी सी दिखी तो उस तरफ बढ़ चला। कुछ झोपड़ियाँ नजर आई, जिनमें ज्यादातर अंधकार में डूबे थे।
तभी उसके कानों में एक अलग-थलग सी बनी झोपड़ी से एक बच्चे के रोने का कमजोर सा स्वर पहुँचने लगा। उसके बाहर एक व्यक्ति बैठा था। छिपते-छिपाते खिड़की से झाँका तो पाया कि चंदा अस्त-व्यस्त कपड़ों में सोई पड़ी थी। कुछ शराब की बोतलें लुढकी थीं। नन्हेंं के हाथ-पाँव बाँधकर झोपड़ी के एक कोने में लुढ़का रखा था।
अपराधी के पास हथियार हो सकते हैं। बिना एक पल गँवाए वह वापस चल दिया। मोबाइल का सिग्नल मिलते ही घर खबर किया। पुलिस वालों ने सुखी को वहीं रुकने को कह उसके मोबाइल की स्थिति देख सुखी से दिशा निर्देश पाकर सुखी के पास जल्दी ही पहुँच गई। फिर साथ चलकर झोपड़ी को घेर लिया। वह व्यक्ति भी दरवाज़ा बंद कर सोने जा चुका था।
चंदा और उसका दोस्त गिरफ्तार हुए। साहब नन्हें को गोद में लिए हुए, सुखी से नज़रें नहीं मिला पा रहे थे। “मुझे माफ कर दो,सुखी!” भरे गले से उन्होंने कहा।
“क्या कर रहे हैं मालिक! आप हमारे गाँव के बेटे और हमारे अन्नदाता हैं। आग तो चुड़ैल चंदा ने लगाई थी, अपने स्वार्थ वश।”
पटना साइंस कॉलेज, पटना विश्वविद्यालय से जंतु विज्ञान में स्नातकोत्तर। पिछले डेढ़ वर्षों से देश के समाचार पत्रों एवं प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लघुकथायें अनवरत प्रकाशित, जैसे वीणा, कथाबिंब, डिप्रेस्ड एक्सप्रेस, आलोक पर्व, प्रखर गूँज साहित्यनामा, संगिनी, मधुरिमा, रूपायन, साहित्यिक पुनर्नवा भोपाल, पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका, डेली हिंदी मिलाप-हैदराबाद, हरिभूमि-रोहतक, दैनिक भास्कर-सतना, दैनिक जनवाणी- मेरठ इत्यादि। संपर्क - maurya.swadeshi@gmail.com

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