‘आह अरवा चावल के पुलाव का गमक सूँघों ज़रा,कटहल का कोफ्ता,आलू छिमड़ी की सब्जी,पूरी पापड़…अहा!…हम खाते तो परात दो परात खा जाते।’
‘ऐसा पंगत जीमने के लिए तो हम भी दो दिन पहले से खाना-पीना त्याग देते,चार बार पैखाना जाके ख़ूब सारा जगह बनाते और फिर ई सुख कंठ तक भर लेते।’
‘आग लगे ई कठ करेजवा बाह्मण सब को,भोज भात भी इनका,भगवान भी इनका।’
‘अब तो बस कुनारपुर वाली बुढ़िया पे आस है,पक के पिलिपला गयी है,वही टपके तो टपके और हमको उदरसुख नसीब कराए।’
ज़माना लालटर्न युग का था जब गाँव कस्बों के लिये मुर्गे की बांग अलार्म घड़ी और विविध भारती का बिनाका गीतमाला मनोरजंन का इकलौता मशीनी साधन हुआ करता था।
जहाँ ये वार्तालाप हो रही थी वह था सात गाँवों का श्रद्धा स्थल पूरण देवी मंदिर और वो दो बतक्कड़ी छोकरे थे भिसनद गांव के बब्बन और उचटिया…और उनकी बातों में पगी मलाल,मायूसी की वजह थी,गांव में मरणी-मुंडन जैसे उन संस्कारों का न होना,या कम होना जिनके बहाने से गांव भर के लिए हंडिये में पुलाव चढ़ता है,कड़ाही में पूरी छनती है।
भिसनद सीमाँचल की गोद में बसा अलसाया सा एक गाँव था।हिमनद की तरह जम सा गया था वह गाँव।घटना दुर्घटना वहाँ कुछ नहीं हुआ करती थी।वहाँ बदलाव बस यह भर होता था कि गाँव के पुराने बरगद की कुछ और जटाएं निकल जाया करती थीं,बूढ़े पोपले थोड़े और पोपले हो जाया करते थे,पर जल्दी मरते नहीं थे ये सख़्त जान।सच,यमदूत के नक्शे में यह जगह छूट गयी थी शायद,तभी तो वहाँ भूले से अकाल मृत्यु तक भी नहीं होती थी।
उस अकिंचन गाँव में वाहन के नाम पर बैलगाड़ियां या सायकिल चलती थीं।सायकिल के टक्कर से तो ठीक से खरोंच भी न आती थी।रही बात बैलगाड़ी की तो,बैलगाड़ी जो कभी उलाड़ होती थी तो बहुत हुआ तो सवारी की हड्डी इधर की उधर हो जाती थी जिसे गाँव का बूढ़ा रमना अपने तजुर्बेकार हाथों से चटाक-पटाक कर रस्ते पे ले आया करता था।
गाँव में हट्टा,बाघ,चीता जैसे जानलेवा जीवों का भी कोई बसेरा न था।रेंगने वाले काल भी न थे जो किन्हीं खर पतवार साफ़ करते हाथों को या धान के पनियाए खेतों को पार करते पैरों को डँस कर इहलीला समाप्त कर दे ।साँप थे भी तो थे हरहरा और धामन।हरहरा ठहरा गांधीवादी,पूँछ पर पांव रख दो तो भी पलट कर न काटे और धामन की दिलचस्पी तो बस दुधारू महिलाओं और मवेशियों के स्तन चूसने में थी,जिससे बस इतना भर नाश होता था कि स्तनपाइयों का स्तन सूख जाया करता था।
उस गांव में भूले भटके कोई अकाल मृत्यु का ग्रास बन भी जाता तो गाँव वालों के हिस्से दावत का सुख फिर भी नहीं आता था,क्योंकि दावत सिर्फ़ मृतक की स्वभाविक मौत पर ही प्रावधानित थी।
चलो मरणी न हुआ तो ब्याह शादी भोज-भात के मौके दे देती है पर उस गाँव के बाशिंदों की शादी भी चार कोस दूर पूरण देवी मंदिर में हुआ करती थी,जहाँ बलि में कटे छागड़ से लेकर दान चढ़ावा सब मंदिर का पुरोहित और बाह्मण देवता समेट लिया करते थे ।
इन अग्रजन्मों ने ही देवी के कुपित होने का दावा कर मंदिर के प्रांगण में इन संस्कारों को बरतने का आदेश दिया था,तब दिया था जब सालों पहले गांव में शादी के मंडप में फेरे लगा रही एक जोड़ी आसमान से गिरे ठनके की भेंट चढ़ गयी थी।
तब का दिन है और आज का दिन,गांव में फिर कभी ठनका नहीं गिरा, न शादी ,छट्ठी,मुंडन का कोई संस्कार हुआ,न ही हुआ भोज भात। सारे पवित्र संस्कार पूरण देवी मंदिर में होते रहे जहाँ पंगत बस ब्राह्मण जीमते थे।
ग्रामवासियों के लिये गाँव में भोज-भात बस एक ही मौके पे होता था ,तब जब कोई स्वाभाविक मौत मरता था और भिसनद में ऐसे संयोग के हुए महीनों हो गए थे।बब्बन और उचटिया भोज के लिए अकुलाए हुए थे और चाह रहे थे कि कोई बूढ़ा पुरान स्वर्ग की टिकट कटवाए।गाँव में सबसे उम्रदराज़ सालों पहले अपने मायके कुनारपुर से आई स्वर्गीय कुसुन रॉय की मेहरिया भुटली देवी थी,सो बब्बन और उचटिया ने भोज-भात की सारी उम्मीद भुटली देवी से जोड़ रखी थी।पर बुढ़िया थी कि इंतज़ार पे इंतज़ार कराये जा रही थी।ज्येष्ठ बीता,आषाढ़ बीता,सावन बीता,फिर आया हथिया नक्षत्र हरहराते हुए…यूँ घटाटोप बारिश हुए जा रही थी मानो बादल की विशाल गगरी फूट गई हो।वो अल्पनीरा नदी जिसे पार करते वक़्त पाजामे का पायचा भी न गीला हो,वही आज अकूत जलराशि से भरी पूरे भिसनद को लीलने को आतुर थी।
बारिश रोकने के लिये नानी के घर जन्में बच्चों को नँगा कर आँगन में दीप जलवाया गया,मरे हुए कौवे के चार पंखों की धूनी जलाई गई,शाबर मंत्र पढ़े गए,कई और टोटके किये गए पर सब निष्फल रहा।
‘कृपया ध्यान दें,डिगरी नदी का पानी ख़तरे के निशान को पार कर चुका है,बाढ़ का पानी कभी भी गाँव में प्रवेश कर सकता है।इसलिए ज़रूरी सामान के साथ जल्द से जल्द किसी ऊँची सुरक्षित जगह पर शरण लें’
आख़िर वो दिन भी आ पहुँचा जब भोंपू में किसी ऊँचे सुरक्षित जगह पर जाने की लोगों को दी जाने वाली इस चेतावनी को लेकर आगे आगे सरकारी कारिन्दे आये और पीछे पीछे बाढ़ आ गयी।
ऊंची जगह तो ऊँचे लोगों के पास ही होती है।गाँव के ऊँचे रुतबेदार शख़्स थे छुट्टन सिंह,भलुआ शरण,अमोघकान्त जैसे चंद लोग पर यहाँ कुछ कुलीनों को छोड़ अन्य गाँव वालों के आने पर मनाही थी सो लोगों को शरण का दूसरा विकल्प सूझा सरकारी स्कूल के रूप में जो गाँव के मालदारों के भवन के अपेक्षाकृत कम ऊंचा था।
यह वही स्कूल था जहाँ हालिया बब्बन और उचटिया निलंबित कर दिए गए थे।उनका निलंबन उनकी धृष्टता के लिये हुआ था।उन्होंने कभी लैब रहे स्कूल के एक तालाबंद कमरे के जंग लगे ताले पर लात मार मार कर उसे तोड़ दिया था और अंदर घुस कर वे लैब में पड़ा कुछ सामान ले गए थे।उन सामानों में प्रयोग हेतु रखी एक खोपड़ी और बीकर भी था।
सामान चुराना धृष्टता थी पर उस धृष्टता पर किसी का पता न लिखा था,सो दोनों कसूरवार कुछ दिनों तक बचे रहे।कसूरवारों का पता तो तब चला जब उचटिया का बाप उसके घर के आगे से गुजरते बेटे के स्कूल के मास्टर से यह सवाल पूछने की चूक कर गया~
‘मास्टर साहब लैब का ताला तोड़ने वालों का कुछ पता चला क्या??’
गांव के स्कूल के मास्टर ने जब पराजय बोधक ठंडी सांस छोड़ी तो घाम में खड़े इस दयनीय जीव का निराश मुख और निढ़ाल देह देख उचटिया के बाप का दिल पसीज गया और उसने मास्टर को दो घड़ी उसकी खाट पे बैठकर सुस्ताने का और शिकंजी पीने का न्योता दे डाला।शिकंजी लेकर आई उचटिया की माँ,एक विचित्र ग्लास में।
‘ये?…’
‘नया अंदाज़ का गिलास है,उचटिया लाया है,हाट से खरीद के’
मास्टर के सवाल के जवाब में उचटिया की माँ ने जब ऐसा कहा तो मास्टर ने पहचान लिया कि वह विचित्र ग्लास,ग्लास नहीं बल्कि निष्क्रिय लैब से चुराया बीकर था।इस उद्भेदन के बाद दोनों कसूरवार बब्बन और उचटिया पकड़े गए और निलंबित कर दिये गए।
उस दिन बब्बन,उचटिया,अनन्ता और अनन्ता की माँ भुटली देवी को छोड़कर सबने उस सरकारी स्कूल में शरण ली हुई थी।ऐसा मत समझिए कि बब्बन और उचटिया निलंबन के कारण स्कूल नहीं आए थे।आपात काल में क्या नियम,क्या असलूब!
बब्बन और उचटिया के अनुपस्थित रहने का कारण यह था कि भुटली देवी के घर एक हादसा हो गया था।चढ़ती बाढ़ के बित्ते भर पानी में बह कर आई एक सिंघी मछली को बुढ़िया भुटली देवी ने आहार की प्रभु प्रदत्त व्यवस्था समझकर पकड़ना क्या चाहा,सिंघी मछली ने उसे डंक मार दिया।डंक जानलेवा न था पर दर्ददेवा तो था,बुढ़िया हाय हाय कर कछमछाती रही।बुढ़िया अगर अपने बेटे अनन्ता के लिए भावनात्मक विषय थी तो बब्बन और उचटिया के लिये भी वह दावत का अभियोजन बन ही सही,एक ध्यातव्य विषय थी,सो वे दोनों भी वहाँ डटे रहे तब तक,जब तक कि सिंघी मछली का ज़हर उतर न गया।इधर ज़हर उतरा,उधर बाढ़ का पानी टखने तक चढ़ आया।चिंताकुल हो चारो ऊंची डीह की तरफ़ भागे ,माने कि सरकारी स्कूल की तरफ़ पर ये क्या पूरे स्कूल को गाँव वालों द्वारा तैनात ओझा ने कांकढ़ बंधन से बांध रखा था! कांकढ़ बंधन से बंधे क्षेत्र में कोई बंधन के बाहर का आदमी प्रवेश नहीं कर सकता था,करता तो तंत्र विफ़ल हो जाता और बाढ़ का पानी वहाँ भी घुस जाता।
सदियों से पोषित गांव वालों के इस जड़ सोच से कौन लड़े,और कौन जीते सो भुटली देवी ,उसके बेटे अनन्ता,बब्बन और उचटिया सबको थक हार कर भुटली देवी के फूस के छाजन पर शरण लेनी पड़ी।फूस का छाजन कमज़ोर सा था और बाढ़ का पानी सुरसा के मुख सा पल पल विकराल होता जा रहा था।फूस का छाजन पानी के हिलकोरे में कांपने लगा।
उचटिया ने बुढ़िया को ज़ोर से पकड़ रखा था पर फिर भी चिंताग्रस्त बब्बन ने उसे अजीब सी हिदायत दे दी,वह भी उसके बेटे के सामने~
‘ध्यान रखना उचटिया, बुढ़िया बाढ़ में न बह जाए,अकाल मृत्यु का कोई भोज भात नहीं।याद है न चार साल पहले जामुन के गाछ से गिर के माँगनवा मरा था,एगो मिश्री का ढेला भी खाने को नहीं मिला था।’
भावावेश में बब्बन को बुढ़िया के बेटे के होने का भान न रहा।वह अपनी यह बात बोलकर अत्यंत लज्जित था।दूसरी तरफ भुटली देवी के बेटे अनन्ता पर बब्बन के बोले का असर यह हुआ था कि अनन्ता को अपनी माँ के जीवन की निरथर्कता या उस पल के नज़रिये से अगर कहें तो सार्थकता देख घोर आश्चर्य हो रहा था।फूस का छाजन फिर काँपा…डर ने लज्जा और आश्चर्य को पदच्युत कर दिया।सभी प्राणियों को अन्तक दिखने लगा।सहसा कहीं से भटकती आस की एक छोटी सी डोंगी वहाँ आ पहुँची।
‘जब तक दूसरे फेरे नहीं लगाता,कोई दो जीव आ जाओ।दो से अधिक का भार यह डोंगी सह न पाएगी।’
डोंगी के खेवैये का यह सशर्त आमंत्रण फूस के छाजन पर शरण लिए चार प्राणियों में कलह पैदा कर सकता था,कम से कम अनन्ता और भुटली देवी तो यही सोच रही थी।दोनों ने आशंकित नेत्रों से बब्बन और उचटिया की ओर देखा। डोंगी के खेवैये के दिये प्राणरक्षक न्योता के परिप्रेक्ष्य में बब्बन और उचटिया के आँखों के बीच कुछ मौन मंत्रणा हुई,फिर बब्बन बोल पड़ा~
‘अभी माता जी और उसके बेटे को ले जाओ,हमें दूसरे फेरे में ले जाना।’
डोंगी भुटली देवी और उसके बेटे को ले सुरक्षित जगह की ओर चल पड़ी।बब्बन और उचटिया कातर आँखों से डोंगी के दूसरे फेरे की बाट जोहते रहे पर इससे पहले की डोंगी आती,बाढ़ ने फूस को उखाड़ दिया।बब्बन और उचटिया पानी के तेज बहाव में बहते गए और बहते बहते न जाने कहाँ गुम हो गए।
आज उनके गायब हुए तेरह दिन हो गए हैं।बारिश रुक गयी है,बाढ़ का पानी उतर आया है।उनकी अकाल मृत्यु के बावजूद आज गांव वालों ने गांव में ही बब्बन और उचटिया की त्रयोदशी का भोज रखा है।अनन्ता ने कहा था बब्बन और उचटिया दावत का हवस लिए मरे थे इसलिए उनकी आत्मा की शांति के लिये गांव में दावत होनी चाहिए।अनन्ता भी बाह्मण है।बाह्मण के जिह्वा में सरस्वती वास करती है।बाह्मणों का कहा सच होकर ही रहता है।इसलिए कोई जोख़िम लेने को तैयार नहीं ।क्या पता अनन्ता का कहा सच निकले,त्रयोदशी भोज न होने से बब्बन और उचटिया की आत्मा कुपित हो कर गांव का अनिष्ट करने लगे!इसलिए हांडी में पुलाव चढ़ गया है,कड़ाही में पूरी छनने लगी है।

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