1 – तो कहो 
तो कहो न
खुश तो हो न
ख़ुशी इस बात की हम साथ हैं
साथ हैं दुःख-सुख में जीवन यात्रा में
साथ हैं तर्क-वितर्क में जमकर,
साथ हैं न मिलने वाले विचारों को
मिलाने की होड़ में और जो न मिले
तो बाणों की बौछार भी साथ ही करते
तो कहो न
खुश तो हो न
धूप-छाँव ज़िंदगी की देखी साथ में
कभी सोचा था बीतेगा हर पल साथ में
बीत रहा हर पल नए पल के जैसा,
क्या सोचते हो, देखो न कितनी चुनौतियाँ
कितने आए , चले गए अपने-पराये
ज़ख्म भी दे गए प्यार से कुरेदने को फिर भी
तो कहो न
खुश तो हो न
खट्टी-मिट्ठी अचार-सी ज़िंदगी चट्खारे लेती
तीखी, नमकीन बस कभी ज़रूरत  बन जाती
नापकर  बनती चाय धुआँ छोड़ ठंडी पड़
बेस्वादी होती जो ज़िन्दगी , तो किसे भाती
परम्परों, रस्मों ,समझौतों के मसालों  संग
धूप में पायी अचार-सी ज़िंदगी चटपटी
तो कहो न
खुश तो हो न
यादों में सिमटकर उन्हें याद न करो
गुज़रे पल जो कड़वे थे कभी नीम से
दवाई का घूँट थे वह जो गुज़रे कड़वे पल
इलाज के लिए ज़रूरी थे जब विश्वास हिला
प्रेम अनूठा होता है अनुभव आते ही कोने में
छिपकर आजमाता है साथी की ज़रूरत
तो कहो न
खुश तो हो न
साथ में, अब भी छिपा प्रेम आज़मा रहा है
आगे भी यही सिलसिला होगा पथ भर
चलते रहें बिना पूर्वाभास के रोमांचित
कोई बात नहीं कभी अविश्वास भी कर लेना
लेकिन भरोसे से हाथ थामे रहना, अनुरोध है
अकेले न प्रेम है, न जीवन यात्रा संभव है
तो कहो न
खुश तो हो न
हवन कुंड में प्रेम की आहुति चढ़ाते हैं दोनों
पवित्र ज्वाला भभक रही है प्रेम की अब तक
कभी हँसी की, कभी आँसुंओं की ,चुप्पी की,
आहवान की, प्रमोद, अनुरोध, अनुमोद की,
तेरे-मेरे साथ की उस जलती सम्पूर्ण ज्वाला में
ठंडी छाँव  है ज़िंदगी ,आशीर्वाद कामना पूर्ण जैसे
तो कहो न, खुश तो हो न. ……..
2 – तोड़ देती हूँ एक चुप्पी
जब जब मैं चुप्पी साध लेती हूँ
भीतर तोड़ देती हूँ एक चुप्पी
कभी एक पहेली बन जाती हूँ
भीतर एक पहेली सुलझाने लगती
कभी आहत होती हूँ बनावटी सच से
छटपटाने लगती हूँ  सत्य को पुकारती
मेरी पुकारें टकरा लौट आतीं झूठे कानों से
मौन धर तब मैं चुप्पी साध लेती हूँ
निहित सत्य से परे एक परम सत्य है
डरते हैं उससे शायद अपनी शर्तों पर
मेरी शर्तों का मापदंड भिन्न है थोड़ा
अब मैं चुप्पी साध लेती हूँ
सत्य के कितने रास्ते हैं
स्वीकार कर उसे  चल पड़ो एक रास्ते
या नकारो चल पड़ो झूठ के हज़ार  रास्ते
आधा सत्य आधा झूठ तो है एक हादसा
न सत्य न झूठ कौनसी अवस्था है
उलझ कर इस उलझन में उलझी दुनिया
मौन धर शब्दों का अधर सी लेती हूँ
भीतर धाराप्रवाह बतियाती खुद से
तन्हाई का बोध निश्चिंत  करता
मैं साथ हूँ खुद के, अकेली नहीं
सन्नाटे में भटकन की संभावना
बाहर चुप्पी भीतर नेह बढ़ाती खुद से
बाहर चुप्पी भीतर स्वतंत्रता का प्रकाश
सूर्य-सा चमकता संबल ,भरोसा खुद पर
नेह स्वयं से प्रेरणा का द्वार खोलता
नई किरण लेकर  आती मेरी चुप्पी
लोग बोलते हैं असत्य माया में ,लोभ में,
मोह में, क्रोध में, एक और असत्य बोलते
सभी औरत की अस्मिता को झुठलाते
और रख लेते मौन पर मौन और मैं बोलती
तोड़ देती हूँ एक चुप्पी……………………..
3 – हे राम धर अवतार इस बार
हे राम यह रंगबिरंगी दुनिया बिछाए ऐसे जाल
इस दुनिया की दुनियादारी रखे नारी को उलझाए
नर और नारी बीती सदियाँ कहाँ कुछ बदला है
है आज भी वही कहानियाँ दोहराई जाती
क्या बदला, बदल पाएगा प्रश्न उठता मन में
आगे बढ़कर भी नारी कैसे विश्वास जीत पाएगी
संघर्षों से नाता नारी का आज भी उतना ही गहरा
पुरुष मानसिकता जड़ पत्थर कब गतिमान हो पाएगी
एक तपस्वी अहिल्या फँसी भँवर में पार लगाया तूने
बेकसूर अहिल्या छली गई छल से, अस्मिता लुटा
बन बैठी जड़ पत्थर की शिला दामन पर दाग लगा
स्वयं ब्रह्मा की मानसी पुत्री, थी ब्रह्माण्ड में  सुंदरी
गौतम ऋषि की पत्नी वह ,पतिव्रता धर्म में अव्वल
कसूर अहिल्या का नहीं, क्यों गौतम ने अविश्वास किया
अविश्वास से जड़ अहिल्या मानो पत्थर शिला युगों तक
नारी की सुंदरता बन जाती अभिशाप अस्मिता के लिए
स्वर्ग का देवता इंद्र नारी आसक्ति में कामुक
पिशाच बन गिर गया कितना, छल से वेष धरा
कर विश्वासघात पति रूप धर अहिल्या को ठगा
देवराज होकर भी इंद्र संयम नहीं रख पाया
देव,असुर,मानव करते अधर्म नारी मन चीत्कार करे
पुरुष  पुरुषत्व के बल पर छलते आए नारी को
छलते आए वेष बदल-बदल हर युग का सिलसिला
कर्म में काम ,मद ,छल इतने अवगुण समाये पुरुष में
फिर भी परीक्षा नारी की क्यों हर युग में लेता आए
निर्दोष अहिल्या  पति प्यार में डूब छली गई
दिव्य ज्ञानी ऋषि अविश्वास में कैसे अज्ञानी मूढ़ बना
अविश्वास औरत कैसे सह जाए, यह कैसी मर्यादा
अविश्वास पुरुष क्या सह पाएगा, है ऐसी कोई मर्यादा
अहिल्या सह गई उस अपमान को था विश्वास राम में
हजारों वर्षों तक  इंतज़ार और तपस्या करती आई अहिल्या
अवतार रूप में राम ने कर दिया उद्धार अहिल्या का, फिर भी
हे राम अब भी कई अहिल्याऐं जड़ पत्थर बन गई हैं
अब भी छली जाती हैं ,ठगी जाती हैं ,श्रापित होती हैं
पुरुषों के हाथों कभी अपनों से ,कभी परायों के हाथों से
बात होती है समानता की जब, तब पुरुष बन जड़ पत्थर से
क्या कभी अहिल्या-सी तपस्या कर पाएँगे इंतज़ार में राम के
हे राम पुरुष जन्म से ही जड़ पत्थर है तुझ-सा अवतार कहाँ
तेरे जैसा विशाल ह्रदय कहाँ जिसमें नारी सम्मान,मर्यादा हो
पुरुषोत्तम राम तुम कौशल्या और कैकयी को मानो समान
एक विनती है हर अहिल्या की जो जड़ हो पत्थर बन गई
अपमान से, अन्याय से,अत्याचार से, कठोर पुरुषत्व से
इस रंगबिरंगी दुनिया में  दुनियादारी निभाती राम इंतज़ार में
अवतार रूप धर इस बार राम फिर उद्धार कर नर और नारी दोनों का
न बने पत्थर कोई अहिल्या और न कोई पुरुष इंद्र-सा छल करे
सम्मान समान मिले नर-नारी को और दुनिया सच में रंगीन बने
बदलाव आए ऐसा  नर-नारी विश्वास एकदूजे का जीत पाएँ !
जन्म इंदौर, मध्यप्रदेश में हुआ। देवी अहिल्या विश्वविद्यालय से गणित, विज्ञान में स्नातक और समाज शास्त्र में स्नातकोत्तर । भारत और दुबई में रहने के बाद वर्तमान में अमेरिका के शर्लोट शहर में रहती हैं। कई लेख, कविताएँ ,लघु कहानियाँ ,कहानियाँ , समीक्षाएँ वेबदुनिया ,विभोम स्वर ,गर्भनाल ,हिंदी चेतना, प्रवासी भारतीय ,द कोर ,सेतु ,अनुसन्धान पत्रिका , पुष्पगंधा, माहीसन्देश और साहित्यकुंज पत्रिका में प्रकाशित। लेखन के अलावा चित्रकला , नृत्य और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी। प्रथम कविता संग्रह "सरहदों के पार दरख़्तों के साये में " शिवना प्रकाशन के द्वारा प्रकाशित। साहित्यिक,सांस्कृतिक,सामाजिक संघ "प्रणवाक्षर " द्वारा श्रेष्ठ रचनाकार २०२१ से सम्मानित। संपर्क - 704.975.4898, rekhabhatia@hotmail.com

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