Friday, October 11, 2024
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डॉ. वंदना मुकेश की दो लघुकथाएँ

1 – मोरपंख
मोर को जंगल के पशु-पक्षियों से सख्त शिकायत थी। पहले तो वर्षा ऋतु के आते ही मोरनियाँ मोर के इर्द-गिर्द  घूमने लगतीं, यहाँ तक कि खरगोश, बंदर, चूहे, कबूतर और भाँति-भाँति के पशु-पक्षी इत्यादि भी उसके इर्द-गिर्द घूमते नज़र आते। वर्षा के आने की आहट मोर को दीवाना कर देती। वह अपने पंख पसार- पसार कर, कैहौं-कैहौं की टेर लगाता, नाचता, मोहिनी फेंकता और मोरनी उसके खूबसूरत पंखों  पर न्योछावर अपने समर्पण की सहमति जड़ देती।
सारस ने तो कितनी बार आह भर कर कहा कि काश मेरे पंख भी तुम्हारी तरह होते…
लेकिन समय का फेर, इधर इंसानों ने बेरहमी से जंगलों को काटना शुरु किया कि वर्षा का कुछ आता पता नहीं, कब जाड़ा , कब गर्मी सब कुछ गड्डमड्ड। यहाँ तक कि पशु भी इंसानी बोली बोलने लगे। अब न  खरगोश, न बंदर, न चूहे  न ही कबूतर तीतर -बटेर उत्सुकता से मोर के पंख पसारने की प्रतीक्षा करें और न ही मोरनी। 
मोर यह नहीं समझ पाया कि इस दौरान उसके बहुत से पंख झड़ गये हैं। अब यह कमी स्पष्ट नज़र आती है कि कमाल उसके नाच का नहीं, पंखों के खूबसूरत रंगों का था। वरना, नाच से मोर का क्या वास्ता? संभवतः उन रंगों  की धनक से वह बौराया सा इधर उधर फिरता । अनाड़ी उसे ही नाच समझ बैठे। और वैसे देखा जाए तो पंखों का कमाल ही सही, अंधों में काना राजा तो वह ही था। लेकिन कुछ समय से मोर को लग रहा था कि उसका जादू फ़ीका पड़ रहा है अब वह क्या कर, कैसे ध्यान आकर्षित करे लोगों का ?
उन्हीं दिनों की बात है। शहर से मोर के यहाँ कुछ मेहमान आए। संयोग से हल्की बूंदाबांदी हो गई। मोर का मन नहीं माना और वह खुशी में पंख फैला-फैला कर नाचने लगा। शहरी मेहमानों को भला यों सहज में मोर देखना भी नसीब नहीं, मोर के नाच की कल्पना तो उनकी बुद्धि से परे थी। यह सुंदर दृश्य। सो, उन्होंने जी भर कर प्रशंसा की। कद्रदानों को पाकर मोर भी झूम उठा।
मोर की मेहमानवाजी के कारण साँप -बिच्छुओं का खतरा भी दूर। मेहमान कृतज्ञ हो गये। वे चाहते थे  किसी तरह मोर को उपकृत कर सकें सो उन्होंने नाचते हुए मोर की जी भर कर तस्वीरें ली और मोर से आज्ञा लेकर तुरंत ही फेसबुक पर चढ़ा दी। 24 घंटे भी नहीं गुजरे थे कि उन्होंने मोर को बताया कि उन तस्वीरों पर एक करोड़ से ज्यादा की ‘लाईक’ आ गये और लगभग एक करोड़ कमेंट।  मोर गद्गद् हो गया उसे ये मेहमान साक्षात ईश्वर से प्रतीत हो रहे थे, जिन्होंने उसे रातोंरात एक जानीमानी हस्ती बना डाला।
मेहमानों ने बताया कि उनकी पहचान के कुछ लोगों ने  मोर को अपनी संस्था में सम्मान करने हेतु बुलाया है। मोर को खुशी के कारण कुछ नहीं सूझ रहा था। इंटरनैट की सुविधा ने मोर को फिर संसार के कोने-कोने से जोड़ दिया। नृत्य की तस्वीरों और नेटवर्किंग के बल पर उसे नृत्य के लिए राष्ट्रीय –अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों ने नवाज़ा गया। अब मोर को लगा कि कब तक प्रतीक्षा करूँ बादलों के घिरने की, सो मौसम-बेमौसम बिना पंख नाचने लगा। पंख तो सारे खिर चुके थे। लेकिन मोर के मुँह प्रसिद्धि का खून लग चुका था। 
आजकल मोर नृत्य के लिए ‘नेटवर्किंग’ से मिले राष्ट्रीय–अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों की वही तस्वीरें बार-बार सोशल मीडिया पर लगाकर अपनी प्रसिद्धि की हवस को जैसे-तैसे बुझा रहा है।
पिछले तीन दिन दिनों से किसी भी तस्वीर पर एक भी ‘लाईक’ नहीं मिला है, मोर बीमार है।
2 – बकरियों की चिंता
सुबह-सुबह पड़ोस के लल्लन चचा बहुत चिंतित नज़र आए।
“क्या बात है चाचा , कुछ परेशान नज़र आ रहे हैं ? “
“हाँ, बेटा परेशान तो बहुत हूँ । कल रात मैंने एक अजीब-सा सपना देखा।
“अच्छा, क्या देखा ?”
बकरियाँ बोलने लगी हैं मेरी”, मेरा चेहरा पढ़ते हुए उन्होंने कहा।
“अच्छा! क्या कह रहीं थीं ?”
“कुछ ठीक से समझ तो नहीं आई बात। लेकिन मैंने देखा कि बकरियों की पंचायत बैठी है। ये सारी भी बैठी थीं उसमें। ये नम्मो !” उन्होंने एक बकरी की तरफ इशारा करते हुए कहा, “ये कह रही थी, “पहले उन्होंने हमें खूब हरा-हरा चारा दिया, तो हमने उन्हें अपना हितैषी समझा। फिर वे हमारा ही चारा खाने लगे। और हमारा चारा खा-खा कर उन्होंने अपनी नस्ल बढ़ा ली।” 
चचा रुक गए। फिर थूक सटकते आगे बोले, “और ये, ये छुटकी”, उन्होंने गोदी में बैठे हुए मेमने के सिर पर लाड़ से हाथ फेरते हुए कहा, “ये शैतान कह रही थी”
मैंने उनकी और झुकते हुए पूछा, “क्या?”
वे भी मेरी ओर सरके। फिर बोले,  “हाँ, ये कह रही थी कि उन लोगों ने अब हमारी भाषा भी सीख ली है।  और ऐसे मैं-मैं करने लगे हैं मानो कि इनकी अपनी बोली-बानी हो!..
….और कह रही थी,  “अरे, भाषा तो हमारी है लेकिन इनकी  मैं-मैं….देखकर…….. ” और यह भी कह रही थी कि, इस बात से इसे डर  लगता है।” 
चाचा ने एक दूसरी बकरी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, “फिर ये रज्जो कहने लगी कि “यही हाल रहा तो हमारी नस्ल ही खतम हो जाएगी।”
कहते-कहते चाचा के चेहरे पर पसीना झलक आया। कंधे पर पड़े पंचे से पसीना पोंछते हुए 
फिर, इधर-उधर देखकर, मुझसे धीरे से पूछा, “भैया ये साहितकार क्या होता है ?”
डॉ. वंदना मुकेश
डॉ. वंदना मुकेश
वर्तमान में वॉलसॉल कॉलेज यू.के. में अंग्रेज़ी की प्राध्यापिका है और हिंदी लेखन में सतत संलग्न हैं। संपर्क - [email protected]
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