कहानी –  हर सूरज डूबता है/ हेमिंग्वे/ लेकिन  – विवेक मिश्र

हाथों से छूटती डोर, चाहे वह एक पतंग की हो और बच्चे से छूट रही हो, ..या साँसों की हो और किसी देह से छूटी जा रही हो…, छूटते हुए वह मन में एक अनिश्चितता, एक भय पैदा करती है. हाथ से छूटती चीज़ अंतस में कुछ हिला देती है, कुछ कंपा देती है. जैसे सुबह गर्म चाय का कप हाथ से गिरा था, ज़मीन पे गिरकर टूटने से पहले, पल के हजारवें हिस्से में उसके भीतर कई बार टूटा और छार-छार हुआ… ‘हैप्पी बर्थ डे’ लिखा हुआ, रूमा का दिया- कप, जिसे इस ख़ोज में सिम अपने साथ ले आई थी.

रूमा जैसी ज़िन्दगी से लबरेज़ लड़की का ऐसा मेल जिसमें उसने लिखा था कि वो मरना चाहती है. उसे पढ़ने के बाद, रूमा, सिम के भीतर कई बार मरी थी और हर बार उसके भीतर कुछ कांप कर रह गया था.

अगर रूमा की जगह यह बात किसी और ने लिखी होती तो सिम इस मेल को एक शरारती दोस्त का स्टुपिड प्रेन्क समझ के भुला देती. पर रूमा! वह ऐसा कर सकती थी. सच में, पागल लड़की थी जो किसी पागलपन में मर भी सकती थी. पहले सोचा, वापस एक मेल भेज कर फटकार लगा दे, ‘क्या समझती है, अपने आपको? कॉलेज छोड़े हुए पूरे दो साल हो गए, तब से आज तक कोई खोज-ख़बर नहीं ली और आज अचानक यह मेल, क्या मतलब है इसका- ‘मैं अपनी मृत्यु के बहुत करीब हूँ, पर मैं बिलकुल भी दुखी नहीं हूँ, मैं स्वेक्षा से जीवन त्यागने और मृत्यु को चुनने के आनंद को समझ चुकी हूँ.’

साथ में न कोई नंबर, न पता, बस लोकेशन- गोवा. अरे गोवा में कहाँ? अब अटकलें लगाते रहो, या अगले मेल का इंतज़ार करो जिसमें भेजे गए एक लिंक में इस निर्णय के कारणों का खुलासा होगा. रूमा जैसे सिम के सामने खड़ी है. हँस रही है, उसकी बेचैनी और बेबसी पे. वह उसे ऐसे मरने नहीं देगी. वह मेल का इंतज़ार नहीं करेगी, बल्कि उस तक पहुंचने का रास्ता ढूँढेगी…

………………

गोवा-

सिम दिल्ली से गोवा तक अपनी कोशिशों से पहुँची थी. पर गोवा पहुँचने के बाद, इस अँधेरी सुरंग जैसी जगह जो बाद में एक छोटे इनडोर स्टेडियम के हॉल नुमा जगह में खुलती थी, में उसे पणजी से एक पुरानी-सी कार में, एक-सवा घंटे की ड्राईव करके पहुंचाया गया था. पूरे रास्ते उसकी आँखों पर पट्टी बांधे रखी गई थी. उसे यहाँ लाने वाला उसके साथ बहुत तमीज़ से पेश आया था और रास्ते भर उसे आश्वस्त करता रहा था कि वह जिस किसी को भी ढूँढती यहाँ पहुंची है, उसकी ज्यादा फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि वह बहुत बड़े और नेक काम का हिस्सा बनने जा रहा है.

अब वह जिस हॉल में थी उसके बीचों-बीच छत पर लटकी लाईट से फर्श पर बनते गोले के अलावा, वहाँ लगभग न के बराबर रोशनी थी. रोशनी के उस छोटे से घेरे के चारों ओर लगातार बड़े होते जाते गोलों के क्रम में कुर्सियाँ लगी थीं जो अबतक लगभग पूरी भर चुकी थीं. यहाँ तक लाने वाले ने उसे चुपचाप सबसे पीछे के गोले में पड़ी अब तक ख़ाली बची कुर्सी पर बैठने की हिदायत दी थी. उसके बाद वह दोबारा नज़र नहीं आया था.

अब कमरे में हल्की-सी वॉयलिन की धुन सुनाई देने लगी. धुन बहुत धीमी और उदास कर देने वाली थी. सिम जैसे यह धुन पहचानती थी. यह उसने अपनी माँ के फ्युनरल के समय सुनी थी. उन्होंने आत्महत्या की थी पर वह अपनी ज़िन्दगी से बहुत दुखी थीं. उन्हें समय ने, उनके आस-पास के लोगों ने छला था, पर रूमा! उसे तो उसने कभी दुखी नहीं देखा था, फिर वो कैसा खिलवाड़ करने जा रही थी, अपनी ज़िन्दगी से… क्या वह भी इस समय इसी हॉल में किसी कुर्सी पर बैठी होगी.

नज़र उठा के देखा तो पता चला, उस धुन के साथ हॉल में उपस्थित सभी लोग अपनी-अपनी जगह पर खड़े हो गए हैं. वह भी खड़ी हो गई. तब तक रोशनी के घेरे के बीच एक बूढ़ा आदमी आ चुका था. उसने झक्क सफ़ेद कपड़े पहन रखे थे. उसके एक इशारे से संगीत थम गया, धीरे-धीरे लोग अपनी जगह पर बैठ गए.

वह बूढ़ा आदमी भी रोशनी के घेरे के बीचों-बीच पड़ी टेबल पर अपना चश्मा और बैग रखकर उसके साथ पड़ी कुर्सी पर बैठ गया. कुछ पल हॉल में सन्नाटा छाया रहा. फिर उसने चारों ओर नज़र घुमाई, दीवारों पर फैले मटमैले से अँधेरे को देखा और बोलना शुरू किया, ‘प्रत्यक्ष या परोक्ष, मृत्यु की छाया किसी न किसी रुप में हमेशा हमारे साथ चलती है. मैं जानता हूँ कि मैं किसी रास्ते से गुज़रूं मौत के साए की ज़द में हूँ..’

अब वहाँ इतनी ख़ामोशी थी कि अगर कोई जोर से साँस भी ले तो सबको सुनाई पड़े. उस आदमी ने सन्नाटे पर धीरे से अपनी आवाज़ रखते हुए आगे बोलना शुरू किया, ‘मौत हमेशा हमारे साथ होती है. हम जीवन जीते हुए प्रतिपल मौत की ही प्रतीक्षा कर रहे होते हैं…, धीरे-धीरे उसकी तरफ़ बढ़ रहे होते हैं. ‘मौत’ मुझे हमेशा से ही जीवन के अंत नहीं बल्कि उसकी पूर्णता के रूप में दिखती है, ….जैसे आनन्द के अतिरेक में भी थोढ़ा दुख घुला होता है, जैसे मुस्कराते हुए भी आँखें थोड़ी नम बनी रहती हैं, जैसे आनंद में घुली हल्की-सी दुःख की छाया उसे भौतिक सुख से बिलगा देती है, वैसे ही जीवन में मृत्यु की छाया- जीवन को अर्थवान और अन्वेषी बनाए रखती है.’

बोलते हुए उसने अपने बैग से कुछ पेपर्स निकाल कर टेबल पर रख लिए थे. वह उन्हें पढ़कर नहीं बोल रहा था पर बोलते हुए उन्हें ऐसे टटोल रहा था जैसे उनमें उसके कहे का सबूत मौजूद हो.

वह अपने बाएँ हाथ की उँगलियों को अपने दाएँ हाथ की उँगलियों से टटोलते हुए बोल रहा था, ‘मृत्यु का संगीत, जीवन के संगीत से कम नहीं है… सोचो, एक संगीतकार जिसके इशारे पर हज़ारों वॉयलिन बज रही हों और वह एक झटके से उन सबको थमने को कह दे, और वे थम जाएं, तो संगीत के बीच- वाद्यों का वह मौन, वह चुप्पी, वह पॉज, उसके भीतर का शून्य भी एक अद्भुत संगीत रचता है… ऐसे ही जीवन है जिसमें हज़ारों लोग जीने की झक में, एक आदत की तरह, अपनी ही धुन में जिए जाते हों और किसी एक के इशारे पर वे सब एक साथ अपनी जान दे दें, ..मर जाएं, बिना मृत्यु से भय खाए, उसे गले लगा लें, बड़ी सहजता से. बिलकुल वैसे ही जैसे भीड़ भरे रास्ते में हम थोड़ा रूककर किनारे होते हैं और किसी और के जाने के लिए रास्ता बना देते.’

सिम उसकी बातों को सुनते हुए भी उस धुंधलके में आँखें गढ़ा-गढ़ाकर तमाम अजनबी चेहरों के बीच रूमा का चेहरा ढूँढ़ रही थी. उसके यूँ गर्दन घुमाकर चेहरों को देखने और उन्हें पहचानने की कोशिश करने के कारण उसके दोनों बगल बैठी स्त्रियों ने उसे घूर कर देखा था. हॉल में हल्की गर्मी और उमस के बावजूद उन स्त्रियों ने अभी भी अपने सिर पर स्कार्फ बांध रखा था. वे उसे घूरते हुए जैसे उसके आर-पार देख रही थीं.

………………..

दिल्ली-

उस दिन मेट्रो में और दिनों की आपेक्षा ज्यादा ही भीड़ थी. और सिम ख़ुद को रोज से ज्यादा थका और पस्त महसूस कर रही थी. वह लाख सिर झटकने पर भी रूमा की बातों को, उसके उस मेल को भुला नहीं पाई थी, बल्कि उसके बाद बार-बार रूमा को अपने भीतर टटोल रही थी. और उसे आश्चर्य हो रहा था कि वह उसके भीतर जस की तस बनी हुई थी.

दिल्ली विश्वविद्यालय में अपनी तीन साल की ऑनर्स की पढ़ाई के दौरान रूमा का नाम और उसके किस्से सबकी जुबान पर रहते थे. उसके बारे में ये किस्से कोई और नहीं गढ़ता था बल्कि गर्ल्स हॉस्टल में देर रात तक ज़मने वाली महफ़िलों में, वह ख़ुद ही उन्हें सुनाया करती थी. उसकी मंडली की माने तो उन तीन सालों में उसे छः बार प्रेम हुआ था, हालाँकि प्रेम की परिभाषा को लेकर उसके और सिम के बीच कई बार लम्बी बहसें हुआ करती थीं और दोनों एक-दूसरे से अक्सर असहमत ही रहती थीं, पर रूमा हमेशा यही कहती थी कि उसे प्रेम हो गया है. आप चाहें तो कह सकते हैं कि उसके छः अलग-अलग लोगों से अंतरंग संबंध बने थे. पाँच बार लड़कों से, नहीं मर्दों से कहना ठीक होगा, क्योंकि उन पाँच में से एक उम्र दराज़ प्रोफेसर भी थे और एक बार उसकी अपनी क्लास की एक लड़की से.

पर यह शायद सिम ही जानती थी कि इस बीच एक और रिश्ते ने जन्म लिया था और वो था ‘रूमा और सिम’ का, जो पता नहीं कैसे दोस्ती की हद पार कर गया था, हालांकि रूमा ने अपने प्रेम के किस्सों में उस तरह से सिम का ज़िक्र कभी नहीं किया था. पर हाँ! उसके बाद उनके बीच प्रेम की परिभाषा को लेकर होने वाली बहसें खत्म हो गई थीं. रूमा की मंडली जरूर कभी-कभी कहा करती थी कि रूमा ने सिम को बदल दिया है. सिम भी जानती थी कि सचमुच ही रूमा ने उसके भीतर कुछ बदल दिया है.. उसने उसे किसी खोल से निकाल कर खुली हवा में ला खड़ा किया था.. आज वही रुमा उसे अपने से बहुत दूर जाती लग रही थी.  सिम ने लगभग गालियाँ देने के अंदाज़ में उसके मेल का जवाब दिया था, पर  उसे इतने भर से संतोष नहीं हो रहा था सो उसने ऑफिस से छुट्टी लेकर रूमा के लिए गोवा जाने का मन बना लिया था, पर वहाँ पहुँच कर उसे ढूँढेगी कहाँ, उस तक पहुंचेगी कैसे…

सिम कुछ और सोचती कि, मेट्रो किसी सुरंग से निकल के रोशनी में आ गई थी. वह हड़बड़ा कर उठी और दरवाज़े पर पहुँच गई, शायद उसका स्टेशन पीछे छूट गया था, क्यूँ उसके हाथ से चीज़े यूँ ही छूटती चली जाती हैं, क्यूँ वह समय से उन्हें नहीं पकड़ पाती. वह लोगों के एक बड़े जत्थे के साथ प्लेटफार्म पर आ गई थी, सोचा ‘उतरे तो बहुत लोग हैं पर कितने अपने गंतव्य पर पहुंचे हैं, कहना कठिन है.’ मन ही मन अपने आपको झिड़का. वह भी क्या-क्या सोचती रहती है, यूँ भी बहुत देर हो चुकी है, और उसे अपने स्टेशन पर पहुंचने के लिए वापस भी लौटना है.., तभी एक बात मन में कौंधी- रूमा की बात को समझने के लिए उसे वापस लौटना होगा, बीते वक़्त में वापस. पर रूमा जो करने जा रही है वो तो आने वाले कल में होने वाला है, पीछे लौटते हुए कहीं आगे उसतक पहुँचने में देर न हो जाए….

………..

गोवा-

हॉल में सभी प्रश्नहीन, निरूत्तर, निर्विकार उस बूढ़े आदमी की बातें सुन रहे थे.

उसका स्वर पहले से ऊँचा और बोलने की गति तेज़ हो गई थी. वह कह रहा था, ‘यह हमारे बीते हुए कल का प्रायश्चित है और आने वाले समय की तैयारी, उस समय की तैयारी जब मनुष्यों के लिए यह धरती छोटी पड़ जाएगी. जब राष्ट्रों की सीमाएं ध्वस्त और मुद्राएं निरस्त हो जाएंगी. धरती पर रहने वाले असंख्य लोग धरती पर उगने वाले, एक-एक पत्ते, एक-एक जीव-जन्तू, यहाँ तक की कीट-पतंगों तक को खा जाएंगें. वे सोख लेंगे धरती की अथाह जल राशि, तब एक ही रास्ता होगा इस पृथ्वी को बचाने का और वह होगा, मनुष्य की मौत.’

उसने अपने हाथ ऊपर करके जैसे पूरी पृथ्वी को अपने हाथों में उठा लिया था. अब उसके स्वर में हल्की-सी उत्तेजना आ गई थी जिससे आवाज़ थोड़ी कांपने लगी थी. पर वह बिना रुके बोले जा रहा था, ‘तब कितना भयावह होगा- वह दृश्य. जब सब चाहेंगे मनुष्यों की मौत और स्वेक्षा से कोई भी मरना नहीं चाहेगा. उसके लिए हमें आज से ही लोगों को तैयार करना होगा, मरने के लिए मनाना होगा और उसके लिए  सबसे ज्यादा कारगर होगा हमारा तरीका. बिना किसी भय, बिना किसी हिंसा, बिना किसी यातना के मौत. ख़ुशी-ख़ुशी अपनी इच्छा से. पर आज किसी देश का क़ानून इसे नहीं मानेगा, कोई व्यवस्था इसे स्वीकार नहीं करेगी. मैं अक्सर लोगों से कहता हूँ कि मौत मनुष्य के लिए कोई नई नहीं है. लोग अपनी असफलताओं, हताशाओं   के चलते भी तो मरते हैं. वे अपने स्वार्थ के चलते दूसरों की हत्याएं भी तो करते हैं. वे धर्म, जाति, भाषा, देश-ऐसी तमाम चीजों के नाम पे मरते-मारते हैं. पर व्यवस्थाएं आज हमें अपराधी क़रार देंगी. लेकिन हमें इसकी परवाह नहीं, हम अपना काम करते रहेंगे. क्योंकि हम चाहते हैं कि अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर हम इस जगह के बारे में सोचें जिसे हम अपना घर कहते हैं’

उसने रोशनी के घेरे में एक चक्कर लगाया और अपने हाथ नीचे तथा स्वर धीमा करते हुए बोला,  ‘हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे, और उम्मीद करते हैं कि हमारा यह घर जिसे हम पृथ्वी कहते हैं, वह ऐसा भयावह दिन न देखे. हम मनुष्यों को धीरे-धीरे यहाँ से विदा लेने के लिए तैयार कर लें, पर यदि हमारी कोशिशों के बाद भी यदि ऐसा न हुआ, तो पृथ्वी पर वह भयावह समय आकर रहेगा, पर उस समय भी हमारे सदस्य, अपना काम करते रहेंगे. वे तब भी बताएंगे लोगों को मरने के आनंद के बारे में. पर अफ़सोस! तब तक जीवन, मृत्यू से बद्तर हो चुका होगा और तब अपने अज्ञान के चलते लोगों में जीने की उत्कंठा और बढ़ जाएगी, और प्रबल हो जाएगी. वे जीवित रहने के लिए किसी भी सीमा तक चलें जाएंगे. क्योंकि बहुत कम लोगों की तैयारी होगी मरने की. इसीलिए कहता हूँ कि हमें आज ही जाग जाना होगा.’

उस बूढ़े आदमी की बातों का, और सबकी तरह सिम पर भी असर हो रहा था. ठीक उसी समय उसके ज़हन में रूमा की बातें भी घूम रही थीं. वह कहती थी, ‘हम पेड़ काट सकते हैं, नदियों को तबाह कर सकते हैं, पक्षियों, जानवरों, कीट-पतंगों को जब चाहे मार सकते हैं, पर कभी ऐसा कोई दिन आएगा जब कोई कहेगा कि धरती को मनुष्यों से सबसे बड़ा ख़तरा है. चलो हम अपनी मर्ज़ी से इस धरती का बोझ हल्का कर देते हैं.’ क्या रूमा ने सचमुच यहाँ आकर अपना रास्ता चुन लिया है.

उस आदमी की बातें सुनते हुए एक बार सिम को लगा था कि वह उससे सहमत हो रही है. पर किसी हाल में वह ये भूलना नहीं चाहती थी कि वह रूमा को ढूँढते हुए यहाँ तक पहुंची है, और फिर वह आदमी कोई फिलोसोफी की क्लास नहीं ले रहा था बल्कि लोगों को अपनी ज़िन्दगी ख़त्म करने की सलाह दे रहा था. और ऐसा करते हुए उसकी आवाज़ में कोई ग्लानी या अपराध बोध नहीं था बल्कि उसमें किसी महान उद्देश्य के लिए आह्वान करने जैसा भाव था.

…………

दिल्ली-

वे सर्दियों की शुरुआत में गुनगुनी धूप वाले दिन थे. पर सिम ख़ुद को अपने में समेटे उदास बैठी थी. रूमा उस दिन उसके कमरे पर किसी जिन की तरह अनायास प्रकट हुई थी. इस तरह कभी भी, कहीं भी दबे पाँव पहुँचना और फिर किसी मिथकीय कथा के विचित्र पात्रों सा प्रकट हो जाना, रूमा का अपना स्टाइल था. सिम कुछ कह पाती उससे पहले ही रूमा ने बड़े बेधड़क अंदाज में दरवाज़े अंदर से बंद किए और अपने मोबाइल पर एक अंग्रेजी गाना चला दिया.

सिम अभी कुछ समझ भी नहीं पाई थी कि उससे पहले ही, उसने पाया कि वह रूमा के साथ नंगे पाँव, कमरे के ठंडे फर्श पर थिरक रही थी. अब वह उदास नहीं थी. वह मुस्कुरा रही थी…

उस दिन रूमा के स्पर्श ने सिम के भीतर छुपा कोई मीठे पानी का सोता खोज लिया था. धीरे-धीरे दोनों के होंठ नम होने लगे थे. इस नमी में एक अजीब-सी महक थी, जो उन दोनों को जैसे भारहीन बना रही थी. उस सोते के पानी में एक चुम्बक भी थी, जिसने दोनो को खींच कर, एक दूसरे के बहुत पास ला दिया था.

सिम का संकोच रूमा ने धीरे से छील कर उसके शरीर से उतार दिया था. सिम के शरीर से जैसे पीले मुरझाए पत्ते झर रहे थे, एक नई अनुभूति के साथ उसके रोम-रोम से नई कोंपलें फूट रही थीं. उसके तलवों ने ज़मीन की ठंडक को वर्षों बाद महसूस किया था. वह लगातार हल्की होकर ऊपर उठ रही थी. उसके तलवे किसी अमरबेल की तरह ज़मीन से एक सनसनाहट के साथ, जीवन खींच रहे थे, जिससे उसके अंग-अंग ने हँस कर हरियाली की चादर ओढ़ ली थी. उसका चेहरा दमक रहा था. थकी-मुरझाई सिम मांसल-गदराई और एंद्रिकता से भरपूर लग रही थी.

रूमा ने सिम को उस एहसास से रूबरू कराया था जिसे वह ख़ुद भी अपने भीतर तमाम बेचैनियों के बाद भी खोज नहीं पाई थी. उस दिन के बाद से ही रूमा का इस दुनिया में होने का एहसास ही सिम को आत्म विश्वास से भर देता था. दूर या पास, प्रकट या अंतर्ध्यान रूमा हमेशा उसके जीवन में थी, कुछ-कुछ एक महक की तरह, जिसे वह कभी भूल नहीं सकती थी.

पर रूमा स्वयं कुछ समय बाद किसी नदी की तरह अपने किनारों को सींचती, हरा-भरा करती आगे बढ़ गई थी. उसके बाद उसने हॉस्टल भी छोड़ दिया था. धीरे-धीरे क्लास में भी वह कम दिखाई देने लगी थी उसने इम्तहानों के बाद आखिरी बार उसे निखिल के साथ देखा था… निखिल!

हाँ, निखिल ही तो अतीत का वह सिरा है, जिसे पकड़कर रूमा तक पहुँचा जा सकता था. उन दिनों निखिल ही उसके सबसे करीब था. सुनने में आया था कि उसके बाद वे दोनों साथ ही रहने लगे थे. निखिल के एक दोस्त को सिम जानती थी और उससे निखिल का नम्बर मिल सकता था.

अंदाज़ा बिल्कुल सही निकला. दूसरे दिन सुबह उसे निखिल का नम्बर मिल गया था और अपनी इस सफलता से वह खासी खुश भी थी, पर उसकी खुशी ज्यादा देर की नहीं थी. यह एक लेंड लाईन नम्बर था और उस पर लगातार रिंग जाने पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिल रही थी. जैसे-जैसे समय बीत रहा था सिम की बेचैनी बढती जा रही थी. आखिर वह कैसे हालात होंगे जिसमें रहकर रूमा अपनी मृत्यु के बहुत निकट होकर भी दुखी नहीं होगी? क्या अभी भी वह गोआ में निखिल के साथ होगी? सिम के सामने ऐसे सैकड़ों अनुत्तरित प्रश्न नाच रहे थे.

ा___सिम ने उस नम्बर के सहारे  निखिल के घर का पता मालूम किया और आफिस से थोड़ा जल्दी निकल कर वह उस पते पर जा पहुँची-  मकान के दरवाज़े कुछ इस तरह से बंद थे, लगता था जैसे कई सालों से किसी ने उन पर दस्तक नहीं दी थी, पर बाहर से उस घर को देखकर यह भी अनुभव किया जा सकता था कि उसे जैसे सदियों से किसी का इन्तज़ार था. अभी पूरी तरह रात का अंधेरा ज़मीन पर नहीं उतरा था, पर दरवाज़े के बाहर लगा एक पीला लट्टू जल चुका था. दरवाज़े के बाहर ज़मीन पर चिड़ियों को पानी पिलाने के लिए एक मिट्टी का बर्तन रखा था, जिसके आस-पास बाजरे के दाने बिखरे थे, पर वहाँ पक्षी नहीं थे, वे क्षितिज के पार कहीं सदियों से रहे आए आशियाने में जा छुपे थे. कुछ कुत्ते भोंकते हुए गली में यहाँ-वहाँ दौड़ रहे थे. सिम ने अपने भीतर चल रही हलचल को शांत करके दस्तक दी थी.

दरवाज़ा एक लगभग साठ-बासठ साल की महिला ने खोला था. सिम कुछ कह पाती उससे पहले ही उम्र से कुछ ज्यादा और समय से पहले सफेद हो चुके बालों वाली उस महिला ने उसे अपनी आँखें सिकोड़ते हुए ऐसे घूरा, जैसे वह उसके नैन-नक्श का मिलान अपनी स्मृति में दबी किसी तस्वीर से कर रही हो. सिम के मुँह से कुछ निकलता उससे पहले ही महिला ने कमर सीधी करके, तनकर खड़े होते हुए कहा, ‘तुम! यहाँ क्या लेने आई हो?’ सिम महिला के अप्रत्याशित प्रश्न से घबरा गई थी.

उसने खुद को संभालते हुए कहा, ‘जी मैं वो निखिल!’

सिम अपनी बात पूरी कर पाती, उससे पहले ही महिला ने लगभग पागलों की तरह चिल्लाते हुए कहा, ‘क्या हुआ निखिल को? कहाँ है वो?…तुमने क्या किया उसके साथ,… कहाँ है वो’ यह सब बोलते हुए उसकी पीठ झुक गई थी। अब वह लगभग गिड़गिड़ाते हुए, प्रार्थना भरे स्वर में कह रही थी, ‘उससे कहो एक बार मुझसे मिल ले.’

सिम के लाख दिमाग लगाने पर भी मामला उसकी समझ में नहीं आ रहा था. महिला के बदले हुए स्वर को देखकर उसने हिम्मत बटोरते हुए कहा, ‘देखिए मैं निखिल से पिछले दो साल से नहीं मिली हूँ, मैं खुद उससे मिलना चाहती हूँ, पूछना चाहती हूँ अपनी फ्रैन्ड रूमा के बारे में.’

महिला ने फिर उसे ध्यान से देखा, ‘तो तुम रूमा नहीं हो, मेरा बेटा उसीके साथ रहता था, फिर उसने घर आना ही बंद कर दिया, पहले तो कभी-कभी फोन भी कर लेता था, पर अब तो साल भर से उसका कोई फोन भी नहीं आया.’

सिम ने झट से बात लपकी, ‘नंबर है उसका?’

महिला की आँखों में एक सन्नाटा पसर गया. वह बिना दरवाज़ा बंद किए ही भीतर चली गई.

सिम बिना कोई जानकारी हासिल किए वापिस नहीं जाना चाहती थी, इसलिए वह भी पीछे-पीछे घर में दाखिल हो गई.  उसने बिना किसी बड़ी उम्मीद के धीरे से एक प्रश्न हवा में तैराया, ‘जब आखिरी बार निखिल ने आपको फोन किया तो वह कहाँ रह रहा था?’

कुछ सोचते हुए उसने ना में सिर हिला दिया. फिर अचानक जैसे उसे कुछ याद आया हो, ‘हाँ उसने मुझे एक नंबर दिया था, कहा था मैं उस पर फोन कर सकती हूँ.  बाद में जब उस नंबर पर फोन किया तो किसी औरत ने उठाया. बोली, ‘यहाँ कोई निखिल नहीं है’, मेरे बहुत पूछने पर उसने झल्लाकर इतना ही कहा था कि यह किसी घर का नहीं बल्कि पागल खाने का नम्बर है और गुस्से से फोन पटक दिया. उसके बाद कई दिनों तक तो उस नंबर पर फोन करने की हिम्मत ही नहीं हुई, कुछ दिनों बाद जब उस पर फोन किया तो पता चला वह बंद हो चुका है.’

सिम ने थोड़े संकोच के साथ पूछा, ‘क्या वो नंबर आप मुझे दे सकती हैं?’

महिला ने बिना कुछ कहे उसे एक क़ाग़ज़ का टुकड़ा थमा दिया. नंबर देखते ही सिम के शरीर में झुरझुरी फिर गई. वह उसे पहचानती थी. पर उस समय उसने कुछ भी नहीं कहा. अपने मोबाइल में नंबर सेव किया और महिला से निखिल की कोई खबर मिलते ही उसे फोन करने का कहकर, वहाँ से निकल आई.

……………

गोवा-

अब हॉल के कोनों में भी हल्की-हल्की रोशनी हो गई थी जिसके पीछे से ख़ुशबूदार धुआँ चारों तरफ फैलने लगा था. साथ ही उस बूढ़े आदमी की आवाज़ में पहले से ज्यादा आत्मविश्वास और इत्मीनान आ गया था. वह लोगों पर अपनी बातों के असर को लेकर आश्वस्त लग रहा था.

अब उसने रोशनी के घेरे से निकलकर बड़े वृत्त में पड़ी कुर्सियों पर बैठे लोगों के पीछे घुमते हुए उनके कन्धों पर हाथ रखकर उन्हें अपनी आत्मीयता में डूबे स्वर में समझाना शुरू कर दिया था. वह कह रहा था, ‘जब हम जी रहे होते हैं तब भी हर समय हम धीरे-धीरे मर ही तो रहे होते हैं. पर इसे ज़िन्दगी के मोह में फसा कोई आदमी मानेगा नहीं. हम सच्चाई को स्वीकारने में बहुत देर लगा देते हैं. जानते हैं! जब पहली बार पता चला था कि पृथ्वी अपनी धुरि पर घूम रही है, निरन्तर. तब यही कहा था लोगों ने कि अगर पृथ्वी घूमती, तो आसमान में उड़ती चीलें अपने घोंसलों का रास्ता भूल जाती. समंदर का पानी धरती को ढक लेता और सचमुच उस समय उनकी बातें सच जान पड़ती थीं, पर आज हम सब जानते हैं कि पृथ्वी निरन्तर अपनि धुरि पर घूम रही है.’

अब वह अलग-अलग कतारों में बैठे लोगों के चेहरे पर उभरते प्रश्नों को पढ़ते हुए बोल रहा था, ‘मेरी बातों पर भरोसा करने से पहले आप सब यह भी बहुत अच्छी तरह जान लीजिए कि यह जो कुछ भी मैं कह रहा हूँ यह कोई धर्म या आध्यात्म से जुड़ी बात नहीं है, यह कोरा दर्शन भी नहीं है.  इटस प्योरली सांईटिफिक… और हाँ, एक और बात- मनुष्य ऐसा पहला प्राणी नहीं है जो मेरे कहने से इस तरह अपनी मर्जी से सामूहिक आत्महत्याओं के ज़रिए समय आने पर धरती को छोड़ कर चला जा रहा हो… मैंने पता लगाया है, हमसे पहले कई जीव-जंतु अपनी मर्जी से मरे हैं, हम भले ही उनके लुप्त होने के कई मनगढ़ंत कारण प्रचारित करते रहें पर वे जान गए थे की उनका यहाँ से जाने का समय आ गया है, और वे चले गए. वे गए तभी आज हम यहाँ पर हैं. पक्षियों की कितनी ही प्रजातियों ने एक साथ अपने प्राण त्याग कर इस धरती को छोड़ा है. पृथ्वी पर मनुष्यों के बीच भी इस तरह की कोशिशें समय-समय पर होती रही हैं.’

……………….

दिल्ली-

सिम अकेली बार में बैठी तीन बीयर के केन खत्म कर चुकी थी. उसके आस-पास की टेबलें खाली हो चुकी थीं, पर वह अभी भी अपने कमरे पर लौटने के मूड में नहीं थी. आज निखिल की माँ ने जो नंबर उसे दिया था उससे वह और उलझ गई थी. वह उसके कालेज के मनोविज्ञान के प्रोफेसर दयाल का नंबर था. उसपर सिम ने रूमा से कई बार बात की थी, उस समय वह उनके साथ किसी रिसर्च प्रोजेक्ट पर काम कर रही थी. वह रूमा के साथ एक बार प्रो: दयाल के घर भी जा चुकी थी, जहाँ वह अपनी पत्नी के साथ रहते थे. उनका एक बेटा भी था जो अपनी नौकरी के सिलसिले में अमेरिका चला गया था. सिम ने सुबह ही प्रो: दयाल के घर जाने का मन बनाते हुए, लगभग खाली हो चुके केन में से बीयर का आखिरी घूँट खींचा.

कल रात सिम ठीक से सो नहीं पाई थी. अपनी सूजी हुई आँखों को छुपाने के लिए उसने गहरे बादामी रंग का चश्मा पहन रखा था. ऑटो रिक्शा कमला मार्केट से होता हुआ, दाहिनी ओर मुड़ गया. बस, यहीं अगले मोड़ पर रहते थे प्रो: दयाल. उनका घर क्या था, एक बहुत पुराना अंग्रेजों के समय का बंगला था.

आस-पास बहुत कुछ बदल जाने के बाद भी एक चीज जो नहीं बदली थी, वह थी उसके चारों ओर फैली हरियाली. वह अपने अगल-बगल बने नई सज-धज वाले मकानों की तुलना में सचमुच ही बहुत प्राचीन लग रहा था. लगता था कई सालों से पेड़ों की छटाई नहीं हुई थी. सिम ने आटो से उतर कर बड़े से फाटक के बगल में लगी, एक काली पड़ चुकी कॉलवेल को थोड़ा डरते हुए दबाया. पर प्रतिउत्तर में बड़ी देर तक भीतर कोई आहट नहीं हुई. सिम अभी दोबारा वेल दबाने के बारे में सोच ही रही थी कि किसी ने पीछे से आवाज़ देकर उसे चौंका दिया.

एक ज़र्ज़र-सी देह वाले चौकीदार ने आवाज़ ऊँची करते हुए पूछा, ‘किससे मिलना है?’

सिम उसकी ओर मुड़ कर कुछ कहती उससे पहले ही उसने फिर सवाल किया, ‘प्रो: दयाल से?’

सिम ने ‘हाँ’ में सिर हिला दिया।

वह एक बड़े रहस्य का खुलासा करने वाले अंदाज़ में बोला ‘वह अब यहाँ नहीं रहते.’

सिम के मुँह से बस इतना ही निकला, ‘फिर?’,

‘वह साल भर पहले कहीं चले गए’ चौकीदार अबकी बार कुछ रस लेते हुए बोला.

‘और उनकी पत्नी?’ सिम ने डूबते स्वर में पूछा.

‘जी उनके साथ तो बहुत बुरा हुआ.’

सिम के लिए यह बड़ती हुई बातचीत असहय हो रही थी. तभी उसे निखिल की माँ के द्वारा इस पते पर फोन किए जाने पर, किसी महिला द्वारा दिए गए उत्तर की याद आई, जिसमें उसने कहा था कि यह नंबर एक पागलखाने का है. सिम ने फिर से बात का सिरा थामते हुए कहा,‘क्या हुआ था उनकी पत्नी को?’

अब चौकीदार के चेहरे पर किसी कथा वाचक जैसे भाव आ गए थे. उसने बोलना शुरु किया, ‘अब मैडम, बड़े लोगों की बड़ी बातें, पड़े-लिखे लोग हैं, भूत-प्रेत, शैतान-भगवान इन सब में तो इनका विश्वास होता नहीं. कोई चीज बिलकुल सामने ही क्यों ना हो पर ये ढूँढते कहीं और ही हैं, कभी किताबों में, कभी कम्प्यूटर में, तो कभी इधर- उधर भटक कर.’

सिम के बदलते हावभाव ने चौकीदार को समझा दिया था कि उसे उसकी इस राम कहानी में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसलिए वह संभलते हुए बोला, ‘वो क्या है जी, बेटा तो पहले ही माँ-बाप को छोड़ कर अमरीका चला गया था, प्रोफेसर साब भी तरह-तरह के प्रयोगों में लगे रहते. कई बार तो लोगों ने उनकी शिक़ायत पुलिस तक से कर दी. रिटायरमेन्ट से पहले ही उन्हे कालेज से भी निकाल दिया गया. उनके प्रयोगों से तंग आकर, उनकी पत्नी अपने आखिरी दिनों में कुछ पागल सी हो गई थीं. थोड़ा-बहुत जो सुनती-समझती थीं, वह भी प्रोफेसर साब के जाने के बाद बंद हो गया. दाह-संस्कार तक पड़ोसियों और दूर के रिश्तेदारों ने किया, ना परदेस से बेटा ही आया और ना ही प्रोफेसर साब को ही खबर मिल पाई. अब वह जाते हुए किसी को कुछ बता कर तो गए नहीं थे. अभी कुछ दिनों से सुन रहे हैं कि बंग्ला बेचने के लिए उनका बेटा आने वाला है. अब किस के भाग फूटे हैं, जो इस घर को खरीदेगा’ चौकीदार लगातार बोलता चला जा रहा था.

सिम मन ही मन कहानी के तारों को जोड़ने में लगी थी. प्रो: दयाल के घर आकर भी कुछ खास उसके हाथ नहीं लग पाया था, पर इतना तो वह पक्के तौर पर समझ गई थी कि रूमा, निखिल और प्रो: दयाल का कोई ना कोई कनेक्शन आपस में ज़रूर था. तीनों का विषय भी मनोविज्ञान ही था और तीनों एक साल पहले तक आपस में किसी काम के सिलसिले में या किसी और वज़ह से एक दूसरे के सम्पर्क में थे. गार्ड की बातें अब दर्शन शास्त्र के गूढ़ ज्ञान की ओर मुड़ गई थीं. सिम ने एक आटो को इशारे से रोका और उस पर सवार हो गई. गार्ड पीछे से अभी भी कुछ बड़बड़ा रहा था. आटो धुआँ छोड़ता हुआ आगे बड़ गया था.

………………..

सिम अपने रूम में लैपटाप खोल कर बैठी थी. वास्तविक दुनिया ही नहीं गूगल, ट्वीटर और फेसबुक की वर्चुअल दुनिया भी ऊँघ रही थी, पर वह आँखें फाड़े नेट पर कुछ सर्च करने में लगी थी. इन्टरनेट के विशाल समंदर में  उसने कई बार अपना जाल फेंका और समेटा था, पर कुछ भी उसके हाथ नहीं लगा था.

आज सिम का दिन तो खराब हो ही चुका था, रात भी ऐसे ही बीत रही थी. उसे लगा यह तो आत्महत्या है. उसने एक लम्बी उबासी लेते हुए आखिरी दाव खेला. उसने गूगल पर ‘सुइसाईड’ टाईप कर दिया. क्षण भर में उसके सामने सुइसाईड से संबन्धित सूचनाओं का अम्बार लग गया. वह अभी उन्हें एक-एक कर क्लिक करके पढ़ ही रही थी कि उसकी नज़र एक ऐसी जानकारी पर पढ़ी जिससे वह तमाम चीजों को छोड़ सीधी उसी पर जा पहुँची. युवाओं में बड़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति पर यह गोवा के किसी एन.जी.ओ. के द्वारा दी गई जानकारी थी. सिम तुरन्त उसे खोल कर विस्तार से पढ़ने लगी. रिपोर्ट में पिछले दिनों गोवा में हुई कुछ ऐसी  आत्महत्याओं का जिक्र था जिनके परिवारों के बारे में गोवा की पुलिस के पास अभी तक कोई जानकारी नहीं थी. उनका अन्तिम संस्कार, उन्हें लावारिस मान कर वहाँ की पुलिस ने ही किया था.

साईट पर उनमें से कुछ के फोटो भी थे, जिनमें दो एक विदेशी चेहरों को छोड़ कर, ज्यादातर चेहरे भारतीय लोगों के ही थे. अब सिम हरेक फोटो को बड़े ध्यान से देख रही थी. तभी जैसे लैपटाप के मॉनिटर पर एक बिजली गिरी, सिम की आँखों से नींद अचानक ही गायब हो गई. वह एक फोटो को आँखें फाड़-फाड़ कर देख रही थी, उसका हाथ माउस पर जम गया था.

वह बुद्बुदा रही थी,‘यह! यह तो निखिल है, निखिल तरनेजा, ओ माई गाड निखिल इस डेड, कहीं मैंने देर तो नहीं कर दी?’

सिम ने रूमा की ईमेल आई डी पर फिर से एक मेल भेजा. पर मेल जैसे अनन्त आकाश में गोते लगा कर, मेसेज फेल्ड की रिपोर्ट के साथ वापस आ गया था. सिम के भीतर जैसे धीरे-धीरे कुछ टूट रहा था. उसके सामने कभी रूमा का मुस्कुराता चेहरा, तो कभी निखिल का इन्तज़ार करती, उसकी माँ की आँखें कौंध रही थीं. सिम ने कांपते हाथों से उस लिंक को दोबारा खोला. वह एक बार फिर से सारी तस्वीरें देख रही थी पर उनमें से किसी और चेहरे को वह नहीं पहचान सकी. वह फिर से निखिल की फोटो पर ही जाकर रुक गई थी.

………..

गोवा-

एक बड़ा पानी का बुलबुला था जिसके भीतर बैठे लोग बाहर की दुनिया से पूरी तरह कट चुके थे. उनके कानों में एक ही आवाज़ गूँज रही थी.

वह बड़े उदात्त स्वर में बोले जा रहा था, ‘सारे सवालों का एक ही जवाब है. समय आने पर इस दुनिया को अलविदा कह देना. सो ट्रस्ट मी.. वी हेव अ सोल्यूशन.’

‘वेलकम टू सुसाईड क्लब.’

‘ इस क्लब को ज्वायन करने का मतलब यह नहीं है कि तुम्हें आज ही मरना होगा. बल्कि आज से तुम्हें मौत में छुपा आनंद ढूँढ़ना है. तुम्हें उसको प्यार करना सीखना है. तुम्हें केवल जीने की नहीं मरने की जिम्मेदारी निभानी भी सीखनी होगी. अगर सच में इस संसार का भला चाहते हो, तो तुम इस जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते.’

‘लेकिन तुम्हें इन सब बातों पर यक़ीन कैसे होगा, तुम कैसे समझ पाओगे, कैसे भरोसा कर पाओगे कि कोई ख़ुशी-ख़ुशी मर सकता है. इसलिए हम यहाँ, इस सुसाईड क्लब में ‘फाईनल डे’ सेलीब्रेट करते हैं जिसमें हमारे कुछ साथी इस मिशन का ‘फाइनल स्टेप डिमोंसट्रेट’ करते हैं. वे दिखाते हैं कि वे मरने के लिए तैयार हैं और कभी भी एक इशारे पर इस संसार को अलविदा कह सकते हैं. वे दिखाते हैं कि यह सिद्धांत, मात्र सिद्धांत नहीं है बल्कि हम अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रहे हैं, पर उससे भी पहले हम उन साथियों को याद करते हैं जिनकी कुरबानियों ने हमे यहाँ तक पहुँचाया है.’ बोलते हुए उसने अपने एक हाथ से इशारा किया, तो हॉल की एक दीवार पर प्रोजेक्टर की सहायता से कुछ तस्वीरें उभरने लगीं.

एक-दो स्लाईड खिसकने के बाद जो तस्वीरें सामने आईं उनमें एक निखिल का चेहरा भी था. सिम के दिल की धड़कन तेज़ हो गई थीं, पता नहीं अगली स्लाईड में किसका चेहरा चमक उठे. पर तब तक प्रोजेक्टर थम गया था. तो क्या आज रूमा का नंबर था…

…………

दिल्ली-

सिम की थकी हुई उँगलियाँ अभी भी लेपटोप के की बोर्ड पर चल रही थीं. कर्सर अभी भी स्क्रीन पर धीरे- धीरे कुछ कुरेद रहा था. उसके हिलने से कई जानकारियाँ चमकतीं और लुप्त हो जातीं. तभी एक नाम जैसे किसी चमत्कार की तरह लेपटाप पर चमका, जिसे देखते ही कर्सर जड़ हो गया. सिम की उंगलियाँ सुन्न होने लगी. यह नाम प्रोफेसर दयाल का था. उसमें प्रो: दयाल के द्वारा आत्महत्या पर लिखी गई एक प्रतिबंधित किताब का भी जिक्र था. सिम को लग रहा था जैसे वह रूमा के बहुत पास पहुँच चुकी है. उसने आँखें बंद करके गर्दन पीछे टिका दी थी.

………….

गोवा-

सिम ने आँखें खोलीं तो देखा कि जहाज नीचे उतर रहा था. आसमान और समंदर के बीच खिंची बादलों की लकीर लुप्त हो गई थी. गोआ के तटों का विस्तार जहाज को अपनी ओर बड़ी तेज़ी से खींच रहा था…

वहाँ पहुँच कर बिना समय गंवाए सिम उस एन.जी.ओ. के दफ्तर पहुँच गई थी, जिसकी साईट पर उसने निखिल की फोटो देखी थी और प्रो: दयाल के शोध तथा उनकी प्रतिबन्धित पुस्तक के बारे में पढ़ा था. सिम ने एन.जी.ओ. के रिसेप्शन पर जाकर सीधा प्रो: दयाल के बारे में पूछा था. उनका नाम सुनते ही रिसेप्शनिस्ट ने उसे सामने लकड़ी के बने एक केबिन का रास्ता दिखा दिया था.

सिम के हाथों ने आने वाले लम्हे को टटोलते हुए केबिन के दरवाज़े पर दस्तक दी. जब भीतर से कोई आवाज़ नहीं आई तो दोबारा दस्तक देकर उसने दरवाज़े को पीछे धकेला. सामने एक अधेड़, पारसी महिला बैठी थी. सिम ने अभी प्रो: दयाल का नाम मुँह से निकाला ही था कि वह लगभग चीखते हुए बोली,‘ही इज़ अ स्कौन्ड्रल, हमारा उससे कोई कनेक्शन नहीं है, हमको नईं मालूम वो किधर है.’

सिम उसके इस व्यवहार से सकपका गई थी. वह उस केबिन से ही नहीं उस ऑफिस से भी बाहर आ गई. यहाँ पहुँचकर भी रूमा तक न पहुँच पाने की हताशा ने उसके दिल की धड़कनें बड़ा दी थीं. बड़ी मुश्किल से जो एक सिरा उसके हाथ आया था, वह भी अचानक ही उसके हाथ से फिसल गया था. वह बिना कुछ सोचे सड़क के किनारे चली जा रही थी. तभी पीछे से किसी ने उसे रुकने को कहा. सिम ने बड़े अविश्वास से मुड़ कर देखा था…

‘आपको अपने किसी ख़ास आदमी की तलाश है?’ अजनबी ने पास आकर सवाल किया.

‘हाँ! अपनी दोस्त रूमा को ढूँढ़ते हुए मैं यहाँ पहुँची हूँ.’

‘बिना कुछ बोले मेरे पीछे चलो. मैं जिस गाड़ी में बैठूँगा- चुपचाप उसमें बैठ जाना.’

सिम ने गहरे संशय से उसकी ओर देखा.

उसने आगे बढ़ते हुए कहा, ‘मैं अपनी मृत्यु के बहुत करीब हूँ, पर मैं बिलकुल भी दुखी नहीं हूँ. ऐसा करके आपको मेसेज मिला था न, बहुत अच्छे समय आई हो- आज ‘फाइनल डे’ है.’

सिम के मुँह से विस्मय से निकला, ‘फाईनल डे?’

‘हाँ, आज सूरज डूबने तक सब कुछ पूरा हो जाएगा.’ इतना कहकर वह आगे बढ़ गया था.

सिम तमाम सवाल दिमाग में समेटे उसके पीछे-पीछे चलने लगी. कुछ ही देर में वह एक ऐसे सफ़र पर थी, जिसपर निकलते ही उसकी आँखों पे पट्टी बांध दी गई थी.

एक-सवा घंटे लगातार दौड़ने के बाद, गाड़ी रुक गई थी…

जब उसकी आँखों से पट्टी उतारी गई, तब वह उस अजनबी के साथ एक अँधेरी सुरंग जैसे रास्ते पर आगे बढ़ रही थी. वह रास्ता एक छोटे इनडोर स्टेडियम की हॉल नुमा जगह में जाके खुला था. हॉल के बीचों-बीच छत पर लटकी लाईट से फर्श पर रोशनी का एक गोला बन रहा था, जिसके चारों ओर वृत्त्त में कुर्सियाँ पड़ी थीं. उसे यहाँ तक लानेवाला आदमी उसे पीछे की पंक्ति में एक कुर्सी पर बिठा कर चला गया था और उसके बाद वह कहीं नज़र नहीं आया था.

……………….

हॉल में फिर से पहले जैसा धुंधलका छा गया था. रोशनी फिर एक घेरे में सिमट आई थी. बूढ़े आदमी का स्वर बहुत ऊँचा हो गया था. सिम को लगा जैसे वह कोई मदारी है और वहाँ उपस्थित सभी लोग तमाशबीन जो देर-सबेर उसके इशारे पर नाचने वाले बंदर बनने वाले हैं.

वह अपने हाथ हवा में लहराते हुए बोल रहा था, ‘सो दिस इस व्हाट वी टीच- ‘आर्ट ऑफ डेथ’ वी टीच- हाउ टू डाई पीसफुली एंड परपज़फुली.’ यह कहते हुए उसने अपना चश्मा टेबल से उठाकर अपनी आँखों पर चढ़ा लिया और वह धीरे से मुस्कराते हुए, कुर्सियों के बीच की खाली जगह में से निकल कर सिम की तरफ बढ़ा.

उसके थोड़ा करीब आने पर सिम को लगा, वह इस मुस्कराहट को पहचानती है. मोटे लेंस के पार से उसकी आँखें और बड़ी, गहरी और भयावह लग रही थीं, सिम को लगा वह उन आँखों को भी पहचानती है. ये प्रोफ़ेसर दयाल की आँखें हैं, यह प्रोफ़ेसर दयाल ही हैं.. इस दौरान उनका हुलिया और आवाज़ दोनों ही बहुत बदल गए थे पर आँखें बिलकुल वही थीं- काली, गहरी और किसी रहस्य में डूबी.

सिम के पास पहुँच कर उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘हम लोगों को नहीं चुनते बल्कि लोग हमें चुनते हैं, वे हमें ढूँढ़ते हुए यहाँ आते हैं. और जब वे हमारी तरफ एक क़दम बढाते हैं तब हमारी जिम्मेदारी बन जाती है कि हम उन्हें उनकी मंजिल तक पहुँचाएं…’ उन्होंने अपनी जेब से एक स्कार्फ़ निकाल कर सिम की ओर बढ़ा दिया. वह बिलकुल वैसा ही था जैसा उसके बगल में बैठी स्त्रिओं ने अपने सिर पर बांध रखा था, गहरे भूरे रंग का. उन्होंने सिम के चेहरे पर झुकते हुए कहा, ‘इफ यू विल ट्रस्ट मी, आई प्रोमिस… वन डे यू विल लव टू डाई.’ सिम उस क्षण में उन्हें रोककर पूछना चाहती थी ‘रूमा कहाँ है?’ पर वह कुछ भी न पूछ सकी. वह वहाँ ऐसे बैठी थी जैसे सदियों से इसी तरह ख़ामोश बैठी कोई मूर्ति हो..

उसके बाद प्रो.दयाल रोशनी के घेरे में पहुँचकर ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगे, ‘हम मौत के पुजारी हैं, पर हम न तो मौत से डरते हैं और न ही रोज़  मरते हैं. हम रोज़  अपनी मौत जीते हैं. जो ज़िन्दगी को पूजते हैं, वो रात-दिन मरते हैं. बार-बार मरते हैं. मरने के बारे में किसी ने क्या ख़ूब कहा है कि आत्महत्या से सच्ची और कटु आलोचना जीवन की हो ही नहीं सकती. जो लोग ईश्वर मैं विश्वास रखते हैं और किसी वजह से उससे नाराज़ हैं उनके लिए आत्महत्या एक तरीका है कि वे उससे कह सकें कि देखो तुम मुझे यहाँ से नहीं निकाल रहे हो बल्कि मैं ख़ुद तुम्हारी दुनिया छोड़ के जा रहा हूँ.’

उन्होंने एक गहरी साँस ली और एक पल ठहर कर कहा, ‘वैसे भी एक समझदार आदमी हमेशा सफ़र के लिए तैयार रहता है और उसके लिए दुनिया में कोई स्थिति अजीब नहीं होती. तुम बताओ, जब कोई तुम्हें देखकर मुस्कराता है तो क्या करते हो, उसके प्रतिउत्तर में मुस्करा देते हो. बस ठीक यही हमें मौत के साथ भी करना है. मुस्कराना है और उसे प्यार से गले लगा लेना है. दुनिया के इस शोर को, इस कोलाहल को शांत करने का यही तरीका है, हँसते हुए इसको अलविदा कह देना. आज ‘फाइनल डे’ है और अब हमारे कुछ साथियों का हमसे विदा लेने का समय आ गया है. वे यहाँ से जाकर बचे हुए लोगों के लिए रास्ता बनाएंगे. हमेशा की तरह आज इस ‘फाईनल डे’ के बाद हम फिर अपना ठिकाना बदल देंगे. जो इस सफ़र में हमारे साथ हैं, उनसे मुलाक़ात होती रहेगी. कब? कैसे? कहाँ? इसकी चिंता उन्हें नहीं करनी है. उनके आगे रास्ता अपने आप बन जाएगा.’

हॉल में फिर से वॉयलिन बजने लगी. मटमैली-सी रोशनी में कुछ लोग आकर दीवार से सटकर खड़े हो गए. उन्होंने गहरे भूरे रंग के कपड़े पहने थे. उन सभी ने झुककर सबका अविवादन किया, फ़िर हवा में हाथ हिलाकर सबसे विदा ली. उसके बाद अपनी जेबों में से एक बड़ी पारदर्शी पॉलीथीन निकाली और अपना सिर उसमें डालते हुए उसे ऐसे पहन लिया, मानो अपने चेहरों को पैक करके किसी को भेंट करने वाले हों. आगे की पंक्ति में बैठे लोग उठकर उनकी मद्द करने लगे, उन्होंने चौंड़े टेप को उनकी गर्दनों के चारों ओर लपेटकर पालीथिनों के मुँह बंद कर दिए.

कुछ ही देर में उनके चेहरों पर पसीने की बूँदें चमकने लगीं, कुछ की आँखें उभरकर बड़ी हो गईं. कुछ आख़िरी साँस लेने के लिए अपना मुँह खोलकर उस थैली में बची रह गई हवा खींचने लगे. कुछ दर्द में भी मुस्कराने की कोशिश करने लगे… पर किसी ने भी उन थैलियों को अपने सिर से उतारकर, ख़ुद को बचाने की कोशिश नहीं की…

सिम हतप्रभ, यह सबकुछ अपने सामने होते हुए देख रही थी. उन चेहरों में उसे किसको ढूँढना था? वह यहाँ क्यों आई थी? वह भूल गई थी… लोगों का दम घुट रहा था, …साँसों की डोर छूट रही थी. उसे लगा कोई उसे आवाज़ दे रहा है, रूमा उसे बुला रही है, पर सारे चेहरे आपस में गड्ड-मड्ड हो रहे थे..

वॉयलिन की धुन एक इशारे से थम गई थी. गहरे भूरे रंग के कपड़े पहने लोग मुँह के बल ज़मीन पर पड़े थे…

प्रो.दयाल उन लोगों से आगे के सफ़र में साथ चलने का आह्वान कर रहे थे जो वहाँ पहली बार आए थे. वे लोग प्रोफेसर का दिया गहरे भूरे रंग का स्कार्फ़ अपने सिर पर बांधकर उनकी ओर बढ़ रहे थे.

सिम किसी सम्मोहन में बंधी, स्कार्फ़ हाथ में लिए खड़ी थी…वह आगे बढ़ना चाहती थी पर पैरों पर जैसे कई मन बोझ बंधा था, साँस नहीं आ रही थी, लगता था हवा में कोई गाड़ा तरल घुला हुआ है… प्रोफ़ेसर के वहाँ से निकलने के बाद, हॉल में बचे हुए लोग अलग-अलग दरवाज़ों से बाहर जा रहे थे. कुछ लोग मृतकों को स्ट्रेचर पर रखकर एक अलग दरवाज़े से निकल रहे थे. सिम को जैसे लाशों की वह धीरे-धीरे आगे खिसकती क़तार अपनी ओर खींच रही थी. वह उसके पीछे बढ़ी चली जा रही थी..

इसबार वे किसी सुरंग से बाहर निकलने के बजाय सीधे खुले आसमान के नीचे आ गए थे. दूर तक डूबते सूरज की रोशनी में तांबे के रंग में रंगी रेत फैली थी. वहाँ से बहुत दूर सूरज को छूने की कोशिश में लाल ज़मीन-आसमान के बीच समंदर की एक गहरी नीली लकीर उछाह मार रही थी. दरवाज़े के ठीक सामने ही खड़ी गाड़ी में शव बड़ी बेतरतीबी से रखे जा रहे थे. सिम उन सबसे लिपट के रोना चाहती थी, उनमें रूमा के न होने की बात को पुख्ता करना चाहती थी, उनमें से एक-एक की शिनाख्त करके उनके अपनों को उनकी मौत की खबर देना चाहती थी, या शायद उनके साथ मर जाना चाहती थी…तभी गाड़ी का दरवाज़ा बंद हो गया और वह हल्की-सी आवाज़ के साथ अपनी जगह से खिसकती हुई आँखों से ओझल हो गई.

वह आगे बढ़े, या पीछे मुड़े, सोच ही नहीं पा रही थी कि पीछे से किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा. कोई और समय होता तो सिम डर से चीख़ पड़ी होती, पर डर जैसे भीतर कहीं सूखके सिमट गया था.

यह वही आदमी था जिसने उसे यहाँ लाकर छोड़ दिया था. उसने डूबती हुई आवाज़ में कहा, ‘तुम जिसे ढूँढती हुई यहाँ आई हो वो यहाँ नहीं है. समझो कि वो कभी यहाँ आई ही नहीं थी. तुम उसके जिस मेसेज को पढ़के यहाँ पहुँची हो वो एक छलावा है’

बढ़ते झुटपुटे में भी सिम के चेहरे का विस्मय उसकी आँखों में केन्द्रत होकर चमक रहा था.

दिल्ली-

रूमा बड़ी कोशिशों के बाद अपने इमेल आईडी को रेस्टोर कर पाई थी. इस दौरान उसकी आईडी हैक करने वाले को उसने हज़ारों गालियाँ दी थीं. वह बड़ी बेचैनी से अपनी मेल चैक कर रही थी. हैकर ने उसकी आईडी से कुछ लोगों को मेल भेजी थी, लिखा था- ‘‘मैं अपनी मृत्यु के बहुत करीब हूँ, पर मैं बिलकुल भी दुखी नहीं हूँ, मैं स्वेक्षा से जीवन त्यागने और मृत्यु को चुनने के आनंद को समझ चुकी हूँ.’

उसे याद आया, वह इस लाइन को पहले भी सुन चुकी थी, ‘यह तो प्रो.दयाल के प्रोजेक्ट की टैग लाइन थी.., ओह नो.., तो क्या उस आदमी का पागलपन अभी तक चालू है.’ मेल में गोवा का ज़िक्र था, तो क्या दिल्ली में अधूरे रह गए अपने सोकाल्ड ‘मिशन’ को वह गोवा में पूरा कर रहा था.

रूमा ने उन लोगों के नाम चेक करने शुरू किए जिन्हें उसकी आईडी से मेल भेजे गए थे.

लिस्ट में सिम का नाम देखकर रूमा के भीतर कुछ काँप कर रह गया था. लगा और सब तो ऐसे मेल को हवा में उड़ा देंगे, पर ये सिम जैसी सेंटी लड़की न जाने इसे पढ़कर क्या कर बैठे…, कहीं मुझे ढूँढने के लिए गोवा ही न चली जाए…

गोवा-

वह आदमी जैसे मौत के इस क़ारोबार में बहुत पहले ही मर चुका था. उसने एक मरे हुए आदमी की आवाज़ में सिम से कहा कहा, ‘यूँ समझ लो कि रूमा की इमेल आईडी से वह मेल मैंने ही तुम्हें भेजा था. पर फिर न जाने किस वजह से मेरा दिमाग बदल गया और मैंने आगे कोई लिंक तुम्हें नहीं भेजा, पर तुम बिना किसी क्लू के रूमा को ढूँढती हुई यहाँ पहुँच जाओगी, मैंने नहीं सोचा था. निखिल तुम्हारे और रुमा के रिश्ते के बारे में जानता था. वह जानता था कि रूमा तुम्हारे लिए ऐसा करे न करे, तुम रूमा के लिए ऐसा कर सकती हो, …इससे पहले कि बहुत देर हो जाए तुम अपना निर्णय ले सकती हो.’ यह कहके वह सूर्यास्त की दिशा में बढ़ गया था.

…रेत का रंग मलिन होकर अँधेरे में बदल रहा था, उछाह मारती लहरें सूरज को निगल रही थीं, सिम मानो अकेली खड़ी, पृथ्वी का अंतिम सूर्यास्त देख रही थी.

 

-विवेक मिश्र, 123-सी, पॉकेट-सी, मयूर विहार फेस-2, दिल्ली-91

2 टिप्पणी

  1. साधुवाद, विवेक, बहुत अरसा पहले मैंने भी एक कहानी लिखी थी जिसमें लोग क़तार में खड़े हुए मौत के घाट उतारे जाने को उत्सुक खड़े थे। असल में, वह मेरा एक सपना था कि घंटाघर पर बेतहाशा भीड़ में भटक कर मैं एक ऐसी जगह आ खड़ी हुई जहां बहुत सी भद्दी काली मोटर्स में लोग एक तरफ़ से घुसते लेकिन कोई भी निकलते हुए नहीं दिख रहा था। मैंने एक भूढ़े आदमी से इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि दुनिया की आबादी इतनी बढ़ गयी है कि ज़रूरी है कि बेकार के लोग मर जाएं ताकि बचे हुए लोग ठीक से रह सकें। मुझे अपनी ज़िंदगी का भी कोी ख़ास मक़सद नहीं समझ आ रहा था इसलिए मैं उनके पीछे लाइन में खड़ी होगी, दिल धड़क रहा था। बाक़ी की कहानी मुझे बिलकुल याद नहीं।
    भयावह है किन्तु लगता है वो समय जल्दी ही आ पहुंचेगा..
    सस्नेह, दिव्या

  2. नमस्कार दिव्या जी,
    कहानी पर पोस्ट किया आपका कमेंट में पहले नहीं देख पाया।
    आपने कहानी पढ़ी, सराही आपका आभार।
    आपकी कहानी के बारे में जानकर अच्छा लगा।
    यह आज एक भयावह सत्य है जिसपर बात नहीं हो रही है।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.