Saturday, July 27, 2024
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चखना (लघुकथा) – गीतांजलि चटर्जी

चखना (लघुकथा)

  • गीतांजलि चटर्जी

शहर भर में नवजात शिशुओं की चोरी से अस्पताल और पुलिस परेशान थी। दो दिन की भूखी वो गूंगी अपने सद्य जन्मे बच्चे को छाती से भींचे रोटी की तलाश में उस भव्य हस्पताल को देखते हुए आगे बढ़ी ही थी कि पुलिस की गश्ती जीप उसके पास आकर रुकी और कड़कदार आवाज़ में उससे कुछ पूछा। गूंगी सहमकर उन्हें देखती रही। उसे जीप में बैठाकर थाने ले आई।

दूध से तरबतर कुर्ती पर थानेदार की आँखें चिपक गई। हवलदार ने डंडा फटकाते हुए कहा ‘ए किसका बच्चा है?’ गूंगी ने बच्चे को कसकर भीगे कुर्ते से चिपका लिया। मरियल सा वो शिशु किंकियाता हुआ आँखें मूंदे स्तनों को टटोलने लगा। “लगता है गूंगी है स्साली”। हवलदार ने चिढ़कर दोबारा डंडा फटकाया।

रात के नौ बजते ही थानेदार का बदन ऐंठने लगता है, हवलदार जानता था। पास के ढाबे से सुलेमान रोज़ की तरह आज भी सुर्ख साबुत तंदूरी मुर्ग साहब के टेबल पर धर गया। दो दिन की भूखी गूंगी की नज़र मुर्गे की पुष्ट सुर्ख़ रानों पर टिकी थी। “ए गूंगी खाएगी?” गूंगी ने ज़ोर से सर को हिलाया। थानेदार मुस्कुरा कर बोला “तू भी भूखी, मै भी भूखा। पेट वाली भूख तेरी, पेट के निचले हिस्से वाली भूख मेरी।  चल आपस में अपनी अपनी भूख बाँट लें, ठीक है ना”। व्हिस्की की बोतल और ग्लास को टेबल पर रखते हुए हवलदार ने पूछा “साब! कुछ और चखना ले आऊँ”?

थानेदार अपने गुलमूछों से मुस्कुराते हुए बोला, “आज तो बढ़िया चखना का इंतज़ाम हो गया”। अपनी गीली छातियों की दीवार पर थानेदार की आँखों की रेंगती छिपकली से बेख़बर गूंगी के पेट की भूख उसकी निगाहों से उतरकर अब भी मुर्गे की सुर्ख़ रानों पर टिकी थी।

गीतांजलि चटर्जी।

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