गिरती पलकों के मध्य
सिमट जाती मीलों की दूरी
उंगलियों से छू जाती है
होठों से पिघलती गीली हँसी
और नम हो जाता है
अंतर का थार
पलकों के कोरों से बह जाते हैं
अयनों से बीते
प्रतीक्षा के पलों की टीस
निर्मल हो जाता है
संशय से धूसरित मन
गोधूलि होते-होते
अचानक ही जैसे
होने लगता है सवेरा
खिल गया हो जैसे
तुम्हारे ललाट का सूरज

सुमन शर्मा
लखनऊ,उत्तर प्रदेश।

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