ग़ज़लें – प्रदीप कान्त
1
अच्छे अच्छे संभल न पाए
दोष समय ने जब गिनवाए
रिश्ते ऐसे निभते हैं क्या
उससे कहिये आए जाए
तुमने अगर ग़लत पूछी है
कौन पहेली फिर सुलझाए
उससे तो बेहतर है चुप्पी
बोल अगर जो व्यर्थ में जाए
कैसा ये क़िरदार अजब सा
आग लगा कर आग बुझाए
2
तब ही हम कंगाल हुए
जब तुम माला-माल हुए
तलवारों से लड़ लड़ कर
मोच पड़ी इक ढाल हुए
तेज़ धूप कुछ, कुछ अनुभव
श्वेत श्याम अब बाल हुए
रिश्ते टूट गए आखिर
जी का जब जंजाल हुए
हम तो बकरे रहे मियाँ
झटका हुए, हलाल हुए
चाँद उतरता फिर किस में
सूखे सारे ताल हुए
3
उजड़ गया सब, शेष खाक है
बाकी सब कुछ ठीक ठाक है
सही राह पर बच्चे हैं ना
सही सलामत अभी नाक है
हँसी आपको जिस पर आई
बात वही तो शर्मनाक है
वैसे भी है शाम का भोजन
अपनी यूँ भी कम खुराक है
रखते जिधर तुम्हारी फोटो
टूटी फूटी वही ताक है
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प्रदीप कान्त
जन्म- 22 मार्च 1968 (रावतभाटा, राजस्थान)
शिक्षा – भौतिकी व गणित में स्नातकोत्तर
प्रकाशन – जनसत्ता सहित्य वार्षिकी (2010), समावर्तन, वर्तमान साहित्य, बया, पाखी, कथादेश, विभोम स्वर, शिवना साहित्यकी, सम्बोधन, आदि साहित्यिक पत्रिकाओं व दैनिक भास्कर, पत्रिका, दैनिक जागरण आदि समाचार पत्रों में गज़लें व नवगीत प्रकाशित। अनुभूति, कविता कोश, रचना कोश आदि वेब साइट्स पर रचनाएँ संकलित।
कृति – क़िस्सागोई करती आँखें (ग़ज़ल संग्रह अगस्त 2012)
सम्प्रति – राजा रामन्ना प्रगत प्रोद्यौगिकी केन्द्र (परमाणु ऊर्जा विभाग), इन्दौर में वैज्ञानिक अधिकारी
ब्लॉग – तत्सम (http://pradeepkant.blogspot.com)
इमेल: [email protected], [email protected], मो: 94074 23354
डाक-पता: प्रदीप कान्त C/O श्री प्रमोद राधेश्याम, E-65, आर आर केट कॉलोनी, सेक्टर-5
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