व्यंग्य बेचारा अच्छे दिनों की आस में दम तोड़ रहा है । पूरे साहित्य में व्यंग्य ही तो है जिसने हर बुराई पर मुखर हो अपनी बात कही, वही तो है जिसने नेता अभिनेता किसी को नहीं छोड़ा.. हर गलत बात पर अपनी आवाज उठाई पर बेचारा खुद रजिया गुंडों में फंस गई की तर्ज पर ऐसे हाथों में फंस गया है जो उसका उद्धार करने में लगे हैं, अब तो सीधा गया जाकर ही रुकेंगे ।
पहले विधा है या नहीं इस लड़ाई में वर्षों उलझा रहा। उसके बाद हास्य को उसका दुश्मन बनाया जाने लगा जबकि व्यंग्य की मुहब्बत थी हास्य उसका शृंगार था हास्य जिसके बिना व्यंग्य कला फिल्मों की हीरोइन सा दिखता है । कुछ बेदर्द लेखकों ने भरसक प्रयास किया हास्य व्यंग्य दोनों को जुदा करने का भला हो उन लोगों का जिन्होंने उसके सौन्दर्य की कद्र की और दोनों को मिलवाया ।
इतने सालों के इंतजार के बाद भी व्यंग्य लगातार दर्द और बेरुखी का शिकार ही बनता रहा, हर कोई अपने हिसाब से उसकी तोड़ मरोड़ करता रहा थोड़ी बहुत जगह बनी ही थी कि फिर बुरी नीयत वालों का शिकार होने लगा जिन्होंने उसे पहचान दिलाई वे ही उसकी पहचान मिटाने पर लग गए । उसको अलग अलग हिस्सों में बाँट जाने लगा महिला, पुरुष ,गंभीर और अगंभीर कई हिस्से हुए ।
जो व्यंग्य की हत्या कर रहे थे उन्हे कंधे पर बिठाया जाने लगा, जो उसको बचाने में लगे उन्हे धकेल कर किनारे किया जाने लगा , । रही सही कसर व्यंग्य के चेलावाद ने पूरी कर दी है व्यंग्य गुरु अपने सड़ियल लिखने वाले चेले की दुकानदारी जमाने में लगे हैं । कुल मिलाकर मैला ढोने की परंपरा को व्यंग्य के जरिए पुनरुद्धार करके ही मानेंगे ।
व्यंग्य को सदगती देने का कार्य अखबारी संपादकों और लेखन के सीनियर लोगों ने अपने जिम्मे ले लिया । हर वो काम किया जाने लगा है जिससे व्यंग्य का नामों निशान मिट जाए । व्यंग्य कॉलम में कुछ भी छाप कर उसकी हस्ती मिटाई जाने लगी है और व्यंग्य बेचारा अपनों से ही चोट खाकर घायल हो कहानी और कविताओं को भी अपनी तरफ आते देख रहा है और सुबक रहा है ।