लोकतंत्र आम आदमी को यह मौक़ा देता है कि वह अपने देश का प्रधानमंत्री बन सके। हर इन्सान सपने देख सकता है और उन सपनों को अपने ही जीवन काल में पूरा होते देख सकता है। लोकतंत्र के कारण ही लाल बहादुर शास्त्री, गुलज़ारी लाल नंदा, मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन पाए। लोकतंत्र के कारण ही ब्रिटेन, युरोप, अमरीका और कनाडा जैसे देशों में विकलांगों को जीवन में बराबर के अवसर मिल पाते हैं। हाल ही में विकलांग ओलम्पिक खेल प्रमाण हैं कि लोकतंत्र में मौक़ा सबको मिलता है बस उसे हासिल करने की आंतरिक शक्ति पास में होनी चाहिये।
इस वर्ष 15 सितम्बर को लोकतंत्र दिवस आया भी और चला भी गया और शायद किसी को पता भी नहीं चला। जानकारी के लिये बताता चलूं कि अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस 2021 के लिये मुख्य थीम रखा गया – “भविष्य के संकटों का सामना करने में लोकतांत्रिक लचीलेपन को मज़बूत करना। (Strengthening democratic resilience in the face of future crisis.)”
दरअसल अफ़ग़ानिस्तान के मसले ने पूरी दुनिया को कुछ यूं उलझा रखा है कि बहुत सी बातों की ओर ध्यान ही नहीं जा रहा। हुआ कुछ यूं कि वर्तमान युग के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश अमरीका और उसके साथी नेटो देशों ने 15 सितम्बर से सोलह दिन पहले ही अफ़ग़ानिस्तान को आतंकवादी संगठन तालिबान और हक्कानी गुट के हवाले करते हुए वहां से पलायन कर लिया।
ज़ाहिर है कि इन देशों के मन में अपराध बोध का प्रेत अवश्य ही अपना फन उठा रहा होगा। शायद इसीलिये 15 सितम्बर को लोकतंत्र के तराने नहीं गाये गये।
यह विश्वास किया जाता रहा है कि लोकतंत्र का आविष्कार ग्रीस में हुआ था। मगर न्युयॉर्क विश्वविद्यालय के डीन एवं प्रोफ़ेसर डेविड स्टासावेज ने अपनी पुस्तक ‘दि डिक्लाइन एण्ड राइज़ ऑफ़ डेमॉक्रेसी’ में लिखा है कि लोकतंत्र की व्यवस्था तो आदिकाल से चली आ रही है। रामायण में भी दिखाया गया है कि एक धोबी की आपत्ति पर राजा राम ने लोकरंजन की प्रतिज्ञा का पालन करते हुए अपनी गर्भवती पत्नी सीता का त्याग कर उन्हें महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहने को भेज दिया था। यानी कि हर काल में लोकतंत्र के अर्थ भी समय-समय के अनुसार बदलते रहे।
प्रोफ़ेसर डेविड स्टासावेज का मानना है कि सामाजिक एवं आर्थिक स्थितियों के चलते समय-समय पर लोकतांत्रिक व्यवस्था की सरकारें बनती बिगड़ती रही हैं।
अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस एक प्रस्ताव के जरिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में 8 नवंबर 2007 को लोकतंत्र की सोच को प्रोत्साहित करने और मजबूत करने के लिए पारित किया गया था। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार लोकतंत्रीय समाज में मानवाधिकारों और कानूनों के नए नियम की हमेशा रक्षा की जाती है। वैसे इसकी नींव 15 सितम्बर 1997 को अंतर संसदीय संघ (IPU) की घोषणा के ज़रिए डाल दी गयी थी।
हम सब इस बात से परिचित हैं कि लोकतंत्र एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें किसी भी देश के नागरिक अपने मताधिकार का प्रयोग करके अपने प्रतिनिधि को चुनते हैं। लोकतंत्र का मतलब होता है, न कोई राजा और न कोई गुलाम इसमें सब एक समान हैं। हर व्यक्ति को अपनी बात रखने का अधिकार है। प्रसिद्ध विचारक और अमरीका के भूतपूर्प राष्ट्रपति अब्राहम लिकंन ने इसकी परिभाषा देते हुए कहा था कि लोकतंत्र का मतलब होता है, “जनता द्वारा जनता का शासन”। लोकतंत्र दिवस का मुख्य उद्देश्य पूरे विश्व में लोकतंत्र को बढ़ावा देना है।
अधिकांश इस्लामिक देशों में लोकतंत्र को मान्यता नहीं मिल पाई है क्योंकि वहां शरीयत के हिसाब से राजकाज चलाया जाता है। इतिहास गवाह है कि पहले हर देश में राजा, रानी, युवराज, सेनापति आदि-आदि हुआ करते थे। समय के साथ-साथ इन्सान की सोच अधिक परिष्कृत हुई। शायद इसी कारण लोकतंत्र पूरी शिद्दत से उभर कर सामने आया। भ्रष्टाचार राजशाही में भी होता था और लोकतंत्र में भी होता है। मंत्री और सभासद उस ज़माने में भी घोटालेबाज़ थे तो खद्दरधारी भी इसमें पीछे नहीं हैं।
मगर एक प्रश्न हम सब के सामने मुंह बाए खड़ा है कि क्या हर देश में लोकतंत्र सफल हो पाएगा। क्या यह शासन चलाने का सबसे कारगर तरीका है?
भारत में स्वतंत्रता के बाद 1947 से ही लोकतांत्रिक तरीके को अपनाया गया। मगर आज भारत के लोकतंत्र को त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र कहा जाता है – ‘Flawed Democracy!’ कहीं ऐसा भी लगता है कि लोकतंत्र अपनाने से पहले किसी भी देश को आर्थिक रूप से मज़बूत होना पहली शर्त हो सकती है।
इस मामले में सबसे बेहतरीन उदाहरण है सिंगापुर का। ली क्वान यू वहां के पहले प्रधानमंत्री थे। 16 सितम्बर 1923 को जन्मे ली क्वान यू 3 जून 1959 से 28 नवम्बर 1990 तक सिंगापुर के प्रधानमंत्री रहे। सिंगापुर को छोटे बंदरगाह से कारोबार का वैश्विक केंद्र बनाने का श्रेय उनको ही दिया जाता है। वे वर्ष 2011 तक सरकार में सक्रिय रहे।
सत्ता पर लगातार पकड़ बनाये रखने के लिए उनकी आलोचना भी की जाती है। उनके शासन के दौरान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कठोरता के साथ प्रतिबंध लगाया गया और अदालतों ने उनके राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाया। मगर ली क्वान यू जानते थे कि देश को यदि सही राह पर ले जाना है तो पहले जनता में अनुशासन लाना होगा। जब तक जनता परिपक्व और ज़िम्मेदार नहीं हो जाती और देश आर्थिक रूप से मज़बूत नहीं हो जाता तो देश में लोकतंत्र लागू करना बंदर के हाथ में उस्तरा देने वाली कहावत को चरितार्थ कर देगा।
चीन ने लोकतंत्र अपनाए बिना ही वैश्विक ताकत बन कर दिखाया है। वहां निरंकुश सत्ता एक पार्टी की है मगर विश्व के साथ व्यापार करने में उन्होंने पूंजीवाद को पूरी तरह से अपनाया हुआ है। यानी कि वहां साम्यवाद और पूंजीवाद का मिक्सचर है।
मैं पहली बार सिंगापुर 1978 में गया था। शहर गंदगी से भरपूर था। मैं अंतिम बार सिंगापुर 1998 में गया था। उन बीस वर्षों में मैंने सिंगापुर को बदलते हुए देखा है। सड़क पर थूकने और च्युंगम खा कर फेंकने पर भी फ़ाइन हो जाता था। पूरे सिंगापुर में च्युंगम पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। सफ़ाई का इतना ख़्याल रखा जाता था। आज सिंगापुर सफ़ाई, कमाई और लोकतंत्र के मामले में विश्व का अव्वल देश है। ली कुआन यू के बेटे ली सियन लूंग सिंगापुर के वर्तमान प्रधानमंत्री हैं।
लोकतांत्रिक देशों में महिलाओं को बेहतर दर्जा मिलता है। वे जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल सकती हैं। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तो वे बहुत पहले बन चुकी थीं अब तो वे पायलट, सैनिक और खगोल की तरफ़ भी अपने क़दम बड़ा चुकी हैं। विश्व के सबसे ताकतवर देश अमरीका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस एक भारतीय मूल की महिला हैं।
सिरिमा बन्दरानाइक (प्रधानमंत्री – श्रीलंका), इंदिरा गान्धी (प्रधानमंत्री – भारत), मार्ग्रेट थैचर (प्रधानमंत्री – ब्रिटेन), गोल्डा मायर (प्रधानमंत्री – इज़राइल), बेनज़ीर भुट्टो (प्रधानमंत्री – पाकिस्तान), चंद्रिका कुमारतुंगा (राष्ट्रपति – श्रीलंका), प्रतिभा पाटिल (राष्ट्रपति – भारत) सामिया सुलुहू हसन (तंज़ानिया), एलेन जॉनसन सरलीफ (लाइबेरिया), जायसी बांदा (मलावी), साहले वर्क ज्वडे (इथियोपिया), अमिना गुरीब-फकीम (मॉरीशस), काजा कलास (एस्टोनिया), न्यूज़ीलैंड की वर्तमान प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्डर्न कुछ ऐसे नाम हैं जो अपने अपने देशों की प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनने में सफल रहीं।
हालांकि इंदिरा गान्धी, बेनज़ीर भुट्टो और चंद्रिका कुमारतुंगा पर वंशवाद का आरोप लगाया जा सकता है मगर फिर भी वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुन कर अपने अपने देश की नेता बनीं।
लोकतंत्र आम आदमी को यह मौक़ा देता है कि वह अपने देश का प्रधानमंत्री बन सके। हर इन्सान सपने देख सकता है और उन सपनों को अपने ही जीवन काल में पूरा होते देख सकता है। लोकतंत्र के कारण ही लाल बहादुर शास्त्री, गुलज़ारी लाल नंदा, मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन पाए। लोकतंत्र के कारण ही ब्रिटेन, युरोप, अमरीका और कनाडा जैसे देशों में विकलांगों को जीवन में बराबर के अवसर मिल पाते हैं। हाल ही में विकलांग ओलम्पिक खेल प्रमाण हैं कि लोकतंत्र में मौक़ा सबको मिलता है बस उसे हासिल करने की आंतरिक शक्ति पास में होनी चाहिये।
संदर्भ सहित सम्पादकीय ने लोकतंत्र दिवस को ,साथ ही लोक तंत्र को ख़ूबसूरती से परिभाषित किया है।
लोकतंत्र में कोई भी व्यक्ति वह आम आदमी हो ,विकलांग हो सभी को तरक्की के अवसर मिलते हैं यदि उसमें हौसला और
जज़्बा हो ,सटीक और सार्थक विचार दिया ।
साधुवाद
Dr Prabha mishra
तर्कसंगत टिप्पणियाँ। यहाँ तो हम लोग हिंदी दिवस मनाने में इतना व्यस्त हो जाते हैं कि लोकतंत्र दिवस का ध्यान ही नहीं रहता।आपका यह मम्पादकीय अत्यंत महत्वपूर्ण है।
दुनिया में कहीं कोई शोर नहीं हुआ और लोकतंत्र दिवस चला गया यानी लोकतंत्र को पुनः परिभाषित करने की सार्थकता पर सम्पादकीय ध्यानाकर्षित कर रही है।
डर Prabha mishra
लोकतन्त्र
“जनता द्वारा जनता का शासन”
जनता अपना प्रतिनिधि चुने, चुने हुए प्रतिनिधि अपना नेता चुने और वो नेता शासन करे। परन्तु वास्तविक रूप से ऐसा होता ही नहीं। इस प्रक्रिया पहले ही परिणाम आजाये की नेता कौन होगा, दूसरे दिन औपचारिकता के नाते खानापूर्ति करने के एक बैठक और उसमें बिना प्रजा तान्त्रिक प्रक्रिया के पूर्व घोषित नेता का नाम प्रस्तावित कर अनुमोदन कर ध्वनिमत से विजयी घोषित कर लोकतन्त्र का विधिवत मखोल बनाया जाता है। लोकतन्त्र,
अब ये शब्द कुछ ठगा सा और हास्यास्पद लगने लगा, विष्व लोकतन्त्र दिवस पर दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र कहलाने वाले देश में लोकतन्त्र दूर दूर तक ढूँढने पर भी नहीं। सम्विधान की तो बात ही न कि जाय जिसके मूलभूत सिद्धान्त को ही ताक पर रख दिया। ऐसा लगता है कि प्रधानमन्त्री तो अमरीका की तर्ज़ पर सीधे जनता द्वारा चुना जाता है। मुख्यमन्त्री तो सत्ताधारी राजनीतिक दल के अद्ध्यक्ष और उनकी कोटरी द्वारा, जिसे आलाकमान कहते हैं, राज्यों पर थोपा जाता। और इन राजनीतिक पार्टीयों पर सर्वाधिक चन्दा देनेवाले पूँजी पति अपना वर्चस्व चलाते हैं। जो प्रतिनिधि जनता द्वारा एक बार चुन लिया जाता है, वह फोर पांच साल बाद अगले चुनाव में ही आता है। मतदाता/ जनता के साथ जो व्यवहार किया जाता है वो लोकतन्त्र के नाम पर कलंक है। लोकतन्त्र के तीन स्तंभों में से दो विधयिका और कार्यपालिका तो शासन को अपनी बपौती समझते हैं, तीसरा स्तम्भ न्यायपालिका को अपँग बना रखा है। औऱ unofficial चौथा स्तम्भ कहलानेवाला मीडिया तो ख़रीदे हुए ग़ुलाम की तरह काम करता है।
अब इन परिस्थितियों में विश्व लोकतन्त्र दिवस मनाया जाने में ये समझ मे नहीं आता कि कौन किसकी आँखों में धूल झोंक रहा है। इस जशन पर मैं नाचूँ तो ऐसा महसूस होगा कि – बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना !
ऐसे मतदाता को मुश्किल है समझाना !!
भारतीय इतिहास में लोकतंत्र अथवा गणतंत्र का उल्लेख तो चाणक्य के काल में ही हो चुका था! वर्तमान में भार।त के लोकतंत्र की आंशिक असफलता का कारण यहां की अशिक्षा को जाता है, यह मेरा मानना है आर्थिक स्थिति भी कुछ हद तक इस बात के लिए उत्तरदायी हो सकती है। पीड़ा का कारण यह है कि भारत में आज भी यथा राजा तथा प्रजा की कहावत चरितार्थ हो रही है और विडंबना यह है कि गणतंत्र मेंराजा और प्रजा अनन्योआश्रित हैं।
हमेशा की तरह बहुत सारगर्भित संपादकीय लेखन और विषय है . विकलांग दिवस से उड़ान भरते हुए लोकतन्त्र, शिक्षा, अनुशासन, आर्थिक निर्भरता, प्रगति, सभी पक्ष छू लिए और चेतना भी जागृत की है
यहीं है संपादकीय दायित्व. आपको साधुवाद तेजेन्द्र जी.
लोकतंत्र दिवस और लोकतंत्र के बारे में जानकारी देता हुआ विचारपूर्ण लेख के लिए बधाई । भारत में लोकतंत्र प्राचीनकाल से है जैसा सरोजिनी जी ने लिखा, परन्तु सारी परिभाषाओं का श्रेय विदेशों के दिए जाने का सुनियोजित षडयंत्र चलता रहा है, क्योंकि भारत की ग़ुलामी का लंबा इतिहास है।
लोकतंत्र को लेकर मेरे विचार भिन्न हैं, सम्भवतः लोकतंत्र कोई अचूक नुस्खा नहीं है जो हर देश में सफल हो। यदि बहुमत एक दल को मिलता है तो कुछ सफलता मिलती है, यदि कई दल मिल कर सरकार बनाते हैं, तो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार की तरह अजीबोगरीब तरीके से राष्ट्र चलता है।
बिना एक सशक्त शासक के कोई देश सुचारु रूप से नहीं चल सकता, और यहीं लोकतंत्र, राजशाही में बदल जाता है, भारत में कांग्रेस का और सिंगापुर का शासन (जो आपने उदाहरण दिया) , लोकतंत्र की परिभाषा में खरा नहीं उतरता।
बहुमत से बनी मायावती सरकार को उत्तर प्रदेश ने झेला है, जब सिर्फ़ हाथी की मूर्तियां लगीं।
राज्य, राजदंड बिना नहीं चलता।अशिक्षित जनता के साथ तो बिल्कुल नहीं। इसलिए लोकतंत्र की सफलता ऐसे आदर्श देश में सम्भव है जहाँ जनता बहुत जानकर और जागरूक हो, शासक आदर्श और लोभ मुक्त। ऐसे आदर्श वास्तविकता में होते नहीं, इसीलिए लोकतंत्र “पारिभाषिक रूप में” चलता नहीं.
#शैली
In continuation of my previous response to today’s Editorial of Tejendra ji,I wish to add that he makes a very valid point by speaking of DEMOCRACY as a medium of self expression for even the resourceless person who has a vision.
His references to the lack of it in Islamic countries is well founded.
Congratulations Tejendra ji for this discourse
Deepak Sharma
लोक जब तक लोकतंत्र के प्रति जागरूक नहीं होंगे, लोकतंत्र मात्र एक शब्द से अधिक अपने महत्व को परिभाषित नहीं कर सकेगा। आदरणीय तेजेन्द्र जी सुंदर विवेचन किया है आपने
लोकतंत्र का विश्लेषणात्मक लेखन संपादकीय में। और वर्तमान में लोकतंत्र की स्थिति बनाये रखने हेतु अफगानिस्तान का उदाहरण देते हुए लोक समुदाय को सचेत किया। हार्दिक आभार संपादक महोदय।
सटीक और सारगर्भिता लिए हुए सुंदर आलेख लिखा आपने। वैसे तो लोकतंत्र की स्थापना वास्तव में पूरे विश्व की संकल्पना होनी चाहिए, लेकिन शायद यह कठिन ही नहीं कुछ अर्थों में अकल्पनीय भी लगता है। विश्व समुदाय के बीच भारत को सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने के बाद भी इसे त्रुटिपूर्ण माना जाता है, आपकी यह बात सही है। आपने आलेख में जिस तरह लोकतंत्र के महत्व और विश्व भर में इसकी स्थापना पर अपनी गहरी दृष्टि डाली है वह सरहानीय हैं। जानकारी से भरपूर और पढ़ने योग्य इस आलेख के लिए सहज ही आप बधाई के पात्र हैं।
बहुत सार्थक एवं विचारोत्तेजक लेख पढ़ने को मिला । लचीलापन किसी भी शासन व्यवस्था के दीर्घकालीन अस्तित्व के लिए अत्यंय आवश्यक है । लचीलेपन की अनुपस्थिति में किसी भी व्यवस्था का अंत निश्चित ही होता है । शिक्षा, जागरूकता और अनुशासन लोकतंत्र के सुचारू क्रियान्वन के लिये संचालक का कार्य करते हैं ।
इस सत्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि एक सक्षम शासक ही देश में शान्ति और प्रगति ला सकता है । मात्र बहुमत उसकी योग्यता का परिचय नहीं हो सकते वरन् दूरदर्शी नीतियां और उनका सफल निष्पादन ही उसके सामर्थ्य को और देश के भविष्य को परिभाषित करते हैं ।
इस ज्ञानवर्धन लेख के लिए तेजेन्द्र सर को धन्यवाद ….साधुवाद !
दुनिया के बनते बिगड़ते सम्बन्धों के बीच लोकतंत्र के महत्त्व को बड़ी ही संजीदगी से अभिव्यक्त करता यह लेख बहुत ही तथ्यात्मक और विश्लेषणात्मक है ..इस समय ऐसे लेख की बेहद जरूरत है….एक सार्थक लेख हेतु आपको दिल से धन्यवाद बड़े भाई
सारगर्भित आलेख यह जानकर अच्छा लगा कि किसी भी देश पर लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू करने से पहले उस देश को आर्थिक दृष्टि से मजबूत हो जाना चाहिए। मुझे लगता है कि लोकतंत्र केवल भाषाई स्तर पर एवं कागजी स्तर पर ही लागू ना हो। त्रेता युग का वर्णन करते हुए आपने जो लिखा है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा करते हुए ही राम ने अपनी पत्नी सीता का त्याग कर दिया था, यह सोचनीय विषय है कि क्या वर्तमान लोकतंत्र में ऐसे त्याग की भावना परिलक्षित होती है ? ्
कई नयी जानकारियाँ देने वाला आपका सम्पादकीय निस्संदेह स्वागत योग्य है। विश्व लोकतंत्र दिवस के प्रति उदासीनता के लिए चिंता व्यक्त करने वाला आपका सार्थक विचार जागरूक करता है। आज भारत सहित अन्य देशों को भी लोकतंत्र का सही और व्यावहारिक अर्थ समझने की आवश्यकता है, जिसे साहित्यकार की लेखनी से बेहतर और कौन समझाए सकता है !!!
शानदार तथ्यात्मक सटीक आलेख सर
धन्यवाद विनय जी
शानदार और सार्थक लेख – बधाई तेजेंद्र जी
धन्यवाद विनोद जी
वैचारिक आलेख। वास्तव में यह समय संक्रमण काल है। जो आगे के दस वर्षों बाद विश्व की राजनीति को नया स्वरूप देगा। और लोकतंत्र सबसे अधिक मजबूत होगा।
धन्यवाद समीक्षा जी।
संदर्भ सहित सम्पादकीय ने लोकतंत्र दिवस को ,साथ ही लोक तंत्र को ख़ूबसूरती से परिभाषित किया है।
लोकतंत्र में कोई भी व्यक्ति वह आम आदमी हो ,विकलांग हो सभी को तरक्की के अवसर मिलते हैं यदि उसमें हौसला और
जज़्बा हो ,सटीक और सार्थक विचार दिया ।
साधुवाद
Dr Prabha mishra
तर्कसंगत टिप्पणियाँ। यहाँ तो हम लोग हिंदी दिवस मनाने में इतना व्यस्त हो जाते हैं कि लोकतंत्र दिवस का ध्यान ही नहीं रहता।आपका यह मम्पादकीय अत्यंत महत्वपूर्ण है।
शशिकला जी धन्यवाद।
प्रभा जी आपका निरंतर समर्थन बहुत बल देता है।
दुनिया में कहीं कोई शोर नहीं हुआ और लोकतंत्र दिवस चला गया यानी लोकतंत्र को पुनः परिभाषित करने की सार्थकता पर सम्पादकीय ध्यानाकर्षित कर रही है।
डर Prabha mishra
धन्यवाद प्रभा जी
लोकतन्त्र
“जनता द्वारा जनता का शासन”
जनता अपना प्रतिनिधि चुने, चुने हुए प्रतिनिधि अपना नेता चुने और वो नेता शासन करे। परन्तु वास्तविक रूप से ऐसा होता ही नहीं। इस प्रक्रिया पहले ही परिणाम आजाये की नेता कौन होगा, दूसरे दिन औपचारिकता के नाते खानापूर्ति करने के एक बैठक और उसमें बिना प्रजा तान्त्रिक प्रक्रिया के पूर्व घोषित नेता का नाम प्रस्तावित कर अनुमोदन कर ध्वनिमत से विजयी घोषित कर लोकतन्त्र का विधिवत मखोल बनाया जाता है। लोकतन्त्र,
अब ये शब्द कुछ ठगा सा और हास्यास्पद लगने लगा, विष्व लोकतन्त्र दिवस पर दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र कहलाने वाले देश में लोकतन्त्र दूर दूर तक ढूँढने पर भी नहीं। सम्विधान की तो बात ही न कि जाय जिसके मूलभूत सिद्धान्त को ही ताक पर रख दिया। ऐसा लगता है कि प्रधानमन्त्री तो अमरीका की तर्ज़ पर सीधे जनता द्वारा चुना जाता है। मुख्यमन्त्री तो सत्ताधारी राजनीतिक दल के अद्ध्यक्ष और उनकी कोटरी द्वारा, जिसे आलाकमान कहते हैं, राज्यों पर थोपा जाता। और इन राजनीतिक पार्टीयों पर सर्वाधिक चन्दा देनेवाले पूँजी पति अपना वर्चस्व चलाते हैं। जो प्रतिनिधि जनता द्वारा एक बार चुन लिया जाता है, वह फोर पांच साल बाद अगले चुनाव में ही आता है। मतदाता/ जनता के साथ जो व्यवहार किया जाता है वो लोकतन्त्र के नाम पर कलंक है। लोकतन्त्र के तीन स्तंभों में से दो विधयिका और कार्यपालिका तो शासन को अपनी बपौती समझते हैं, तीसरा स्तम्भ न्यायपालिका को अपँग बना रखा है। औऱ unofficial चौथा स्तम्भ कहलानेवाला मीडिया तो ख़रीदे हुए ग़ुलाम की तरह काम करता है।
अब इन परिस्थितियों में विश्व लोकतन्त्र दिवस मनाया जाने में ये समझ मे नहीं आता कि कौन किसकी आँखों में धूल झोंक रहा है। इस जशन पर मैं नाचूँ तो ऐसा महसूस होगा कि – बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना !
ऐसे मतदाता को मुश्किल है समझाना !!
कैलाश भाई आप आजकल संपादकीय हर सप्ताह पढ़ रहे हैं। हिम्मत मिलती है।
भारतीय इतिहास में लोकतंत्र अथवा गणतंत्र का उल्लेख तो चाणक्य के काल में ही हो चुका था! वर्तमान में भार।त के लोकतंत्र की आंशिक असफलता का कारण यहां की अशिक्षा को जाता है, यह मेरा मानना है आर्थिक स्थिति भी कुछ हद तक इस बात के लिए उत्तरदायी हो सकती है। पीड़ा का कारण यह है कि भारत में आज भी यथा राजा तथा प्रजा की कहावत चरितार्थ हो रही है और विडंबना यह है कि गणतंत्र मेंराजा और प्रजा अनन्योआश्रित हैं।
सरोजिनी जी आपने सही मुद्दा उठाया है
हमेशा की तरह बहुत सारगर्भित संपादकीय लेखन और विषय है . विकलांग दिवस से उड़ान भरते हुए लोकतन्त्र, शिक्षा, अनुशासन, आर्थिक निर्भरता, प्रगति, सभी पक्ष छू लिए और चेतना भी जागृत की है
यहीं है संपादकीय दायित्व. आपको साधुवाद तेजेन्द्र जी.
आपकी सारगर्भित टिप्पणी ने संपादकीय को गरिमा प्रदान की है डॉ. खुराना।
Thank you Tejendra ji for holding forth such an informative and thought provoking Editorial of today.
Thanks Deepak ji
लोकतंत्र दिवस और लोकतंत्र के बारे में जानकारी देता हुआ विचारपूर्ण लेख के लिए बधाई । भारत में लोकतंत्र प्राचीनकाल से है जैसा सरोजिनी जी ने लिखा, परन्तु सारी परिभाषाओं का श्रेय विदेशों के दिए जाने का सुनियोजित षडयंत्र चलता रहा है, क्योंकि भारत की ग़ुलामी का लंबा इतिहास है।
लोकतंत्र को लेकर मेरे विचार भिन्न हैं, सम्भवतः लोकतंत्र कोई अचूक नुस्खा नहीं है जो हर देश में सफल हो। यदि बहुमत एक दल को मिलता है तो कुछ सफलता मिलती है, यदि कई दल मिल कर सरकार बनाते हैं, तो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार की तरह अजीबोगरीब तरीके से राष्ट्र चलता है।
बिना एक सशक्त शासक के कोई देश सुचारु रूप से नहीं चल सकता, और यहीं लोकतंत्र, राजशाही में बदल जाता है, भारत में कांग्रेस का और सिंगापुर का शासन (जो आपने उदाहरण दिया) , लोकतंत्र की परिभाषा में खरा नहीं उतरता।
बहुमत से बनी मायावती सरकार को उत्तर प्रदेश ने झेला है, जब सिर्फ़ हाथी की मूर्तियां लगीं।
राज्य, राजदंड बिना नहीं चलता।अशिक्षित जनता के साथ तो बिल्कुल नहीं। इसलिए लोकतंत्र की सफलता ऐसे आदर्श देश में सम्भव है जहाँ जनता बहुत जानकर और जागरूक हो, शासक आदर्श और लोभ मुक्त। ऐसे आदर्श वास्तविकता में होते नहीं, इसीलिए लोकतंत्र “पारिभाषिक रूप में” चलता नहीं.
#शैली
Shaily जी आपने लेख पर विस्तृत टिप्पणी दे कर हौसला बढ़ाया है।
In continuation of my previous response to today’s Editorial of Tejendra ji,I wish to add that he makes a very valid point by speaking of DEMOCRACY as a medium of self expression for even the resourceless person who has a vision.
His references to the lack of it in Islamic countries is well founded.
Congratulations Tejendra ji for this discourse
Deepak Sharma
Deepak ji your regular reactions to the editorial are very helpful. Thanks.
लोक जब तक लोकतंत्र के प्रति जागरूक नहीं होंगे, लोकतंत्र मात्र एक शब्द से अधिक अपने महत्व को परिभाषित नहीं कर सकेगा। आदरणीय तेजेन्द्र जी सुंदर विवेचन किया है आपने
धन्यवाद सुषमा जी
लोकतंत्र का विश्लेषणात्मक लेखन संपादकीय में। और वर्तमान में लोकतंत्र की स्थिति बनाये रखने हेतु अफगानिस्तान का उदाहरण देते हुए लोक समुदाय को सचेत किया। हार्दिक आभार संपादक महोदय।
सटीक और सारगर्भिता लिए हुए सुंदर आलेख लिखा आपने। वैसे तो लोकतंत्र की स्थापना वास्तव में पूरे विश्व की संकल्पना होनी चाहिए, लेकिन शायद यह कठिन ही नहीं कुछ अर्थों में अकल्पनीय भी लगता है। विश्व समुदाय के बीच भारत को सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने के बाद भी इसे त्रुटिपूर्ण माना जाता है, आपकी यह बात सही है। आपने आलेख में जिस तरह लोकतंत्र के महत्व और विश्व भर में इसकी स्थापना पर अपनी गहरी दृष्टि डाली है वह सरहानीय हैं। जानकारी से भरपूर और पढ़ने योग्य इस आलेख के लिए सहज ही आप बधाई के पात्र हैं।
विरेन्द्र भाई आपने संपादकीय पर गहरी दृष्टि डाली है। धन्यवाद।
बहुत सार्थक एवं विचारोत्तेजक लेख पढ़ने को मिला । लचीलापन किसी भी शासन व्यवस्था के दीर्घकालीन अस्तित्व के लिए अत्यंय आवश्यक है । लचीलेपन की अनुपस्थिति में किसी भी व्यवस्था का अंत निश्चित ही होता है । शिक्षा, जागरूकता और अनुशासन लोकतंत्र के सुचारू क्रियान्वन के लिये संचालक का कार्य करते हैं ।
इस सत्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि एक सक्षम शासक ही देश में शान्ति और प्रगति ला सकता है । मात्र बहुमत उसकी योग्यता का परिचय नहीं हो सकते वरन् दूरदर्शी नीतियां और उनका सफल निष्पादन ही उसके सामर्थ्य को और देश के भविष्य को परिभाषित करते हैं ।
इस ज्ञानवर्धन लेख के लिए तेजेन्द्र सर को धन्यवाद ….साधुवाद !
— रचना सरन
रचना आपने मुद्दे को सही ढंग से पकड़ा है। धन्यवाद
दुनिया के बनते बिगड़ते सम्बन्धों के बीच लोकतंत्र के महत्त्व को बड़ी ही संजीदगी से अभिव्यक्त करता यह लेख बहुत ही तथ्यात्मक और विश्लेषणात्मक है ..इस समय ऐसे लेख की बेहद जरूरत है….एक सार्थक लेख हेतु आपको दिल से धन्यवाद बड़े भाई
धन्यवाद रमेश भाई।
बहुत ही अच्छा लेख है। कई नयी जानकरियाँ मिलीं। जो भी बातें कही गयीं हैं पूरी ज़िम्मेदारी के साथ, तथ्यों के साथ।
आशीष मिश्रा
धन्यवाद आशीष
सारगर्भित आलेख यह जानकर अच्छा लगा कि किसी भी देश पर लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू करने से पहले उस देश को आर्थिक दृष्टि से मजबूत हो जाना चाहिए। मुझे लगता है कि लोकतंत्र केवल भाषाई स्तर पर एवं कागजी स्तर पर ही लागू ना हो। त्रेता युग का वर्णन करते हुए आपने जो लिखा है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा करते हुए ही राम ने अपनी पत्नी सीता का त्याग कर दिया था, यह सोचनीय विषय है कि क्या वर्तमान लोकतंत्र में ऐसे त्याग की भावना परिलक्षित होती है ? ्
कई नयी जानकारियाँ देने वाला आपका सम्पादकीय निस्संदेह स्वागत योग्य है। विश्व लोकतंत्र दिवस के प्रति उदासीनता के लिए चिंता व्यक्त करने वाला आपका सार्थक विचार जागरूक करता है। आज भारत सहित अन्य देशों को भी लोकतंत्र का सही और व्यावहारिक अर्थ समझने की आवश्यकता है, जिसे साहित्यकार की लेखनी से बेहतर और कौन समझाए सकता है !!!