Tuesday, October 8, 2024
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प्रो नवीन चंद्र लोहनी और डॉ योगेन्द्र सिंह का लेख – वेदप्रकाश वटुक के काव्य में विश्व दृष्टि

वेदप्रकाश वटुक, आधुनिक हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है। आपने साहित्य की सभी विधाओं में सृजन किया है किंतु आपकी विशेष पहचान एक कवि के रूप में होती है। अब तक आपकी 40 से अधिक काव्य कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी है। ‘अभिशप्त’ ‘द्वापर’, ‘उत्तरराम-कथा’, ‘बाहुबली’, ‘मानवता का अरण्य-रोदन’ तथा ‘इतिहास की चीख’, आपकी विशेष चर्चित और उल्लेखनीय काव्य कृतियाँ है, जिन्होंने हिंदी काव्य संसार ही नहीं, अपितु विश्व हिंदी साहित्य में भी विशेष पहचान निर्मित की है। 
वेदप्रकाश वटुक का सृजन लोक बहुत व्यापक है। यह स्वयं में अपने युग व समय की प्रत्येक संवेदना को न केवल अभिव्यक्ति प्रदान करता है अपितु एक चेतनालोक का निर्माण करता है जिसमें मानवता के समक्ष आ खड़ी हुई चुनौतियों के प्रति चिंता प्रकट की गई हैं। हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार अज्ञेय ने डॉ॰ वेदप्रकाश ‘वटुक’ की काव्य दृष्टि के इन्हीं निहितार्थों के विषय में लिखा है ,‘‘वटुक’ जी की कविता में न केवल स्वदेश का संवेदन बोलता है, बल्कि एक ऐसा संवेदन बोलता है जो भारतीय लोक-जीवन के रस में पगा हुआ है। उसमें एक ओर आज के नागरिक व्यापक चेतना और विचार प्रवणता है तो दूसरी ओर भारतीय देहाती की ठोस प्रत्युत्पन्न मति, सच्चाई की सहज पकड़ और एक अदम्य विनोद-भाव।’’1 वेदप्रकाश वटुक की काव्य दृष्टि का यही वैशिष्ट्य; उन्हें उनके समकालीन अन्य कवियों से न केवल पृथक करता है अपितु विश्व मानवता के पक्षधर कवि के रूप में प्रतिष्ठित भी करता है।
आपकी ‘अभिशप्त द्वापर’, ‘बाहुबली’, ‘उत्तरराम-कथा’ तथा ‘और ईसा जलता रहा’ जैसी काव्य कृतियों का वर्ण्य-विषय पौराणिक कथाओं पर केंद्रित रहा है। लोक में प्रचलित मिथकों तथा जनश्रुतियों को नवीन चेतना दृष्टि से पुर्नव्याखायित करना; आपकी सृजन दृष्टि का प्रमुख सरोकार रहा है। आपकी यही सृजन चेतना इन काव्य कृतियों में परिलक्षित होती है। आपकी काव्य सृजना का यही ध्येय इन काव्य पंक्तियों में उद्घाटित होता हैं
‘‘जिसको उद्घाटित करने में सुकरात गरल को पीते हैं।
सूली चढ़ते हैं ईसा जिसको जीवन में जीते हैं।
मंसूर जिसे कहते-कहते, जीते जी मर जाते हैं।
कर-कर प्रयोग जिसका गांधी सीने में गोली खाते हैं।।
सब धर्म-नीति-शासन जिसकी हत्या ही करते जाते हैं।
खोजते जिसे मनुजों के दल, निर्दोष मृत्यु को पाते हैं।।
वह सत्य हमें नैतिक बल दे, सच कहने का साहस अनुपम।
नंगे इतिहास उखड़ जाए, ढकते हैं जो सच को हरदम।।’’2
वेदप्रकाश वटुक की काव्य दृष्टि इसी सत्य का संधान करती है। वेदप्रकाश वटुक के काव्यलोक का निर्माण इसी मानवतावादी जीवनदर्शन के अनुरूप हुआ है। इसलिए आपकी कविताएँ, दुर्बल, दीन-हीन जनों के पक्ष में अपना रचनात्मक विधान रचती है, जिसमें एक ओर इन लोगों की व्यथा-कथा है तो वहीं दूसरी ओर इनकी इस दीन-हीन अवस्था के उत्तरदायी कारकों पर भी व्यापक दृष्टिपात किया गया है।
कवि वेदप्रकाश वटुक की यह चिंता ‘मानवता का अरण्य-रोदन’, ‘इतिहास की चीख’ तथा ‘कल रात के अंधेरे में’ आदि काव्य-कृतियों में प्रकट हुई है। आपकी इन काव्य पंक्तियों में यही भाव प्रकट हुआ हैं-
‘‘युग-युगों से/मर रहा है आदमी
धर्म के लिए/धर्म तो बचा नहीं
क्या समय नहीं आ गया है/कि एक बार
मर जाये धर्म/आदमी के लिए।’’3
कवि वेदप्रकाश वटुक मानव की इस दैन्यता के पीछे धर्म व सत्ता के गठजोड़ को उत्तरदायी मानते हैं। उनकी यही मान्यता उनकी कविताओं में प्रतिध्वनित होती है। आपका स्पष्ट मानना है कि कोई भी धर्म या सत्ता मनुष्यता से बड़ी नहीं है। मानव कल्याण ही मनुष्य का सर्वोपरि धर्म है। उनकी यही मान्यता इन काव्य पंक्तियों में अभिव्यक्त हुई हैं
‘‘निज भाग्य के निर्माण में मानव स्वतंत्र सशक्त हो।
हो मनुजता ही धर्म केवल, व्यक्ति उसका भक्त हो!
लघु मानवों का सम्मिलित बल हो अपरिमित अति विरल!
नवसृष्टि हो, नवदृष्टि हो, हो धरा सुरपुर से विरल!’’4
आपकी कविताओं में मानवीयता का यही भाव परिलक्षित हुआ है। कवि वेदप्रकाश वटुक के लिए विश्व कल्याण का मार्ग मानव कल्याण से ही होकर गुजरता है। लेकिन विश्व मंच पर जब लगातार मानवता को क्षति पहुंचाई जाती है तो कवि मन आहत हो उठता है। उनकी ये वेदना उनकी कविताओं का मूल वर्ण्य-विषय बनती है। इस स्थिति में कवि पीड़ित मानवता के पक्ष में खड़ा होता है और विश्व सत्ताओं से प्रश्न करता हुआ दिखाई देता है-
‘‘हर युद्ध के बाद/फिर आती है शांति
अज्ञात सैनिकों की समाधि पर
आँसू बहाती,/विधवाओं के पास
बैठ जाती है/मौन,
उसके पास/सांत्वना के शब्द भी नहीं होते।’’5
सत्ता, समाज की नियामक होती है। लेकिन जब यही सत्ता समाज को अपने स्वार्थों के लिए प्रयोग करने लगती है। तो फिर हालात प्रतिकूल होते चले है। सत्ता की इन्हीं स्वार्थ नीतियों पर सदियों से आमजन की बलि दी जाती है। सत्ता के इस विद्रुप परिदृश्य को कवि वेदप्रकाश वटुक इन काव्य पंक्तियों में प्रकट करते हैं-
‘‘मुझे दिलाओ मत आज/याद उन महामहिमों की
जो शनि की तरह छाये हैं/देश के भाग्य पर
जिनकी वाणी से टपकता है सुधा-रस
किंतु जिनके मानस में भरा है/लबालब विष
जो ग़रीबी हटाने के नारे लगाते हैं/और गरीबों को मिटाते हैं
जो स्वर्ग के सपने दिखाते हैं/और रसातल में ले जाते हैं।’’6
भारतीय राजनीति के इसी विद्रूप परिदृश्य पर वेदप्रकाश वटुक ने अपनी कविताओं में करारी चोट की है। वे राजनेताओं के भ्रष्टाचार व स्वार्थलीला की खुलकर मुखालफत ही नहीं करते बल्कि अपनी कविताओं में इन स्थितियों पर भी प्रश्नचिह लगाते हैं। अपनी कविता ‘भारत-पाक के अणुबम परीक्षण पर’ वे दोनों ही देशों के शासकों को कठघरे में खड़ा करते हैं
‘‘भूखे-प्यासे रहकर/करोड़ों जन
कर रहे है तपस्या/दधीचि-सी
उनकी अस्थितियों से बना है वज्र/अणु आयुध का।
सत्ता के ओ इन्द्र!/बताओ/उसे किस पर चलाओगे।’’7
वेदप्रकाश वटुक का ध्यान केवल भारतीय राजनीति व सत्ताधीशों पर ही नहीं ठहरता बल्कि वे विश्व सत्ता के नियामकों की अनीतियों व अनाचारों पर भी व्यापक दृष्टिपात करते हैं। वे अपनी कविता ‘क्लिंटन के नाम’ में इन्हीं भावों का प्रकटीकरण करते हैं –
‘‘तुम तो रख लोगे मौन
ढाई मिनट और दस सैंकड़ के लिए
क्योंकि तुम्हारे लिए मरे हैं बस
एक सौ साठ आदमी/ओकलोहोमा में
तुम्हारे घरेलू आतंकवाद से
और क्योंकि अमेरिका को ही आशीर्वाद देता है
तुम्हारा ईश्वर।’’8
वैश्विक उथल-पुथल के इस दौर का नियामक व निमंत्रणकर्ता अमेरिका ही रहा है। उपरोक्त काव्य पंक्तियों में कवि वेदप्रकाश वटुक ने विश्व मंच पर अमेरिका की इसी दादागिरि की पोल खोली है। विश्व में मानव समाज पर अनेक प्रकार के संकट रहे हैं। मानव सभ्यता के विकास से ही मानव जीवन में अनेक प्रकार की असमानताएँ रही हैं। यह असमानताएँ जाति, धर्म, ऊँच-नीच के विभेद के कारण और अधिक बढ़ी है। विश्व में प्रचलित दास-प्रथा मानवीय समाज के वीभत्स रूप का प्रत्यक्ष गवाह रही है। विश्व की एक बड़ी आबादी को दासों का नरकीय जीवन जीने को बाध्य किया जाना; मनुष्यता के मानवीय रूप को धूमिल करता है। कवि वेदप्रकाश वटुक का ध्यान इस ओर भी गया है-
‘‘जो भूखमरी से यातना से ग्रस्त नर-कंकाल थे।
जिनके लिए तो श्वेत-जन यमराज सम बस काल थे।
इस हेतु काले लोग अमेरिका से मंगवाएँ गए।
षड्यंत्र से बंदी बनाकर जंजीर से लाये गये।।
वे दास थे बिकने लगे जो श्वेत जन बाजार में।
पशु खच्चरों घोड़ों समृद्ध बन माल ही व्यवहार में।।
जो दास थे ऐसे खरीदे वे त्वरित चिन्हित किये।
उनके बदन पर स्वामियों के नाम दागे गये।’’9
पाश्चात्य देशों में मध्यकाल की दास प्रथा समाप्त होकर भी नस्लवाद के रूप में आज भी जीवित है। अभी भी यूरोप और अमेरिका जैसे विकसित देशों में रंगभेद व नस्लभेद की घटनाएँ घटित होना; दासों के जीवन की दैन्यता व विषम अवस्थितियों को समझा जा सकता है। उपरोक्त काव्य पंक्तियों में कवि ने दास जीवन की यही व्यथा-कथा कही है। कवि न केवल दास प्रथा तथा रंगभेद जैसी असमानताओं से व्यथित होता है अपितु समानता की संकल्पना को भी अपनी कविताओं में प्रस्तुत करता है। उनका यह मत इन काव्य पंक्तियों में अभिव्यक्ति हुआ हैं-
‘‘जब एक दिन इतिहास में संभव नहीं दासत्व था।
काले ‘स्वतंत्र’ हुए मगर उनको न प्राप्त समत्व था।
वे बहिष्कृत थे जन्म से शोषित सदा ही पद्दलित।
संघर्ष शत शत भाग्य में, सदियों करें शापित, पतित।।
संघर्ष समता के लिए वे आज भी है कर रहे।
जनजातियों के लोग, काले आज भी हैं मर रहे।।
जब जब कभी भी क्रांति की संभावनाएँ है बनी।
तब-तब भ्रकृटि इस धर्म की साम्राज्यवादी है तनी।।’’10
कवि वेदप्रकाश वटुक की काव्य चेतना उन्हें निर्बल के पक्ष में खड़ा करती है। परिणामतः वे शोषित-पीड़ितों की व्यथा को शिद्दत है से महसूस करते हैं और उनके यही जीवनानुभव उनके काव्य की वैचारिक मनोभूमि का निर्माण करते है। वस्तुतः आपका काव्य मानवीयता का गहन पाठ प्रस्तुत करता है जिसमें मानव चेतना के वाया विश्व चेतना की संकल्पना प्रतिपादित हुई है। उनके अंर्तमन का यही विश्व भाव यहाँ प्रस्फुटित हुआ है-
‘‘जन-जन सभी फूले-फले, निर्मूल वर्ण-विभेद हो!
हो लिंगवाद समाप्त, मानव एक पूर्ण अछेद हो।।
हो जाति-वर्ण-विहीन वर्गातीत पथ जनतंत्र का।
‘हम एक चारू अनेकता में’ जाप हो नित मंत्र का।।’’11
कवि समाज में जाति, धर्म व वर्ग विभेद जैसी असमानताओं को मानवता के लिए हानिकारक मानते हैं। वे इन सभी अवस्थितियों के निराकरण के द्वारा लोक कल्याण से विश्व कल्याण का मार्ग तलाशते नज़र आते हैं। वेदप्रकाश वटुक का यही मनोभाव यहाँ उद्घाटित हुआ है
‘‘सब मनुज मंगल कामना मिल नित्य ही ऐसी करें-
सब देव-दानव-यक्षगण भी मनुजता शिव शुचि वरें!
पावन, उपास्य, सुप्रेम का हो पात्र सबकी दृष्टि में!
हो सत्य-शिव-सौंदर्य का अवतार मानव-सृष्टि में!’’12
वसुधैव कुटुंबकम् तथा सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया की प्राचीन भारतीय मान्यताओं को वेदप्रकाश वटुक ने अंर्तमन से स्वीकार किया है। आपकी यही स्वीकार्योक्ति आपके सृजन की वैचारिक पृष्ठभूमि बनी है। उपरोक्त काव्य पंक्तियों में आपका यही मानवीय जीवनदर्शन स्पष्ट होता है। ‘‘‘वटुक’ जी की कविताएँ अपनी संपूर्ण सार्थकता में समकालीन आदमी की संवेदना को अभिव्यक्त करने की ताकत रखती हैं। उनका कविता-संसार समकालीन दुनिया के तनावों-दबावों को चरितार्थ करने में अधिक प्रासंगिक और ताजा बन सका है। उनकी भाषा ने मानवीय अनुभूतियों की सूक्ष्म और जीवंत कलात्मकता और सतर्कता और रचनात्मकता दक्षता के साथ कविता की वास्तविक संगति दी है।’’13 उपरोक्त कथन के आलोक में कहा जा सकता है कि वेदप्रकाश वटुक का काव्य-संसार बहुत व्यापक तथा बहुआयामी है। इनके काव्य में मानव जीवन एवं समाज के अंतर्संबंधों तथा संघर्षों का द्वंद्व निहित है जो कि कवि के मानवतावादी दर्शन से प्रेरित है।
निष्कर्षतः वेदप्रकाश वटुक की रचनाशीलता के केंद्र में मानव रहा है। वे मनुष्यता के प्रबल पक्षधर रचनाकार है। उनकी यही पक्षधरता मानवीयता पर आए संकटों के प्रति आपको आगाह करती है। फलतः आपका काव्य मानवीय चेतना के उर्वर लोक का निर्माण करता है जिसमें लघु मानव से लेकर विश्व मानव के प्रति चिंताएँ प्रकट की गई है। वेदप्रकाश वटुक के काव्य में निहित यही जीवनदर्शन उनकी विश्वदृष्टि की परिचायक है जो कि आपकी अधिकांशतः काव्य कृतियों में प्रतिफलित हुआ है।
लेखक परिचय
प्रो० नवीन चंद्र लोहनी
विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग,
चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ।
_______
डॉ॰ योगेन्द्र सिंह
हिंदी विभाग
चौ0 चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ।
ई-मेल: [email protected]
मो॰नं॰: 09837127252
संदर्भ ग्रंथ सूची
  1. वेदप्रकाश वटुक, बाहुबली, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ 250001, प्रथम संस्करण 2002, आवरण पृष्ठ से उद्धृत
  2. वेदप्रकाश वटुक, अभिशप्त द्वापर, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ 250001, प्रथम संस्करण 2007, पृ०सं॰ 13
  3. वेदप्रकाश वटुक, कल रात के अँधेरे में, निरुपमा प्रकाशन, मेरठ 250001, प्रथम संस्करण 2020, पृ०सं० 130
  4. वेदप्रकाश वटुक, अभिशप्त द्वापर, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ 250001, प्रथम संस्करण 2007, पृ०सं॰ 319
  5. वेदप्रकाश वटुक, मानवता का अरण्य-रोदन, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ 250001, प्रथम संस्करण 2007, पृ०सं० 27
  6. वेदप्रकाश वटुक, इतिहास की चीख, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ 250001, प्रथम संस्करण 2001, पृ॰सं॰ 74
  7. वही, पृ०सं० 60
  8. वही, पृ॰सं० 95
  9. वेदप्रकाश वटुक, और ईसा मरता रहा, मेधा सहकार प्रकाशन, मेरठ 250002, प्रथम संस्करण 2012, पृ०सं० 168
  10. वही, पृ०सं॰ 171
  11. वेदप्रकाश वटुक, उत्तरराम-कथा, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ 250001, प्रथम संस्करण 2003, पृ॰सं॰ 112
  12. वेदप्रकाश वटुक, अभिशप्त द्वापर, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ 250001, प्रथम संस्करण 2007, पृ०सं॰ 320
  13. वेदप्रकाश वटुक, मानवता का अरण्य-रोदन, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ 250001, प्रथम संस्करण 2007, आवरण पृष्ठ से उद्धृत
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