कवि, कथाकार, उपन्यासकार संतोष चौबे हिन्दी के उन विरल साहित्यकारों में से हैं जो साहित्य तथा विज्ञान में समान रूप से सक्रिय हैं।
उनके तीन कथा संग्रह ‘हल्के रंग की कमीज़’, ‘रेस्त्रां में दोपहर’ तथा ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’, दो उपन्यास ‘राग केदार’ और ‘क्या पता कामरेड मोहन’, तीन कविता संग्रह ‘कहीं और सच होंगे सपने’, ‘कोना धरती का’ एवं ‘इस अ-कवि समय में’ प्रकाशित और चर्चित हुये हैं, कहानियों का मंचन भारत भवन तथा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में हुआ है तथा देश के सभी शीर्ष पत्र-पत्रिकाओं में वे लगातार प्रकाशित होती रही हैं, टेरी इगल्टन, फ्रेडरिक जेमसन, वॉल्टर बेंजामिन एवं ओडिसस इलाइटिस के उनके अनुवाद ‘लेखक और प्रतिबद्धता’ तथा ‘मॉस्को डायरी’ के नाम से प्रकाशित हैं और व्यापक रूप से पढ़े और सराहे गये हैं। उन्होंने कथाकार वनमाली पर केंद्रित दो खंडों में, ‘वनमाली समग्र’ का तथा कथा एवं उपन्यास पर केंद्रित वैचारिक गद्य की दो पुस्तकों ‘आख्यान का आंतरिक संकट’ एवं ‘उपन्यास की नयी परंपरा’ का संपादन भी किया है। वे पंद्रह वर्षों तक ‘उद्भावना’ के संपादक मंडल में रहे तथा उसके कहानी विशेषांक का संपादन भी किया। वर्तमान में ‘समावर्तन’ के संपादक मंडल में हैं और नाटक तथा कलाओं की समादृत अंतर्विधायी पत्रिका ‘रंग संवाद’ के प्रमुख संपादक हैं।
भारतीय इंजीनियरिंग सेवा तथा भारतीय प्रशानिक सेवा के लिये चयनित संतोष चौबे, वर्तमान में डॉ. सी.वी. रमन विश्वविद्यालय तथा आईसेक्ट विश्वविद्यालय के चांसलर हैं तथा आईसेक्ट नेटवर्क, राज्य संसाधन केन्द्र एवं वनमाली सृजन पीठ के अध्यक्ष हैं।
पु.टी. संतोष जी आप पहले प्रशासनिक अधिकारी थे। वहाँ से अकादमिक क्षेत्र में आने की प्रेरणा आपको कैसे मिली?
उत्तर: इसका उत्तर थोड़े विस्तार में देना पड़ेगा। मैं उन अर्थों में प्रशासनिक अधिकारी कभी नहीं रहा जैसे सामान्य रूप से समझा जाता है। मैं मूलतः नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, भोपाल से पासआउट होने वाला इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर हूँ जिसकी मूल रूचि इलेक्ट्रॉनिक्स में थी और जिसके साहित्यिक और कलात्मक रूझान भी थे। सबसे पहले मैंने भारतीय इंजीनियरिंग सेवाओं की परीक्षा पास की (1977 में) पर रिसर्च की तरफ झुकाव होने के कारण मैं इंजीनियरिंग सेवाओं (आई.ई.एस.) में गया नहीं और ज्योति लिमिटेड, भारत इलेक्ट्रिॉनिक्स लिमिटेड के रिसर्च डिपार्टमेंट में 7-8 साल तक काम करता रहा।
इस बीच दो प्रमुख घटनाएं हुईं। एक इमरजेंसी का लगना और उसके बाद का वैज्ञानिक तथा सामाजिक चेतना संबंधी उभार, जिसका मैं हिस्सा बना और दूसरा सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी में पसरी गैर रचनात्मकता की अनुभूति जिसमें मैने भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड छोड़ने का मन बनाया, जहाँ मैं सीनियर इंजीनियर के पद पर था। यहीं रहते मैंने भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा भी पास की। (1982 में)
तो अब मेरे सामने दो रास्ते थे – इमरजेंसी के बाद पैदा हुए विज्ञान आंदोलन में संलग्न होना या भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाना। मैंने पहला रास्ता चुना और विज्ञान आंदोलन में आया जिसमें वैज्ञानिक दृष्टि और विज्ञान के प्रचार प्रसार की अपार संभावनाएं थीं। मैं भोपाल से दिल्ली आकर फिर भोपाल आ चुका था। लगभग उसी समय भोपाल गैस त्रासदी भी हुई जिसने विज्ञान की दशा और दिशा पर गंभीर सवाल खड़े किए। इससे विज्ञान आंदोलन के सामने और भी कई नये काम आये। इस तरह जब भी प्रशासन और जन आंदोलन के बीच में चुनाव करना पड़ा तो मैं जन आंदोलन के पक्ष में रहा। इसके बाद की मेरी अधिकतर पढ़ाई चाहे वह कला या साहित्य में हो या विज्ञान के क्षेत्र में हो, अनौपचारिक रूप से होती रही और मैंने विविध विषयों पर जिनमें भारतीय और विश्व इतिहास, भारतीय और विश्व साहित्य, दर्शन और राजनीतिक शास्त्र पर गहराई से अध्ययन जारी रखा जिसने मेरे अकादमिक रूझानों का निर्माण किया।
इसके बाद की कहानी भी कुछ अलग सी है। 80 के दशक में सूचना तकनीक का भारत में आगमन हो चुका था और विज्ञान के प्रचार-प्रसार की अपनी पृष्ठभूमि के कारण मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि उस समय कंप्यूटर क्रांति की जो बात की जा रही थी, उससे आम जनता अछूती थी। दूसरी ओर सूचना तकनीक की ताकत से कोई इन्कार नहीं कर सकता था। मुझे लगा कि इसका एक रास्ता शिक्षा से होकर जाता है और मैंने कंप्यूटर पर हिन्दी में देश की पहली किताब लिखी जिसका नाम ’कंप्यूटर – एक परिचय’ था जिसकी लाखों प्रतियाँ बाद में पूरे देश में, विशेषकर हिन्दी क्षेत्र में बिकीं। मध्यप्रदेश शासन ने इस पुस्तक के आधार पर मुझे स्कूलों में पाठ्यक्रम शुरू करने का सुझाव दिया जो लगभग 100 से अधिक स्कूलों में शुरू हुआ। इससे पाठ्यक्रम निर्माण, कंटेंट निर्माण, शिक्षण, प्रशिक्षण आदि के बारे में मेरी समझ बढ़ी और एक राष्ट्रीय स्रोत केन्द्र की स्थापना भी हुई, जिसका मैं निदेशक था। इस केंद्र ने आगे चलकर 50 से अधिक पुस्तकों का निर्माण किया।
दूसरी ओर विज्ञान आंदोलन अब साक्षरता आंदोलन में बदल चुका था और राष्ट्रीय स्तर पर साक्षरता के लिए बड़े प्रयास शुरू हुए। मैं साक्षरता आंदोलन की राष्ट्रीय समिति में था और मध्यप्रदेश राज्य का समन्वयक भी था। इसके लिए भी जो राज्य स्रोत केन्द्र की स्थापना हुई, उसका मैं निदेशक रहा।
इस तरह अब कंप्यूटर साक्षरता एवं भाषायी साक्षरता दोनों काम समानान्तर रूप से चलने लगे, जिन्होंने एक ओर तो मुझे संगठन और संस्थाओं के निर्माण की ओर प्रेरित किया तो दूसरी ओर अकादमिक प्रक्रियाओं से मेरा परिचय भी कराया। साहित्य, कलाएँ और कुछ-कुछ राजनीति भी छाया की तरह मेरे साथ-साथ चलते रहे। ये वर्ष 1976 से वर्ष 2000 तक की यात्रा की कहानी है जहाँ इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी से शुरूआत कर विज्ञान और साक्षरता के आंदोलनों से होते हुए मैंने अपने आपको अकादमिक दुनिया में पाया।
पु.टी. आप पहले खण्डवा में और अब आइसेक्ट में चांसलर का पद संभाल रहे हैं। इतने जिम्मेदारी भरे पदों पर कार्य करते हुए आप साहित्य लेखन के लिए कैसे समय निकाल पाते हैं?
उत्तर: इस प्रश्न का उत्तर भी मैं पहले प्रश्न के आलोक में ही देना चाहूँगा। उपरोक्त कंप्यूटर प्रशिक्षण के लिए जिस संस्था का निर्माण किया गया, उस संस्था का नाम आईसेक्ट था, जो 1985 में सेक्ट के नाम से स्थापित हुई थी। अब यह संस्था लगभग 38 वर्ष पुरानी हो गई है। वर्ष 2000 तक आते-आते इस संस्था ने लगभग 2000 प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित कर लिये थे और इसने ग्रामीण सूचना, तकनीक का एक ऐसा हॉरिज़ेन्टल मॉडल विकसित किया, जिसे इंडियन इंस्टीट्यॅट ऑफ मैनेजमेन्ट, अहमदाबाद, वर्ल्ड बैंक तथा भारत सरकार के रास्ते पूरे देश में विस्तारित किया गया। आज आईसेक्ट के लगभग 35,000 केन्द्र पूरे देश में संचालित हैं जो कंप्यूटर शिक्षा, कौशल विकास तथा वित्तीय सेवा का काम करते हैं। इस संस्था का मैं अध्यक्ष हूँ।
जिन विश्वविद्यालयों की आप बात कर रहे हैं वे इसी संस्था द्वारा स्थापित किये गये हैं और उनमें मैं चांसलर या कुलाधिपति हूँ। ऐसा नहीं है कि सारे विश्वविद्यालयों और संस्थाओं में मुझे ही पूरा कार्य करना पड़ता है। आज लगभग 2500 से अधिक पूर्णकालिक कर्मचारी तथा 50,000 से अधिक अंशकालिक कर्मचारी इन प्रयासों से जुड़े हैं। विश्वविद्यालयों के अपने वी.सी., रजिस्ट्रार और फैकल्टी हैं तथा प्रत्येक वर्टिकल की अपनी टीम भी है। तो मेरे पास कुछ वक्त बच जाता है।
हाँलांकि जब ऐसा नहीं था तब भी मैं साहित्य और कलाओं के लिए समय निकाल ही लेता था। लिखने का काम अक्सर रात में और फिनिशिंग का काम अक्सर सुबह-सुबह करता हूँ। पढ़ने का काम लगातार करता रहता हूँ और कोई एक किताब हर समय मेरे साथ रहती है। मेरा मानना है कि समय हर समय रहता है अगर उसे खराब न किया जाये।
पु.टी. आपको अपने भीतर कभी एक अधिकारी और साहित्यकार के बीच कई तनाव, कोई संघर्ष महसूस हुआ है? क्या आपने कभी एक लेखक के तौर पर अपनी ही संस्था या अकादमिक जगत के विरूद्ध कभी कुछ सोचा है?
उत्तर: जैसा कि मैंने ऊपर कहा, मैं आई.ए.एस. और आई.ई.एस. के लिये चयनित अवश्य हुआ पर उनमें गया नहीं और सामान्य अर्थों में मैं प्रशासनिक अधिकारी नहीं हूँ। एक कुलाधिपति रहते हुए भी छात्रों तथा फैकल्टी और सभी कर्मचारियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करता हूँ इसलिए संघर्ष जैसे कोई बात नहीं। तनाव तब होता है जब कोई काम अच्छी तरह या व्यवस्थित रूप से नहीं किया जाता है, उसमें कलात्मक प्रबंधन भी शामिल है।
अकादमिक जगत में मुझे एक आलोचक के रूप में लिया जाता है जो सतत् रूप से प्रक्रियाओं में सुधार, स्वायत्ता में विस्तार तथा नवाचरण के लिए प्रतिबद्ध है। उसके अपने संघर्ष चलते रहते हैं।