1. सोच को मेरी नई वो इक रवानी दे गया मेरे शब्दों को महकती ख़ुशबयानी दे गया. कर दिया नीलाम उसने आज खुद अपना ज़मीर तोड़कर मेरा भरोसा बदगुमानी दे गया. सौदेबाज़ी करके ख़ुद वो अपने ही ईमान की शहर के सौदागरों को बेईमानी दे गया. जाने क्या-क्या बह गया था आंसुओं की बाढ़ में ना ख़ुदा घबरा के उसमें और पानी दे गया. साथ अपने ले के आया ताज़गी चारों तरफ़ सूखते पत्तों को फिर से नौजवानी दे गया. आशनाई दे सके ऐसा बशर मिलता नहीं बरसों पहले जो मिला वो इक निशानी दे गया. एक शाइर आ के इक दिन पत्थरों के शहर में मेरी ख़ामोशी को ‘देवी’ तर्जुमानी दे गया.
2.
इक नशा-सा तो बेखुदी में हो हुस्न ऐसा भी सादगी में हो.
दे सके जो ख़ुलूस का साया ऐसी ख़ूबी तो आदमी में हो.
शक की बुनियाद पर महल कैसा कुछ तो ईमान दोस्ती में हो.
दुख के साग़र को खुश्क जो कर दे ऐसा कुछ तो असर ख़ुशी में हो.
खुद-ब-खुद आ मिले खुदा मुझसे कुछ तो अहसास बंदगी में हो.
अपनी मंज़िल को पा नहीं सकता वो जो गुमराह रौशनी में हो.
सारे मतलाब परस्त है ‘देवी’ कुछ मुरव्वत भी तो किसी में हो. 3.
गुफ़्तगू हमसे वो करे जैसे खामुशी के हैं लब खुले जैसे.
तुझसे मिलने की ये सज़ा पाई चांदनी-धूप सी लगे जैसे.
तोड़ता दम है जब भी परवाना शम्अ की लौ भी रो पड़े जैसे.
यूं ख़यालों में पुख़्तगी आई बीज से पेड़ बन गये जैसे.
ये तो नादानी मेरे दिल ने की और सज़ा मिल गई मुझे जैसे.
याद ‘देवी’ को उनकी क्या आई ज़ख़्म ताज़ा कोई लगे जैसे.