डॉ मनीष कुमार मिश्रा की ग़ज़लें
चलते रहोगे तो रास्ता भी साथ आएगा
वो चला जो गया तो कोई शिकायत कैसी
वो कैसी मासूम सी ख्वाहिश थी हमारी कि
जो खड़ा है आज़ तुम्हारे सामने डरा सहमा सा
इन घने अँधेरों से मेरी उम्मीद बढ़ती ही जाती है
महीना वही पर मौसम अलग सा है
सबकुछ तो है मगर जैसे फीका सा है
जिसे गुनगुनाना चाहता हूं हरदम मैं
निहारता हूं अकेले में अक्सर चांद को
मैं अब तुम्हें पाऊं तो भला पाऊं कैसे
ढलती शाम के साथ चांदनी बिखर जाती है
तू कब था मेरा यह सवाल तो बेफिजूल सा है
बस यही सोच तेरी चाहत को संभाले रखा है
तुम्हें सोचता हूं तो एक कमाल हो ही जाता है
वैसे तो मैं आदमी हूं एकदम खानदानी लेकिन
डॉ मनीष कुमार मिश्रा
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मनीष जी वैसे तो तीनों गजलें अच्छी पर हम पहले गजल ज्यादा अच्छी लगी
एक शेर बहुत अच्छा लगा-
इन घने अँधेरों से मेरी उम्मीद बढ़ती ही जाती है
मुझे मालूम है कि सवेरा बस इसके बाद आएगा ।