Saturday, October 5, 2024
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डॉ मनीष कुमार मिश्रा की ग़ज़लें

1
चलते रहोगे तो रास्ता भी साथ आएगा
दिन में सूरज तो रात होते चांद आएगा ।
वो चला जो गया तो कोई शिकायत कैसी
हाँ बस जानेवाला कोई बहुत याद आएगा ।
वो कैसी मासूम सी ख्वाहिश थी हमारी कि
एक दिन तो मेरे हांथ में उसका हांथ आएगा ।
जो खड़ा है आज़ तुम्हारे सामने डरा सहमा सा
देखना एक रोज़ वो अपनी मुट्ठियां बांध आएगा ।
इन घने अँधेरों से मेरी उम्मीद बढ़ती ही जाती है
मुझे मालूम है कि सवेरा बस इसके बाद आएगा ।
2
महीना वही पर मौसम अलग सा है
यह नवंबर कहां तुम्हारी महक सा है।
सबकुछ तो है मगर जैसे फीका सा है
जिंदगी के जायके में तू नमक सा है।
जिसे गुनगुनाना चाहता हूं हरदम मैं
हमदम तू बिलकुल उस ग़ज़ल सा है।
निहारता हूं अकेले में अक्सर चांद को
यकीनन वह तेरी किसी झलक सा है।
मैं अब तुम्हें पाऊं तो भला पाऊं कैसे
एक कतरा हूं मैं और तू फलक सा है।
3
ढलती शाम के साथ चांदनी बिखर जाती है
वही एक तेरी सूरत आंखों में निखर जाती है।
तू कब था मेरा यह सवाल तो बेफिजूल सा है
तेरे नाम पर आज भी तबियत बहक जाती है।
बस यही सोच तेरी चाहत को संभाले रखा है
कि हर दीवार एक न एक दिन दरक जाती है।
तुम्हें सोचता हूं तो एक कमाल हो ही जाता है
जिंदगी की सूखी स्याही इत्र सी महक जाती है।
वैसे तो मैं आदमी हूं एकदम खानदानी लेकिन
तेरी सूरत पर मासूम तबियत फिसल जाती है।
डॉ मनीष कुमार मिश्रा
विजिटिंग प्रोफेसर ( ICCR HINDI CHAIR ), ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज़, ताशकंद, उज्बेकिस्तान ।
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1 टिप्पणी

  1. मनीष जी वैसे तो तीनों गजलें अच्छी पर हम पहले गजल ज्यादा अच्छी लगी
    एक शेर बहुत अच्छा लगा-
    इन घने अँधेरों से मेरी उम्मीद बढ़ती ही जाती है
    मुझे मालूम है कि सवेरा बस इसके बाद आएगा ।

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