पहाड़ बखूबी जानते हैं
कि लोग कहाँ मानते हैं
निज सुख-शांति के लिए
प्रकृति से रार ठानते हैं
पहाड़ यूँ ही नहीं ‘पहाड़’
जो समझते हो तुम भार
मात्र एक मुहावरे का सार
पहाड़ यूँ ही नहीं पहाड़ है
गहन दुख से खुरदरा
उसका एक-एक हाड़ है
कभी पहाड़ कैलाश था
अटल विश्वास था
शिव का उस पर
हाथ था
प्रति पल वो साथ था
बिठा पीठ पर शम्भु को
सदा सेवा में रत रहा
न अस्थिर कहीं
श्री-चरण में नत रहा
अब घेरकर मानुष खड़ा
भयंकर विकास की दहाड़ है
पहाड़ यूँ ही नहीं पहाड़ है
कभी पहाड़ हिमवान था
जगत-जननी का वितान था
उसके तले लीलाएँ सारी
वहीं भव्य बारात पधारी
गौरी-शंकर विवाह की
देवगणों ने बात विचारी
स्रष्टा के पखार पावन-पग
अर्चन कर धन्य हुआ
पहाड़ इसीलिए
अनन्य हुआ
अग्रगण्य हुआ
कि वह राजा हिमालय है
जंगल, जीव-जन्तु सम्भालेगा
आश्रय दे सभी को पालेगा
परंतु आवागमन के हेतु
उसे खण्ड- खण्ड कर
नर निर्मित कर सेतु
पहाड़ को देता पीड़ा-प्रगाढ़
ज्यों सीने पर ठोंकी कील
दर्द से दरका पहाड़
तुम्हें दिखा
कि टूटा सिर्फ पहाड़ है
मैदान- प्रवास पूर्व
नदी पहाड़ के कानों में
यह कहकर जाती
है अंतिम मिलन की बेला
मीत मैं नहीं लौट कर आऊँगी
आदिम- सुरसा- से मुख में
निश्चित घर कर जाऊँगी
तुमको न प्राप्त हो एक भी
जब लहरों की कल्लोल- पाती
उस क्षण धरना धीर बहुत
कर लेना कठोर छाती
मानव की प्रताड़ना सह
नदी मृदुल-गात
जैसे सूखा झाड़ है
कल-कल की धुन
मिटते देख
पहाड़ की आँखों में
उमड़ी बाढ़ है
पहाड़ केवल नहीं पहाड़
गहरे दुख से छलनी
उसका एक-एक हाड़ है
भले व्यर्थ दोष
उस पर धर देना
कुछ अपने भी सर लेना
जब कोई धमाका हो
आँखों में छाए अँधेरा
तुम देखो विद्युत- संयत्र
और सिक्स लेन पर उगता
प्रगति निर्माण का नया सवेरा ।
अत्यंत सुन्दर रचना..!!
हार्दिक आभार आदरणीय।
सादर
हार्दिक आभार आदरणीय।
सादर