21 नवंबर, 2021 को प्रकाशित पुरवाई के संपादकीय ‘कृषि कानून की वापसी और संसद’ पर निजी संदेशों के माध्यम से प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं

अजय शुक्ला
समसामयिक संपादकीय, वाकई यह मोदी सरकार का बेहद गलत फैसला है उसने अपनी ही अडिग छवि पर लोगो को हंसने का मौका दिया, यह मोदी सरकार का सत्ता की ललक में खुद के ताबूत पर कील ठोकना है क्योंकि इस कदम से मोदी समर्थको को बेहद निराश किया है जो उन्हे मोदी से दूर ही करेगी.
निधि अग्रवाल
इस सरकार की यह बड़ी कमी है कि यह कमज़ोर विपक्ष को मजबूत करने के निरन्तर अवसर देती है। कोई भी निर्णय या नया नियम लाने से पहले विपक्ष और जनता पर उसकी प्रतिक्रिया और आपत्तियों का पूर्वानुमान लगा उनकी निस्तारण policy बनाना ही कुशल राजनेता की खूबी होती है।
वीरेन्द्र वीर मेहता
तात्कालिक मुद्दे पर बहुत ही सटीक और विस्तृत संपादकीय। किसानी मुद्दे पर विस्तार से उनकी समस्या पर बात और इनसे जुड़े सभी मुख्य राजनेताओं की इस फ़ैसले पर सामने आ रही गतिविधियों का अच्छा विश्लेषण किया आपने। सुंदर संपादकीय के लिए साधुवाद आदरणीय।
यह सच है यदि वर्तमान सरकार या मोदी जी यह सोचते हैं कि किसानी मुद्दा खत्म हो गया है तो यह एक ग़लतफ़हमी ही है। इस निर्णय से उठने जा रही समस्याओं के लिए सरकार जितनी जल्दी एक्शन ले ले, भारतीय राजनीति के लिए उतना बेहतर होगा। सादर।
निशा गांधीनगर
बहुत बढ़िया, कृषि कानून के विषय में अच्छी जानकारी…
स्मृति शुक्ला
आपने कृषि कानूनों को प्रस्तुत करते हुए अपनी निष्पक्ष राय रखी ।सही बात निर्भीकता पूर्वक रखी ।पूरे घटना क्रम पर आपकी विवेकसंम्पन्न दृष्टि रही है।
मीना शर्मा
आपने कृषि कानूनों को प्रस्तुत करते हुए अपनी निष्पक्ष राय रखी ।सही बात निर्भीकता पूर्वक रखी ।पूरे घटना क्रम पर आपकी विवेकसंम्पन्न दृष्टि रही है।
कुमुद बंसल
मानती हूँ कि समस्या मूल से समाप्त नहीं हुई है। देश की आंतरिक व बाह्य सुरक्षा व टूल्किट पर नकारतमक प्रचार सब से बड़ा कारण था क़ानून वापसी का। अपने सही विश्लेषण किया है।
मनीष श्रीवास्तव, भोपाल
वाह, मन के बहुत से संदेहों को दूरकरता हुआ एक शानदार संपादकीय है ये लेख। विस्तारित रूप से इस मुद्दे को समझाने के लिए बहुत धन्यवाद सर 🙏🤗🌹
नीरज नीर
इस विस्तृत विवेचना के लिए आभार। आपने बहुत अच्छा लिखा है। एक बात की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ। इस आंदोलन में कई अंतरष्ट्रीय तत्त्वों की दिलचस्पी थी।वे किसी भी तरह से सिखों को सरकार के विरुद्ध करना चाहते थे। वे चाह्ते थे कि सरकार सिख किसानों का दमन करे। ताकि सेना में जो सिख हैं वे सरकार के अंततः विरुद्ध हो जाएं। लेकिन सरकार ने अत्यंत चतुराई से उनके इस षडयंत्र को असफल कर दिया।
तरुण कुमार, गाजियाबाद
अपने सम्पादकीय में आपने कृषि क़ानूनों और किसान आंदोलन का सम्यक् विश्लेषण किया है . कृषि क़ानूनों के वापस लिए जाने के कारणों और इसके परिणामों की भी चर्चा की है . यह आशंका भी व्यक्त की है कि आनेवाले समय में शायद दबाव की राजनीत ज़ोर पकड़े.
सच कहा जाए तो यह निर्णय प्रधानमंत्री मोदी के स्वभाव से मेल नहीं खाता है . निश्चय ही कोई बड़ी मजबूरी रही होगी . क़यास यह लगाए जा रहे हैं कि उपचुनाव के नतीजों और आगामी चुनावों के सर्वेक्षणों में मिल रहे रुझानों का शायद यह असर रहा हो . बहरहाल जो भी हो , जो लोग मोदी और शाह के शासन में लोकतंत्र के ख़त्म होने की बात कर रहे थे उन्हें इस निर्णय में लोकतंत्र की जीत दिख रही होगी . लोकतंत्र में जनता की आवाज सर्वोपरि है. इसलिए इस निर्णय में दुःख के साथ साथ उत्सव का भी अवसर है.
अनिता श्रीवास्तव, लखनऊ
सटीक विस्तृत जानकारी युक्त आलेख के माध्यम से कई धारणाओं एवं गलतफहमियों का समाधान हुआ।हार्दिक बधाई।
दिविक रमेश शर्मा
भले ही मोदी समर्थकों की निराशा सामने आ रही हो,और वह स्वाभाविक भी है, लेकिन भारतीय जनतंत्र में आज भी प्रचंड सत्ता की चूलें हिलाने की उचित ताकत बची है। नहीं जानता इस सच को किसी भी पार्टी के महज पिछलग्गू (बस हाँ-हाँ की तर्ज पर हँकने वाले) समर्थक कब पूरी तरह समझेंगे।
शशि पाधा, अमरीका
आज समाचारों में भी विश्लेषण सुना । अभी तक इस निर्णय को बदलने के कारण जानने की उत्सुकता थी । आपने इस सम्पादकीय के द्वारा सब कुछ स्पष्ट कर दिया । हम परदेस में रहते भी देश की हर समस्या से जूझते हैं । आपको बधाई ।
कुसुम शर्मा, दिल्ली
रूठो को मना लेगे, इस देश को बचालेगे। ये देश बचना है।माफी मांग कर उन्होंने बड़प्पन दिखाया है। इस बात को समझे। मगर ये मीठा गन्ना तो अड़ ही गया। रास्ते खोलने को तैयार नही।अब इस मीठे गन्ने को जनता ही देखेगी। कब तक विदेशों के फंड से रोटी और बिरियानी जलेबी ,गुलाबजामुन, मूंगदाल हलवा खायगे। एयरकंडीशनर मे बैठ कर देश को बर्बाद करते रहेगे।किसान अपनी खेती कर रहे है।वरना फसल नही होगी। हरि ॐ
उषा साहू, मुंबई

21 नवंबर 2021 के पुरवाई अंक का संपादकीय पढ़ा । हमेशा की तरह, आंकड़ों से सुसज्जित, पूर्ण विवरण के साथ । जिसको भी, कृषि कानून की जानकारी में कुछ कमी हो, वे इस आलेख से संदर्भ ले सकते हैं ।

जैसे ही ये समाचार आया कि मोदी सरकार ने, किसानों के लिए बनाए, तीनों कानून वापिस ले लिए हैं, मन के अंदर कुछ दरक गया । खुशी तो हुई ही नहीं, और जो “हुआ” उसे दु:ख भी नहीं कह पा रहे हैं ।

तो क्या ये मान लिया जाए, कृषि कानून वापस लेने से आंदोलन समाप्त हो जाएगा ? या ये समझे कि उगली पकड़कर कलाई पकड़ने जैसे बात चरितार्थ हो जाएगी । क्या दूसरे आंदोलन सर नहीं उठाएंगे ? या फिर ये चुनावी-चतुराई  है ?

जबकि ये कानून किसानों के लिए ही बनाया गया था । कानून के तहत किसान अपनी उपज बिचौलियों के हाथ में न देकर, स्वयं बेचने का निर्णय ले सकते हैं । वास्तविक नुकसान तो बिचौलियों का ही हो रहा था । ये तो सभी जानते हैं कि किसानों को तो सिर्फ़ हथियार बनाया गया है । भारतीय किसान तो रक्कासा की तरह नाच रहे हैं । इधर बिचौलिये उन्हें परेशान कर रहे हैं … और सरकार, उनको जो लाभ देना चाह रही है, उसको वे समझ नहीं पा रहे हैं ।

नए कानून के अंतर्गत किसान बुआई के पहले ही फसल की कीमत तय कर सकते हैं । इससे उन्हें फसल तैयार होने के बाद खरीददार ढूँढने नहीं पड़ेंगे और अनावश्यक समय की बरबादी नहीं होगी ।  साथ ही, बड़े निर्यातकों और व्यापारियों तक उनकी सीधी पहुँच होगी । इसके अलावा फसल के भंडारण की सीमा भी हटा ली गई थी ।

आंदोलनकारियों द्वारा दिल्ली सीमा पर आवास का इंतजाम कर लिया गया । साथ-साथ तिरंगे का अपमान, किसानों की जान की कुर्बानी या हत्या, बलात्कार ये सब तो आंदोलन की विशेषताएँ हैं । इन सब के बिना तो कोई आंदोलन पूरा हो ही नहीं सकता। किसान आंदोलन में भी ये सब कुछ शामिल था। रही-सही कसर लखीमपुर खीरी की घटना ने पूरी कर दी ।

बस ! यही कहा जा सकता है सरकार ने यह निर्णय सही समय पर (पहले ही) लिया होता, तो मंज़र कुछ अलग होता ।

अब तो बस यही सोचकर संतोष किया जा सकता है कि जो होता है, अच्छे के लिए ही होता है । और क्या कहा जा सकता है

स्वतंत्र शर्मा, देहरादून
मोदी जी जानते है कब कैसे काम लेना है,एक पिता जानता है कि कब बच्चो को कैसे सम्हालना है कई बार बच्चों की बेहूदा ज़िद को बार बार समझाने मनाने के बावजूद मानना पड़ता है लेकिन मन के भीतर पिता अपने नए एक्शन का प्लान बनाता रहता है कि इस बार तो उसकी ज़िद पूरी की है लेकिन इसी ज़िद के दुष्प्रभाव कैसे महसूस होंगे तब इसको गलती महसूस होगी तो कैसे सम्हालना है ।
आज यह नासूर बन जाने के डर से जख्म की दवा की है अगर तब भी ठीक न हुआ तो अंग कटवाना होगा और आर्टिफिशियल अंग लगवाना होगा ।दर्द भरे प्रोसेस से गुजरने से बचने के लिए यह कड़वा घूँट पिया गया है ।इस कदम को जीत और किसान नेताओ को हीरो मानने वाले भूल गए निहंगों के अत्याचार,लड़कीं का बलात्कार।अब अगर रास्ता नही खुलता लोग वापस नही जाते या ओर नई शर्ते रखते है तो सब निकम्मे है इनको निष्क्रिय रहने की आदत लग गयी है । खेती भूल रहे है। मोदी जी के कदम से खुश नही हूँ लेकिन सहमत हूँ क्योंकि कोई न कोई नया प्लान समाने आएगा ही आएगा।

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