राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की ओर से समसामयिक साहित्य श्रृंखला के अंतर्गत वन्दना मुकेश की बारह कहानियों का संकलन 2021 में प्रकाशित होकर आया है. ये कहानियां देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में स्थान पा चुकी हैं.
वन्दना विगत कई वर्षों से इंग्लैण्ड में रहती हैं. पुस्तक के आरम्भ में ‘मेरी कहानियां मेरी बात’ शीर्षक के अंतर्गत उन्होंने बहुत विस्तार से अपने जीवनक्रम और कथाक्रम को खोला है. इन कहानियों में लेखिका के कथनों के साक्ष्य हैं. सत्य और कल्पना के संसार में विचरती लेखिका एक आदर्श, एक यथार्थ और एक कलात्मक कथा संसार निर्मित करने में सफल हुई हैं. बचपन में उनके मन की अनगढ़ धरती पर पड़े लेखन के बीज यहां लहलहा उठे हैं.
इन कहानियों में गुंथे विशिष्ट अनुभव अनजान पाठक के मन को सहज ही छू लेते हैं. ये कहानियां अपने पाठक से सीधा संवाद करती हैं. यह कथाकार किसी दूसरी दुनिया की निवासी नहीं है – उसकी दुनिया वह दुनिया नहीं है, जहां अब तक हमारा प्रवेश ही न हुआ हो. यह तो जैसे हमारी अपनी जानी-पहचानी दुनिया है, विशेषता है तो यह कि कथाकार ने इस अनुभव को बड़े सुघड़, विश्वसनीय और प्रभावशाली रूप से शब्दों में बांध दिया है.
दूसरी बात यह कि वन्दना के लेखन में एक सहज आत्मीयता है. कहानियों की संवेदना और शिल्प – दोनों में इस आत्मीयता का स्पंदन है. लम्बा विदेश प्रवास उनकी भाषा और अभिव्यक्ति को बाधित नहीं कर सका. लोकजीवन की छवियाँ उनके मन से लुप्त नहीं हुई और न ही लोक शब्दावली. छाँह कहानी में पहले तो लछमी और ताऊ जी का संवाद अपनी बोली में चलता है, फिर शब्द विशेष के आत्मीय संस्पर्श से निहित अर्थ सघन हो उठता है, वे लिखती हैं – ‘जेठ की तपती दोपहरी में … पशु पक्षी इंसान सभी सुट्ट पड़ गए थे.’ यह सुट्ट शब्द भर नहीं – इसमें परिवेश से जोड़ देने की क्षमता है. कहानी का अंत भी रुचिकर है – ‘अचानक बादल गड़गड़ा उठे. दूर दयाप्रसाद की बैलगाड़ी की घंटियाँ सुनाई दे रही थीं.’ इन वाक्यों से लोकजीवन का एक सुन्दर भावचित्र निर्मित होता है.
तीसरी खासियत यह कही जा सकती है कि ये कहानियां किसी स्थान विशेष या विचारधारा विशेष से बद्ध नहीं हैं – ये मुक्त भाव से दूर देश से अपने देश तक आवाजाही करती हैं. इन कहानियों में भारतीय मन और विदेशी जीवन – दोनों की ताक-झाँक चलती रहती है. यहाँ ताऊ के साथ विदा होकर मायके जाती लक्ष्मी की चाल से टपकता अनोखा उल्लास है, तो ताऊ के थैले में लोटा डोर है कि कुँए से पानी खींचा जा सके. यहाँ इंग्लिश समर है, स्लीप ओवर के लिए दोस्त के घर गई बेटी क्रिस्टी है और रेचल की स्प्रिंग क्लीनिंग की चर्चा भी. ये छोटे-छोटे शब्द प्रयोग देश और परदेश की जीवन पद्धति को मूर्त करते हैं.
‘छोटी सी बात कहानी’ यदि ठेठ भारतीय परिवेश में सांस लेती ‘बिग फैट इंडियन वेडिंग’ का मान-अपमान से लिपा-पुता असली चेहरा मूर्तिमान करती है तो यहीं अपने बायलोजिकल फादर से मिलन की आस लिए परदेश का नील भी है, और ‘गौड ब्लेस योर फैमिली’ कहता दूर देश का हंफ्री डिक्सन भी. एक ओर अपने निर्णय की बड़ी कीमत चुकाती परम्परागत भारतीय परिवार में बसी कामकाजी स्नेहिल चाची हैं, तो दूसरी ओर प्यार पाने को तरसती प्रवासी साजिदा नसरीन. इन सबके बीच ही ‘फ्री लंच’’ कहानी की सिमोना भी है ..एक भारतीय डॉक्टर जिसे झेलना कथानायिका के बस की ही बात थी !
संग्रह की कहानियों में जीवन के स्त्री पक्ष को प्रमुखता मिली है – पहली कहानी के केंद्र में, मशीन हो जाने के खिलाफ मूक प्रयास करती पत्नी है जो हर दिन अपनी इस चाह को मरने नहीं देना चाहती कि अगली सुबह कुछ तो सुहाना लगे ! यहां अपने घर को चमचमाता देखने की इच्छा करने वाली मां है, अपनी लड़ाई आप लड़ने वाली वर्किंग वूमेन चाची हैं, अस्वस्थता के बावजूद परदेश में भाषा सीखने की जद्दोजहद करती साजिदा नसरीन है, उसे अंग्रेज़ी पढ़ाने वाली मैडम हैं, बेटी के ब्याह के सही-सलामत निबट जाने के लिए फिरकी बनी घूमती रमा है, पति रिचर्ड की मूक भाषा समझती, बेटी की बेचैनी और बेटे के मन को पढ़ सकने वाली रेचल है, कभी-कभी हम्फ्री डिक्सन का अकेलापन बांट लेने वाली सुमि मेहरा है, बिल्ली कहानी की प्रतिनायिका या खलनायिका सूजी का चरित्र भी कथाकार ने जीवंत रचा है. तो ये सभी वे स्त्रियाँ हैं जो अपनी पहचान बनाती हैं और अपने अपने संघर्षों के बीच जीवन का अर्थ खोज रही हैं. कहानियों का यह संकलन स्त्री मन के ऐसे सबल, संवेदनशील और मानवीय पक्ष को दिखाने के कारण पठनीय बन सका है.
कहना उचित होगा कि ये स्त्रियां लेखिका के आत्मकथ्य का झरोखा भी हैं … सिमोना की बढ़ी-चढ़ी बातें सुनने वाली सहेली, रसोई की गन्दगी देख क्रोध और लाचारी से दबाव से वर्षा की झड़ी लगाती मां, साजिदा नसरीन की इंग्लिश टीचर, गॉड ब्लैस यू की सुमि मेहरा, चाची का दुःख सुनती इन्दु …इन सब स्त्री पात्रों में कहीं न कहीं लेखिका शामिल है, कहीं कम कहीं ज्यादा.
जीवन के उजले पक्षों के साथ कहानीकार ने समभाव से जीवन के कलुष को रेखांकित करती दुखों की कहानियां भी रची हैं. ‘फ्री लंच’ जैसी उल्लेखनीय कहानी में आत्मकेंद्रित सिमोना स्वार्थ की शातिर पुतली बनकर उभरती है, ‘परदेस जाकर अपने देश की हर चीज से मोह बढ़ जाता है’ इसलिए कथा नायिका घर आई हिन्दुस्तानी डॉक्टर सिमोना को अपनी व्यस्तता के बावजूद एंटरटेन करती है. सिमोना मेहमान नवाजी का लुत्फ़ उठाते हुए सीख पर सीख दिए जाती है you must learn to say no, there is no such thing like a free lunch ! अपने आप में खोई-डूबी, आत्मकेंद्रित, सिमोना स्वार्थ के चरम को छू ही लेती है जब मसाला चाय, बिस्किट, लंच सब कुछ फ्री खा-पीकर सहेली के एक छोटे से काम के लिए ‘आई एम सॉरी लव’ कह कर अपनी गाड़ी में जा बैठती है.
पति-पत्नी के बीच संवादहीनता ने रिश्तों की गर्माहट खत्म की है, जीवन के इस उदास कथानक को लिपिबद्ध करती है मशीन कहानी जिसे पढ़ते हुए अनायास ही अज्ञेय की प्रसिद्ध कहानी रोज़ या गैंग्रीन याद आ जाती है. एक और निराश करने वाली परिस्थिति में रमा और मोहन जी हतप्रभ रह जाते हैं, क्योंकि जिन्हें वे समझदार और अपना समझते थे, परिवार की शादी में वे ही परायों से भी बदतर व्यवहार कर जाते हैं. जिन्दगी की बुरी तस्वीर सूजी भी पेश कर जाती है, मुश्किल में साथ देकर बिल्ली जैसी नमकहराम और दगाबाज़ निकलती है.
जीवन के ऐसे कटु अनुभव अपने भीतर समेटे, सिमटते आंगनों, बिखरते परिवारों, कागजी भावनाओं और पैसे की चमक से छिनती मनुष्यता के दुःख कहती इन कहानियों में अपने आप को पढ़वा ले जाने की क्षमता है.
एक सधी हुई साफ़ स्वच्छ भाषा के साथ लेखिका यहाँ उपस्थित है. यह कहना इसलिए मायने रखता है कि वन्दना 2002 से इंग्लैण्ड में बस गई हैं, वहां हिन्दी बोलने के अवसर उन्हें कम मिलते होंगे, वर्क प्लेस, मार्किट-बाज़ार में भी हिन्दी दूर-दूर तक न होगी. लेकिन फिर भी उन्होंने इस भाषा में लिखना तय किया. और लिखना भी ऐसा जो मन को झंकृत कर जाए. एक जगह जब वे लिखती हैः
‘तुम्हें न बोलने का जबरदस्त रियाज़ है’ तो रियाज शब्द भर से कम शब्दों में पूरा सच उड़ेल देती हैं.
एक अन्य कहानी में – पति को रवाना करने और बच्चों को स्कूल भेजने के बाद पत्नी और मां की भूमिका निभाती स्त्री ..अपनी ‘सुकून वाली चाय बनाती’ है. लेखिका द्वारा प्रयुक्त यह सुकून शब्द मां और पत्नी के जीवन की चरम व्यस्तता को पूरी तरह उजागर कर देता है.
कुछ कहानियों की विशेषता होती है कि वे बहुत कुछ गोलमोल रखती हैं, साफ-स्पष्ट बहुत कुछ न कह कर, उलझाव-सुलझाव का जिम्मा पाठक को सौंपती हैं.
लेकिन इन कहानियों की विशेषता है – खुलकर सब कुछ कहना..कुछ अधिक ही खुलकर. लगभग सभी कहानियों में इस विस्तृति के उदाहरण हैं.
अक्सर किसी कहानी संग्रह से एक कहानी चुनकर हम उसे अपनी प्रिय कहानी कहते हुए कथाकार की पहचान से जोड़ते हैं. जबकि इस संग्रह की चर्चा करते हुए एक से अधिक कहानियां हमारा हाथ थाम लेंगी कि उन्हें पढ़ा जाए, उनपर चर्चा हो, और हम उनकी सराहना करने को बाध्य हों…
बहुत सरगरब्बित समीक्षण की है विजया सती ने।वंदना मुकेश लगातार उत्कृष्ट लिख रही हैं।
ममता कालिया
धन्यवाद ममता जी। आपकी टिप्पणी महत्वपूर्ण है।