27 मार्च, 2022 को प्रकाशित पुरवाई के संपादकीय  ‘दि कश्मीर फ़ाइल्स’… कितनी हक़ीकत कितना फ़साना…! पर प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं

ऊषा साहू, मुंबई
…एक और अनूठा संपादकीय, धन्यवाद जी ।
आपके हिसाब से तीन तरह के लोग हैं, परंतु एक और तरह के लोग हैं, जो घर में मूवी देखने का इंतजाम होते हुए भी थियेटर में देखने की जिद करते हैं ।
पिक्चर में, सच्चाई को सत्य रूप में प्रस्तुत किया गया है । पर हम सब यह सोचने पर विवश हैं कि इस दरिंदगी पर, उस समय सरकार ने कोई कार्रवाही क्यों नहीं की । क्या है कोई जबाव । कहा जा रहा है कि मुसलमान भी मरे थे । अरे कर भी तो वे ही रहे थे या करवा रहे थे ।
देखो ये भारत है और वह भी प्रजातंत्र । सोने पे सुहागा बोलो या करेला और नीम चढ़ा । अब बोलने की आजादी तो बोलेंगे ही । अपनी (निरर्थक) बात रखने के लिए सच्चाई को भी प्रोपेगेंडा कहेंगे ही । ऐसे लोगों से बचा नहीं जा सकता ।
कहाँ वह हिन्दी फिल्मों में रोमांस भरे गीतों से भरा काश्मीर और कहाँ खून से लथपथ कश्मीर ।
हमीद अंसारी जो कहते हैं, हिंदुस्तान में मुसलमान सुरक्षित नहीं है, स्वयं दो बार देश के उपराष्ट्रपति बन चुके हैं और कितनी सुरक्षा चाहिए । वे कहते हैं काश्मीर में मुसलमानों को पुनर्स्थापन के लिये मुआवजा और नौकरिया दी जाएँ और कश्मीरी पंडितों को लिए कहते हैं नौकरियाँ (बची-खुची) हो तो उन्हें दे दो । अब सोचो जरा कश्मीर मुसलमानों की और पंडितों ली शिक्षा में कहीं समानता है । फसाद की जड़ तो यही थी, पंडित अपनी योग्यता के बल पर अच्छे – अच्छी पोस्ट हासिल कर लेते थे जो मुसलमान नहीं कर पा रहे थे ।
खून से सने चावल खिलाना, सेना के जवानों की यूनिफ़ोर्म पहनकर लाइन में खड़ेकर के आम जनता को गोली से भूनना, महिला को आरी से कटवाना ये सब बातें मनगढ़ंत तो नहीं हो सकतीं ।
अब फारुख अब्दुल्लाह जांच आयोग बैठने की बात कर रहे हैं । इतने वर्षों के बाद, क्या आयोग न्याय कर पाएगा, क्या सच्चाई का पता लगा पाएगा । इनमें से कुछ भुक्तभोगी तो भगवान को भी प्यारे हो गए होंगे । कहाँ से सबूत एकत्रित कर पाएंगे । वर्तमान पीड़ी, जिन्होंने यह मंजर देखा नहीं है, क्या पूरी बात बता पाएंगे । जांच आयोग भी सिर्फ लीपा-पोती ही करेगा । जैसे-तैसे लोग उस क्षण को भूलने की कोशिश कर रहे होंगे, वह फिर से याद कराया जाएगा, फिर से उकेरा जाएगा ।
यह एक ऐसी फिल्म नहीं है, जिसे देखने के बाद हम थियेटर में छोडकर आ जाते हैं । यह फिल्म हमारे पीछे-पीछे चली आती है । दिल में, दिमाग में, घर के हर कोने में दिखाई देती है ।
काश्मीरी पंडितो ! सचमुच हमें क्षोभ है, उन तकलीफ के दिनों में हम और हमारी सरकार आपके लिए कुछ न कर सकी ।
आपके संपादकीय लेख ने, इस कहानी को और भी स्पष्ट कर दिया है । नमन है आपको, आपके सच्चे श्रम को और कार्य के प्रति समर्पण की भावना को।
डॉक्टर चंद्रशेखर तिवारी
कश्मीरी पंडितों के दर्द को लेकर जिस तरह से विवेक अग्निहोत्री जी ने समाज को आइना दिखाने का कार्य किया है, बहुत हद तक आपका सम्पादकीय भी वैसा ही मर्म को झकझोरने और आँख खोलने वाला है। …… साजिश किसकी थी और कैसी थी, इस पर से परदा अब पूरी तरह से हट चुका है। ….. पाँच-सात कमरों में रहने का आदी, मर्यादा और संस्कारों का पोषक, समाज दस बाई बारह फुट के टेंट में रहने को मजबूर और एक पूरी पीढ़ी को जन्म देने से वंचित हुआ। ….. वास्तव में साजिश को समझते हुए विट्टा कराटे और यासीन मलिक जैसे लोगों को कठोर से कठोर सजा देने का समय आ गया है। ….. यह बात जितना मायने रखती है कि आतंकवादियों की हिंसा का पहला शिकार कोई मुसलमान हुआ, उससे कहीं अधिक यह बात मायने रखती है कि सचिन तेंदुलकर की बैटिंग की तारीफ़ करने वाले बच्चे को बुरी तरह पीटा गया, मायने यह बात भी रखती है कि पतियों और पिताओं के खून से सने चावल (भात) उनकी पत्नियों और बच्चों को खाने के लिए मजबूर किया गया। नाबालिग बच्चियों की अस्मिता उनके पिता और भाई के सामने उन्हीं के घरों में, यहाँ तक कि खुलेआम चौराहे पर तार-तार की गयी। वहशी और क्रूर दरिन्दों ने हैवानियत की सारी हदें पार कर दीं। एअरफोर्स के जवानों की नृशंस हत्या की गयी। आतंकवादियों द्वारा सेना के जवानों की यूनीफॉर्म पहनकर 24-25 लोगों की जघन्य हत्या कर सेना की वर्दी को कलंकित किया गया। मस्जिदों में बँधे से लाउडस्पीकरों से एलान किया गया कि या तो इस्लाम स्वीकार कर लो, अन्यथा घाटी छोड़ने या मरने के लिए तैयार हो जाओ। ….. ऐसे में किस तरह लोगों ने अपने दीन और धर्म को बचाया होगा ….. सोचकर रूह काँप जाती है। ….. विस्थापन से पुनर्स्थापन तक के संघर्ष को नकारा नहीं जा सकता। सवाल यह नहीं है कि उस समय केन्द्र में किसकी सरकार थी, या किसके समर्थन से सरकार चल रही थी! सवाल यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि ऐसी स्थिति आयी ही क्यों और फिर ऐसा क्या किया जाये कि ऐसी स्थिति दुबारा न आये। ….. इस त्रासद पीड़ा को आपने जिस तरह शब्द दिया है, उसके बाद मैं बस यही कहना चाहूँगा कि यदि अब भी नहीं चेते तो शायद फिर कभी नहीं चेतेंगे।
डॉक्टर माया दुबे
बहुत ही सूक्ष्म विवेचना के आधार पर संपादकीय लिखी गयी है। एक सजग साहित्यकार की बेबाक टिप्पणी से युक्त सुप्त चेतना को जागृत करने वाली संपादकीय। बहुत बहुत हार्दिक आभार।
सुधा जुगरान
बहुत ही उत्तम व बेबाक संपादकीय। इस सच्चाई की बहुत आवश्यकता है। मैंने भी यह फिल्म देख ली। जिन दृश्यों को फिल्म में देखते हुए हम आंखे बंद करने के लिए मजबूर हो जाते हैं वह किसी के जीवन का जीता जागता सच है, सोच कर एक अजीब से वैराग्य से मन आंदोलित होता है। जब कि एक तीन घंटे की फिल्म तो मात्र कुछ घटनाओं को ही समेटती है। वास्तव में क्या कुछ नहीं हुआ होगा। मनुष्य में, राक्षसी व मानवीय दोनों ही वृत्तियों की अति है।
आशीष मिश्रा
पुरवाई एक विविधता भरी स्थापित पत्रिका है और आपके सम्पादकीय में हर प्रकार के मुद्दों पर विविध रूप से उन्मुक्त लेकिन विश्वसनीय लेख होते हैं – ऐसे लेख जो सामाजिक परिस्थितियों को समझते भी हैं और समझाते भी हैं।
“द कश्मीर फ़ाइल” एक फ़िल्म हैं, या सच्ची घटनाओं पर ईमानदारी से बनायी गयी documentary
इस फ़िल्म पर बहुत सारी बातें बेबाक़ी से लिखी गयी हैं जो अनन्य मीडिया पर उपलब्ध है लेकिन इस संवेदना भरी फ़िल्म की इतनी विस्तृत चर्चा पहली बार पढ़ी है।
आपने इस नरसंहार से पहले, नरसंहार के समय और उसके बाद – तीनों पक्षों को निष्पक्ष रूप से समझाया है। मेरा मानना है कि इस पूरी घटना का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष भारतीय राजनीति की व्यक्तिगत हितों के लिए बड़े विषयों की अनदेखी भी है। यह लेख हर ऐसे बिंदुओं पर ना ही केवल प्रकाश डालता है बल्कि एक हद तक पाठकों को मूल तथ्यों तक ले जाता है।
पुरवाई के सिद्धस्थ सम्पादन को प्रणाम।
शैली
एक और सुविचारित संपादकीय के लिए पुनः धन्यवाद।सच को बताने में जिस देश में 32 साल लगे, उस देश के दुर्भाग्य को बताने के लिए शब्द कम हैं। आजाद कश्मीर एक सुनियोजित साज़िश है, हमारे तथाकथित स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वाले नेताओं की। गाँधी को राष्ट्रपिता और नेहरू को गाँधी के कहने पर प्रधानमंत्री बनाया जाना काश्मीर फ़ाइलस की आधारशिला है। शेख अब्दुल्ला तो बस काश्मीर भुनाने के लिए बिठाए गये थे। कश्मीर एक ऐसी रोटी है, जिसे केंद्र की कांग्रेस सरकार और कश्मीरी नेताओं ने पेट भर के खाया। वी पी सिंह के काल में यह घटना हुई, इसीलिए कांग्रेस पर सीधे इल्ज़ाम नहीं आया, पर आधी अधूरी सी वी पी सिंह की सरकार कुछ करने लायक थी भी नहीं। दुःख नपुंसक बनाए गये मीडिया का है, जिसकी नपुंसकता का श्रेय कांग्रेस शासन को जाता है। भाग्य था भारत का जो मोदी जैसा नेता आया, जिसके शासन में यह सच बाहर आया। सोशल मीडिया का भी आभार जिसने इस फिल्म को रुकने नहीं दिया। जो कश्मीर में हुआ, वही बीर भूमि में हो रहा है. इस फ़िल्म ने एक बार गंदी राजनीति के कुरूप चेहरा दिखाया, अब शायद कांग्रेस अगले चुनाव घोषणा पत्र में 370 फिर से लागू करने की बात न कहे. आगे जिम्मेदारी भारत के नागरिकों की है कि इस सत्य को धुँधला न होने दें, पीड़ित पंडितों को न्याय मिलने और भारत के सुनियोजित इस्लामीकरण की प्रक्रिया ख़त्म होने तक.
370 ख़त्म होने से पहले एक कविता लिखी थी, जो आज लगता है बिल्कुल ठीक थी –
जिन्ना, शेखू नेहरू भाई
कुर्सी लेकर हुई लड़ाई
जिन्ना ख़ुद को पीएम कहते
शेखू, नेहरू भी क्या कम थे?
झगड़ा सुन कर बापू आए
बँटवारे की रोटी लाए
थोड़ा तुम लो जिन्ना बेटा
थोड़ा तुम लो शेखू बेटा
रूठो तुम ना नेहरू बेटा
टुकडा़ ले लो सबसे मोटा
अब से झगड़ा करते रहना
जनता को तुम ठगते रहना
हिन्दू-मुस्लिम कहीं लड़ाना
तीन सौ सत्तर कहीं लगाना
सेना, जनता कटवा देना
दंगा, आगजनी करवाना
फ़िदायीन कुछ बन जायेगें
कुछ को पत्थरबाज बनाना
जाति-धर्म की आग लगाना
बन कर पंच, उसे सुलझाना
पीढ़ी दर पीढ़ी तक बच्चों
ये मुद्दे भड़काते रहना
फूट डाल कर राज करोगे
पुश्तों तक तुम ऐश करोगे
पाकिस्तान बना डाला है
काश्मीर ईनाम दिया है
हिन्दू मुस्लिम कश्मीरी को
अगर ठीक से भुनवा लोगे
पुश्तों तक तुम राज करोगे
जनता के सिरताज बनोगे
राजीव रंजन सिन्हा
इस फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं, जिन्हें मैं देख नहीं पाया। जो मुझसे देखा नहीं गया, वो कश्मीरी हिंदुओं को सहना पड़ा था। कहा जा रहा है कि दूसरा पक्ष नहीं दिखाया गया फ़िल्म में। दूसरे पक्ष को तो अनगिनत फ़िल्मों में दिखाया गया है। इस फिल्म ने वो पक्ष दिखाया गया है, जो कभी नहीं दिखाया गया। वैसे इस फिल्म के अंतिम से पहले वाले दृश्य में कृष्णा कहता है- मॉडरेट मुसलमानों का भी कत्ल किया गया। मगर दूसरे पक्ष का मुद्दा उठाने वालों का मतलब साफ है कि उनके लिए दूसरा पक्ष साधारण मुसलमान नहीं, आतंकवादी हैं, जिनकी पैरवी विशाल भारद्वाज की फिल्म हैदर खुलेआम और पूरी बेशर्मी के साथ करती है।
आशुतोष कुमार
यह सिर्फ़ सोशल मिडिया की वजह से संभव हुआ वरना कश्मीर की सच्चाई की तरह इस फ़िल्म को भी दबा दिया जाता। शुरू में किसी भी बड़ी मिडिया हाउस ने फ़िल्म की प्रोमोशन के लिए प्लेटफार्म नहीं दिया पर जब सोशल मिडिया पर हर तरफ़ इसकी चर्चा होने लगी तो टी आर पी के लिए सारे मीडिया हाउस ने ‘The Kashmir Files’ टीम का इंटरव्यू लिया। इससे यही स्पष्ट होता है कि मिडिया हाउसेज़ को बस बिज़नेस से मतलब है। मीडिया को मैं सबसे अधिक ज़िम्मेवार मानता हूँ इस घटना को दबाने के पीछे। हमेशा की तरह बेहतरीन विश्लेषण एवं सारगर्भित संपादकीय के लिए हार्दिक साधुवाद तेजेन्द्र सर।

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