31 अक्तूबर 2021 के संपादकीय ‘भारतीय मीडिया…एक मजाक’ पर निजी संदेशों के माध्यम से प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं
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H/E Sangeeta Bahadur, Malta
Tejendra ji, Well–written! Totally Bollywood! I’m sure someone will soon make a film on this entire farcical episode, casting Wankhede as the villain and Aryan as the poor rich boy trapped by a corrupt system and fighting his way back to glory. Satyamev Jayate 3!
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सुरेश चौधरी, कलकत्ता
संपादकीय बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है।
कुछ प्रश्न मन मे उठते हैं सब तरफ़, 50 लाख की रकम एक पेशी की लेने वाले मुकुल रोहतगी और बाकी 50 लाख कम से कम बचे 20 भी लेटे होंगे मतलब 1 करोड़ एक पेशी के… पता नहीं कितनी पेशियां हुईं। 3 तो सतह है उसके बाद ड्राफ्टिंग बेल बांड प्रोसेस सब मिलकर करोड़ों का झटका।
आर्यन बड़े बाप का बेटा है… मैं तो अपनी जानता हूँ और जिस त्रासदी से गुजरा हूं अपनी पुस्तक ‘एक्सीडेंटल टूर’ में लिखा भी हूँ। किसी ने जाली हस्ताक्षर किए और अपनी कंपनी में सिर्फ एक महीने के लिए डायरेक्टर बनाया वह कंपनी 4 साल बाद किसी फ्रॉड में पकड़ी गई। उस कंपनी के शुरू से लेकर अंत टास्क सभी डायरेक्टर को जेल में डालने का वॉरन्ट निकल गया। 43 लोग को अरेस्ट भी किया गया।
मेरे वकील ने कोर्ट ने और जांच अधिकारी से कहा कि मेरी सिग्नेचर जाली है… आप वेरीफाई कर लो पर कोर्ट ने कहा आप सरेंडर होइये फिर जब तारीख पड़ेगी तब अपना पक्ष रखियेगा… मतलब डेढ़ दो साल जिला में सड़िये। मुझे छह महीने बाहर रहना पड़ा… फिर हाई कोर्ट से कुआशिंग पिटिसन दी तब यह कहा गया कि अपेरंटली जाली सिग्नेचर लगते हैं अतः 3 महीना इन पर कोई कार्यवाही न हो। इस बीच मैं सिद्ध करूं की जाली सिग्नेचर है। अब मैं कैसे सिद्ध करूँगा । जहां सिग्नेचर नकली है वह कागज उनके पास है। अपने नये सिग्नेचर देता हूँ तो कहते हैं ऐसा कागज भी लाइये।
यह है हमारा न्याय तंत्र। परंतु जिनके पास धन बल है उनके साथ सब संभव है।
मीडिया की बात न करें तो ज्यादा अच्छा है। एक विनोद शर्मा हैं जो कि हिंदुस्तान टाइम्स के एडिटर रहे हैं। उन्होंने फेसबुक पर शाहरुख खान का महिमामंडन किया। मैंने पूछा क्यों… तो कहते हैं उनके बेटे को कुछ लोगों ने उठा लिया था।
23 वर्ष का यह बच्चा है, नादान है और वे नौजवान 23-23 वर्ष के जो हमारी सीमा पर रक्षा करते शहीद हो गए वे क्या थे… अरे मीडिया कुछ शर्म बाकी है कि नहीं।
हमारी जनता जब चारा-चोर के जेल से निकलने पर स्वागत में ढोल बजाएगी… एक नशेड़ी के जेल से ज़मानत पर बाहर आने पर ढोल बजाएगी और मीडिया उसका महिमा मंडन करेगा तो सोच लीजिये की देश कभी इस पतन से बाहर नहीं आ सकता…
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शन्नो अग्रवाल, लंदन
आपकी इस बात से सहमत हूँ, तेजेन्द्र जी। कि यदि किसी बड़ी हस्ती को लेकर कोई निगेटिव खबर हुई तो मीडिया बड़ी फुर्ती से दौड़ती है उस तरफ। और फिर उसे सुर्खियों में लाने के लिये उस पर और रंग चढ़ाने लगती है। उस बात का तमाशा बना देती है। यही हुआ शाहरुख खान के बेटे आर्यन को लेकर।
शहजादों की तरह जिंदगी जीने वाले एक बच्चे को एन सी बी वालों ने दबोच लिया। और वह मीडिया के चंगुल में बुरी तरह फंस गया। किसी ने कहा कि उसके पास से ड्रग्स बरामद हुईं, और किसी का कहना था कि कोई भी ड्रग्स बरामद नहीं हुईं। पब्लिक किसकी बात पर विश्वास करे? पर इस वारदात को लेकर मीडिया ने राई का पहाड़ बना दिया।
उस बच्चे पर क्या-क्या न बीती, यह वही जानता है। उसके और भी साथी थे किंतु एन सी बी का पूरा फोकस आर्यन पर ही रखा गया। उसके वह सब साथी कहाँ गये? उन्हें क्यों छोड़ दिया गया? इस बात पर कोई खुलासा नहीं किया गया। लेकिन वानखेड़े के इस बखेड़े में आर्यन बुरी तरह फंस गया और उसे जेल भेज दिया गया।
उसके साथ उसके माँ-बाप शाहरुख खान और गौरी खान ने भी कितने आँसू बहाये होंगे और अपने लाड़ले के लिये कितना तड़फड़ाये होंगे, कोई उनके दिल से पूछे। महलों में रहने वाले राजकुमार ने जब जेल का खाना खाने से इनकार कर दिया तो कुछ दिन तक वह बिस्कुट और पानी के सहारे ही रहा। और वह पानी भी उसने बोतल खरीद कर पिया।
असल में वह कितना गुनहगार था या नहीं इसकी असलियत का किसी को अब तक पता नहीं। किंतु 28 दिन तक इतने पापड़ बेलने के बाद, माता-पिता की तमाम मन्नतों और वकीलों की कोशिशों से अब वह जेल से रिहा कर दिया गया है।
पब्लिक के तमाम सवालों को जूही चावला ने बस यह कहकर खामोश कर दिया, “उन सब बातों को जाने दीजिये। बच्चा अब बाहर है।”
जिंदगी की इस भयानक घटना ने आर्यन को अंदर से झकझोर कर रख दिया होगा।
ख़ैर, अंत भला तो सब भला। हैप्पी दिवाली आर्यन…!
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तरुण कुमार, ग़ाज़ियाबाद
तेजेन्द्र जी, हिंदुस्तान के मीडिया और न्याय व्यवस्था दोनों पर बहुत सटीक टिप्पणी की है आपने। कहते है कि जिस तरह सिनेमा समाज का दर्पण है, वैसे ही वास्तविक जीवन भी कई बार सुनहले पर्दे की रंगीनियों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। सचमुच हैरानी होती है कि एक छोटी सी घटना ने पूरे देश को लगभग एक महीने तक उलझाए रखा, और यह सब मीडिया के कारण हुआ।
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उषा साहू, मुंबई
31 अक्तूबर के पुरवाई अंक का संपादकीय पढ़ा । मीडिया की सच्चाई (?) सामने आ गई ।
आर्यन खान के मामले में जितनी तौहीन मीडिया की हुई है, कानून व्यवस्था भी उससे बच नहीं सकी। सारे के सारे टीवी चैनल, किसी न किसी राजनीतिक पार्टी के पिट्ठू हैं और उसी के तहत अपना चैनल चलाते हैं। अब वे तो वही बोलेंगे, जो उनके आका बोलेंगे।
जिनका आपने उल्लेख किया है वे सारे पुराने समाचार वाचक सब को याद हैं । घर में सभी ने एक-एक समाचार वाचक बाँट लिया था। माताजी को सरला माहेश्वरी और पिताजी को शम्मी नारंग और सलमा सुल्तान बहुत पसंद थीं। चूंकि सलमा सुल्तान भोपाल की थीं, इसलिए उनसे खास लगाव था। मेरी पसंद रिनी साइमन थीं, जो बाद में रीनी साइमन खन्ना हो गईं। हम लोगों ने उनका नाम चिंटू रखा था। जैसे ही वे आतीं सब लोग बोलते, उषा जल्दी आओ, आज चिंटू आई है । इतना सम्मान था उन सब का, जैसे वे घर की ही कोई सदस्य हों। साढ़े आठ बजते ही सब लोग टीवी के सामने बैठ जाते।
मीडिया कह रहा है, चलो इस बहाने आर्यन लाँच हो गया, लाँच हो गया या बदनाम हो गया? मीडिया ऐसे बदनाम प्राणी का क्षण-क्षण का ब्यौरा दे रही है। गलती तो उनकी भी है तो इस तरह के नकारात्मक समाचार को देखने या सुनने को उत्सुक रहते हैं।
इस सारे प्रकांड में, समीर वानखेड़े, नवाब मालिक और काशिफ़ ख़ान की गुत्थी, ऐसे उलझती जा रही है कि सुलझने का कोई ओर-छोर ही नहीं दिख रहा।
सच है आर्यन को उनके पिता श्री ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा कर, झिलमिलाते सिक्कों के बल पर जेल से बाहर निकाल लिया। उनका क्या होगा, जो इन्हीं गुनाहों (कभी-कभी बेगुनाह) के लिए जेल में बंद हैं। इसके लिए स्वयं न्याय व्यवस्था की, कटघरे में खड़े होने की बारी है।
हिन्दी सिनेमा में यही तो होता है। ईमानदार पुलिस अधिकारी, धूर्त राजनेता। राजनेता अपने बल से, ईमानदार पुलिस अधिकारी का सर्वनाश करने की कोशिश करता है और वह भी कर भी लेता है, जिससे दूसरा कोई “ईमानदार पुलिस अधिकारी” पैदा ना हो। तो क्या ईमानदार होना गुनाह है।
समझ में नहीं आता, बॉलीवुड मूवी को देखकर यह हो रहा है या, इसे देखकर, बॉलीवुड कोई (अच्छी) मूवी की सौगात देगा…?
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रचना सरन, कलकत्ता
यह संपादकीय सही मायने में हर साधारण नागरिक की सोच का प्रतिनिधित्व कर रहा है । समाचार निष्पक्ष होना चाहिए । आज के सभी समाचार चैनल्स समाचार कम, अपनी राय अधिक पेश करते हैं ..या कहें कि थोपते हैं । व्यूअरशिप बढ़ाने के प्रयोजन से ख़बरों को चटपटा बनाकर परोसा जाता है । ब्रेकिंग न्यूज़ को और ज़ोरदार बनाने के लिए एंकर्स जब ताण्डव शुरु कर देते हैं, हास्यास्पद लगने लगता है। ख़ामियाज़ा यह कि ड्रग्स जैसे गंभीर मुद्दे भी बस एंटरटेनमेंट का ज़रिया बनकर रह जाते हैं। इसके दूरगामी प्रभाव घातक हो सकते हैं ।
इस व्यवहार पर नियंत्रण अति आवश्यक है – ज़िम्मेदार मीडिया कर्मियों को इस दिशा में भी काम करना चाहिए।
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अतुल्यकीर्ति व्यास, मुंबई
एक-एक शब्द सटीकता से यथार्थ का चित्र खींच रहा है…
मीडिया ने अपना चेहरा विद्रूप कर लिया है…
राजनीति व्यक्तिगत भड़ास की बंदिनी बना दी गयी है…
आपका संपादकीय सत्य का विश्लेषण बिना किसी दया के करता है लेकिन रोचकता का तत्त्व अक्षुण्ण रखते हुए…
सादर…
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सविता शर्मा, आगरा
तेजेन्द्र जी, संपादकीय पढ़ा… दुखद स्थिति है, पत्रकारिता कितनी घटिया हो सकती है आजकल समाचारों को सुनकर जाना ही जा सकता है…
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जय वर्मा, नॉटिंघम (यूके)
तेजेन्द्र जी, बहुत विस्तार से आपने भारतीय मीडिया के ऊपर प्रकाश डाला है। शाबाश। भारतीय मीडिया सनसनी फैलाने के लिए प्रसिद्ध है। ख़बर बाद में आती है शोर पहले मचता है।
अंत आते-आते आप भूल जाते हैं की ख़बर सुन रहे थे या रोमांचक एवं तिलस्मी कहानी। आपको बहुत बधाई ।
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अरुण सभरवाल, लंदन
तेजेन्द्र जी, कहाँ से ढूंढ कर लाते हैं ऐसी खबरें। बहुत ही दःख स्थिति है। नैतिकता समाप्त हो चुकी है। बहुत ही सारगर्भित, अनेकों सवाल उठाता संपादकीय। शानदार लेख की लिए बधाई हो।
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भरत, अजमेर, राजस्थान
सर, आपने अच्छे से विश्लेषण किया है। मीडिया कर्मी अपनी राह से भटक रहें है। न्याय व्यवस्था में भी सुधार की आवश्यकता है।
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योजना साह जैन, जर्मनी
शर्मनाक! यही है आज के हिंदुस्तानी मीडिया का शर्मनाक चेहरा। इतने दिनों से आर्यन खान की खबर आधे से अधिक समय सारे चैनलों पर छायी है । भारत में बाकी सब सही है इस घटना के सिवा और कुछ दिखाने की ज़रूरत ही नहीं है।
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राजेन्द्र शर्मा, बालाजी टीवी (मुंबई)
वाह तेजेन्द्र भाई, बहुत ही जोरदार और झन्नाटेदार सम्पादकीय लिखा है। साधुवाद आपको। सच भी यही है। पूरा पढ़ा मज़ा आ गया। कई दिनों से मन में एक कुलबुलाहट सी चल रही थी इस विषय को लेकर। आपने उसे विस्तार से अपने सम्पादकीय में मन की बात सा रखा है। शुक्रिया।
कुछ पुराने समाचार वाचकों के नाम पढ़कर प्रसन्नता हुई।
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डॉ. पुष्पेन्द्र दुबे, इन्दौर, मध्यप्रदेश
आपका संपादकीय पढा। बहुत समसामयिक है। आपने जिन एंकर्स के नाम लिखे हैं, वैसे एंकर्स आज की तारीख में आउट आफ डेट हो गये हैं। अब एंकर्स विचारधारा के वकील बनकर उपस्थित होते हैं। उनका समाचारों से कोई रिश्ता नहीं रह गया है। न्यूज चैनल्स पर होने वाली उछल कूद को देखकर हंसी आती है। इतने महत्वपूर्ण माध्यम का उपयोग बचकाने तरीके से किया जा रहा है। भारतीय मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज को शब्दकोश से बेदखल करने की नौबत आ गयी है। सभी न्यूज चैनल्स पर एक जैसे नीरस समाचारों को प्रसारित किया जा रहा है।
मैंने पिछले एक वर्ष से टीवी चैनल्स और न्यूज देखना बंद कर दिया है। पिछले दो साल से समाचार पत्र पढना बंद कर दिया है। इसका जीवन पर सकारात्मक प्रभाव हुआ। समय की काफी बचत हो रही है। परिवार के साथ बैठकर हंसी मजाक का समय अधिक मिल रहा है। घरेलू लाइब्रेरी से पुस्तकें बाहर आ गयी हैं। उन्हें फिर से देखने का मजा ही कुछ और है।
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प्रगति टिपणिस, मॉस्को
बिलकुल सच। हमेशा की तरह सोचने पर मजबूर करता सम्पादकीय। आजकल हर ख़बर समाचार वाहकों के विचारों में लिपटी हुई मिलती है और सच्चाई का पता ही नहीं चलता। यही हाल गिरफ़्तारी और बाक़ी न्याय व्यवस्था का भी है। कुछ लोग बड़े-बड़े जुर्म करके खुली हवा में घूमते हैं और कुछ महीनों जेलों में सड़ते हैं।
नकारात्मक खबरें ही सुर्खियों में रहती हैं। न्याय की आस में कई जिंदगियाँ समाप्त हो जाती हैं।
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स्मृति शुक्ला (भारत)