Saturday, July 27, 2024
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महेश कुमार केसरी की लघुकथा – परिंदे की जात

लाल्टू ने घर को आखरी बार  निहारा l घर जैसे उसके सीने में किसी कील की तरह धँस गया था  l  उसने बहुत कोशिश की लेकिन, कील टस से मस ना हुआ l  उसने सामने खुले मैदान में नजर दौड़ाई  l सामने बड़े -बड़े पहाड़ खूब सूरत वादियाँ l कौन इस जन्नत को छोड़ कर जाने की बात भी सोचता है l लेकिन वो अपने बूढ़े बाप और अपने बच्चों का चेहरा याद करता है l तो ये घाटी अब उसे मुर्दों का टीला ही जान  पड़ती  है l इधर घाटी में जबसे मजदूरों पर हमले बढ़ें हैं  l उसके पिताजी और उसके बच्चों का हमेशा फोन आता रहता है l  कि कहीं कुछ… l  उसके बूढ़े पिता कोई  बुरी घटना घाटी के बारे में सुनतें नहीं कि उसका मोबाइल घनघना  उठता है l चिंता की लकीरें लाल्टू के चेहरे पर और घनी हो जातीं हैं   l
बूढ़ा असगर जाने कबसे आकर लाल्टू के बगल में खड़ा हो गया था l  उसकी नजर अचानक बूढ़े असगर पर पड़ी  l
लाल्टू झेंपता  हुआ बोला – ”  अरे चचा आईये बैठिये..l  “
” तुमने,   तो  जाने का  इरादा कर ही लिया है  l तो मैं क्या कहूँ..? लो यह पश्मीना साल है.. l रास्ते में ठंँढ़ लगेगी तो ओढ़ लेना l   ”  असगर चचा ने  तह किये हुए साल को पन्नी से निकाला और लाल्टू के कंँधे पर डाल दिया l
इस अपनत्व की गर्मी के रेशे ने एक बार फिर, से लाल्टू की आँखें नम कर दीं l
असगर चचा ने धीरे – से उसके कँधे दबाये l  और हाथ से उसके कँधे को बहुत देर तक सहलाते रहें l
असगर चचा को कहीं ये एहसास हुआ कि ज्यादा देर तक वो इस तरह रहें  l तो उनकी भी आँखें भीगनें लगेंगी l
उन्होनें विषयांतर किया , और बोले- ” चाय पियोगे.. ? “
लाल्टू  ने हाँ में सिर हिलाया l
बूढ़े असगर ने नदीम को आवाज़ लगाई – ” नदीम जरा दो कप चाय दे जाना  l थोड़ी देर में नदीम दो प्यालों में गर्मा- गर्म चाय   लेकर आ गया   l “
चाय पीते हुए बूढ़ा असगर बोला – ” ठीक, है अब तुम भी क्या कर सकते हो  ? जब यहाँ लोग ड़र के साये में जीने को मजबूर हैं l वहाँ तुम्हारे वालिद और बच्चे परेशान हैं l  यहाँ क्या है  ? फुचके अब ना  बिकेंगे l तो चाय बेचने  लगूँगा l  आखिर कहीं भी रहकर कमाया – खाया जा सकता है  l तुम जहाँ रहो खुश रहो l अपने वालिद और अपने बच्चों को देखो l जमाना बहुत खराब आ गया l पहले लोग इंसानियत और कौम के लिए जान दे देतें थें l लेकिन, अब इन नालायकों को जेहाद और आतंकवाद के अलावे कुछ नहीं सूझता l जेहाद बुराई को खत्म करने के लिए किया जाता है  l बुरा बनने के लिए नहीं  l इस्लाम में कहीं नहीं लिखा है l कि बेगुनाहों, और मजलूमों को कत्ल करो l ये सब वही लड़कें हैं l जिन्हें धर्म के नाम पर उकसाया जाता है l और सीमापार बैठे हुक्मरान इनसे खेलतें हैं l “
बहुत देर से चुप बैठा नदीम भी आखिरकार चुप ना रह सका  l  बोला  – ” तमिलनाडु में एक कंपनी ने तो एक ऐसा विज्ञापन निकाला है l जिसमें लिखा है कि  वो नौकरियाँ केवल हिंदुओं को देगा  l  मुसलमानों को नहीं !
आखिर जो हो रहा है l एकतरफा तो नहीं  हो रहा है ना  l “
अचानक से चचा के शब्दों में अफसोस उतर आया  l  वो नदीम को घूरते हुए बोले – ” आज सालों पहले लाल्टू यहाँ आया था l और पता नहीं कितने मजदूर यहाँ काम की तलाश में आयें होंगे l  ये देश जैसे तुम्हारा है वैसे लाल्टू का भी है l कोई भी कहीं भी देश के किसी भी हिस्से में जाकर मजदूरी कर सकता है l  कमाने- खाने का हक सबको है l लाल्टू    आज भी मुझे अपने वालिद की तरह ही मानता है  l गोलगप्पे  मैं बेलता हूँ    l छानता वो  है l रेंड़ी मैं  लगता हूँ   l रेंड़ी धकेलता वो  है l   मैंने   कभी तुममें और लाल्टू में अंतर नहीं किया  l बेचारा हर महीने जो कमाता है l अपने घर भेज देता है l साल – छह महीने में वो कभी घर जाता है l तो अपने बूढ़े बाप और बाल बच्चों से मिलने l मेरा खुदा गवाह है  l कि मैंने कभी इसे दूसरी किसी नजर से देखा हो l  इस ढंँग की हरकतें सियासदाँ करें l उनको शोभा देता होगा l  हम तो इंसान हैं ऐसी गंदी हरकतें हमें शोभा नहीं देतीं  !  हम तो मिट्टी के लोग हैं l  और हमारी जरूरतें रोटी पर आकर सिमट जाती है l  रोटी के आगे हम सोच ही नहीं पाते l  हिंदू – मुसलमान भरे-  पेट वालों  लोगों के लिए होता है l  खाली पेट वाले रोटी के पीछे दौड़ते हुए अपनी उम्र गँवा देतें हैं l  इसलिए नदीम दुनियाँ में आये हो तो हमेशा नेकी करने की सोच रखो  l  बदी से कुछ नहीं मिलता  बेटा  l  बेकार की अफवाहों पर ध्यान मत दो बेटा  l  इस तरह की अफवाहों पर कान देने से अपना ही नुकसान है  , नदीम l ऐसी अफवाहें घरों में रौशनी नहीं करतीं  l  ना ही शाँति के लिये कँदीलें जलातीं हैं l बल्कि पूरे घर को आग लगा देतीं हैं l मै उन नौजवानों से भी कहना चाहता हूँ l जो इस तरह के कत्लो- गारत में यकीन रखतें हैं l बेटा उनका कुछ नहीं जायेगा  l लेकिन तबतक हमारा सबकुछ जल जायेगा  ! “
बाहर की खिली हुई धूप में कुछ कबूतर उतर आयें थें l  बूढ़ा असगर गेंहूँ  के कुछ दाने कोठरी से निकाल  लाया  l   और, उनकी तरफ फेंकनें लगा l  ढ़ेर सारे  कबूतर वहाँ दाना चुगने लगें  l
बूढ़ा असगर, उनकी ओर ऊँगली  दिखाते हुए लाल्टू  और नदीम से बोला – ” देखो ये हमसे  बहुत बेहतर  हैं l अलग- अलग रंँगों के होने के बावजूद ये एक साथ बैठकर दाना चुग रहें हैं  l ये बहुत बुद्धि मान नहीं हैं l फिर, भी ये आपस में कभी नहीं लड़तें  l लेकिन, आदमी इतना बुद्धि मान होने के बावजूद भी  जातियों और मजहबों में बँटा हुआ है l  इन कबूतरों से आदमी को बहुत सीखने की जरूरत है l “
लाल्टू ने नजर दौड़ाई दोपहर धीरे- धीरे सुरमई शाम में तब्दील होने लगी थी l  उसने एक बार रेंड़ी को छुआ l  फिर, उन बर्तनों पर सरसरी निगाह दौड़ाई l बिस्तर को निहारा  l ये सब वो आखिरी बार निहारा रहा था l पिछले दस- बारह  सालों से वो कश्मीर के इस हिस्से में रेंड़ी लगाता आ रहा था l  सब छूटा जा रहा था ..!
उसकी बस किनारे आकर लगी l  लाल्टू चलने को हुआ  l
बूढ़ा असगर दौड़कर बस तक आया l  उसने लाल्टू को सीने से लगा लिया l  लाल्टू और बूढ़ा दोनों रोने लगे l
बूढ़ा असगर बोला –  ” अपना ख्याल रखना  ! कभी हमारी याद आये l और हालात ठीक हो जायें तो चले आना  l “
” आप भी.. अपना ख्याल रखना.. बाबा..! ” झेंपता हुए वो बस की सीट पर बैठ गया  l  उसने बैग से पश्मीना शाॅल निकाला और ओढ़ लिया  l  सुरमई शाम धीरे – धीरे रात में बदल  गई l
महेश कुमार केशरी
महेश कुमार केशरी
महेश कुमार केशरी झारखण्ड के निवासी हैं. कहानी, कविता आदि की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. अभिदेशक, वागर्थ, पाखी, अंतिम जन , प्राची , हरिगंधा, नेपथ्य आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित. नव साहित्य त्रिवेणी के द्वारा - अंर्तराष्ट्रीय हिंदी दिवस सम्मान -2021 सम्मान प्रदान किया गया है. संपर्क - [email protected]
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