रंजना के घर तक जाने के लिए दिलीप को यहाँ से पैदल ही जाना होगा। अपना स्कूटर उसने बाहर ही गली के मुहाने पर खडा कर दिया है। उसे वहीं खड़ा करने का कारण इतना ही है कि गली बेहद तंग है। पुराने शहर की इस गली में तरतीब से एक के बाद एक दुकानें ही दुकानें हैं। ऐसा नहीं है कि यहाँ घर नहीं हैं। मगर गली के हर घर के ग्राउंड फ्लोर पर सिर्फ और सिर्फ दुकानें ही हैं।
इन दुकानों के मालिक इनके ऊपर बने दोमंजिला या तीन मंजिला घरों में रहते हैं। ज़्यादातर घरों में एकल परिवार ही रह गए हैं। वक़्त के साथ इस शहर में भी संयुक्त परिवार की परम्परा ख़त्म होती जा रही है। जैसे ही परिवार थोड़ा बड़ा होने लगता है, उसका सबसे छोटा सदस्य अपनी नन्ही सी इकाई को लेकर एक अलग घर में रहने चला जाता है। अक्सर इस इकाई में उसकी पत्नी और एक बच्चा होते हैं। वैसे यूँ भी देखा गया है कि कुछ परिवारों में बेटे की शादी के साथ ही अलग घर में रहने की नयी परंपरा शुरू हो गयी है। अब इसे ज़माने की चाल कहें या फिर संबंधों में आने वाला ठंडापन, सच तो यही है।
खैर! इन दुकानों में सर में लगाने वाले तेल से लेकर, खमीरी रोटी, पकी हुई सब्जी-दाल, राशन का सामान, सूती, सिल्क और पालिएस्टर का कपडा, सिले सिलाये वस्त्र, सोने चांदी और नकली जेवर से लेकर तमाम ऐसी चीजें मिलती हैं जो आज की तारीख में किसी भी परिवार को जिंदा बनाए रखने के लिए जरूरी है। बिलकुल किसी छोटे से शहर की किसी भी आम गली की तरह जिसका बाजारीकरण हो चुका है। दरअसल जिस तरह से देश की आबादी पिछले दो दशकों में बढी है इसके अलावा इन गलियों के वासियों के पास कोई चारा ही नहीं रहा कि वे अपने एक मंजिला घरों को दुकानें बना कर खुद ऊपर की तरफ दो-एक मंजिल जोड लें और वहीं रहने लगे।
इस तरह इन देशवासियों की कई समस्याओं का हल निकल आया है। मसलन आमदनी का एक ठोस और बंधा बधाया जरिया और घर के बेहद पास सब चीजों का मिल जाना। मगर उन सब चीजों में एक चीज ऐसी भी है जो यहाँ तो क्या दुनिया के किसी भी बाजार में नहीं मिलती। यानि खुशी। बस इसी की तलाश में यहां के निवासी सुबह होते ही नहा-धो कर या बिना नहाए-धोए भी खुशबू छिडक कर, धुले हुए कपड़े पहन कर दुनिया के दूसरे कारोबार करने निकल पड़ते हैं।
ये दूसरे कारोबार इस गली के कारोबारों से कुछ अलग यूं होते हैं कि इन कारोबारों से एक मुश्त मोटा पैसा हाथ लग जाता है। और जाहिर है आप हम में से बहुत लोगों को यह मुगालता जिंदगी भर बना रहता है कि मोटा पैसा खुशियां खरीदने के काफी काम आ सकता है। इसी आपाधापी में लगे इस गली के लोगों में से एक है रंजना।
रंजना भी हर रोज सुबह उठते ही नहा धो कर अपने घर के छोटे से मंदिर में पूजा कर के अपनी मां के हाथ का बना नाश्ता करती है। फिर मां के हाथों धुले हुए एक जोडी कपड़ों को प्रेस कर के पहन लेती है। ताकि चकदक होकर एकमुश्त रकम कमाने की अपनी जद्दोजहद के चलते साढे नौ बजने से दो मिनट पहले उस पुराने से सीलन से भरे दफ्तर में अपनी कुर्सी पर बैठ सके। दिन भर यहाँ बैठ कर वो अपनी माँ देवकी के कुछ छूट चुके सपनों की तामीर खड़ी करने की मुहिम में जुट जाती है।
ये कुर्सी जिस पर बैठ कर रंजना दिन भर मेहनत करती है, रंजना के जरा सा हिलते ही खासी हिलने लगती है। सो रंजना सामने रखी कुर्सी से भी पुरानी मैलखाई हुई बडी सी मेज में अपने पैर अडा कर बैठती है। और इस मशक्कत के चलते शाम तक उसकी कमर और पिंडलियों का बैंड बज जाता है। लेकिन उसे इस बात का सुकून है कि वह हर महीने की तीसरी तारिख को माँ के हाथ में एक मुश्त अच्छी सी रकम रख देती है। उसने बहुत पहले ही जान लिया था कि खुशियों के लिए पैसा कमाना बेहद जरूरी है। जिंदा रहने के लिए सिर्फ दाल रोटी ही तो नहीं चाहिए होती।
दाल रोटी के लायक तो रंजना की मां देवकी अपने घर के निचले हिस्से में बनी अपनी परचून की दुकान से कमा ही लेती हैं। इस दूकान की कहानी भी बेहद दुःख भरी है। रंजना के पिता बड़े हसीं और जवांमर्द इंसान थे। इस बात का अंदाज़ा देवकी और फिर देवकी की बेटी रंजना को देख कर आसानी से लगाया जा सकता है।
देवकी और भानु प्रताप अपनी शादी के बाद से एक खुशहाल ज़िंदगी बिता रहे थे। यह घर जिसमें आज माँ बेटी रहती हैं, उनका पुश्तैनी घर था, जिसमें वे अपनी विधवा माँ यानि कि देवकी की सास के साथ रहते थे। दिन मज़े से कट रहे थे। भानु प्रताप एक सरकारी दफ्तर में यू। डी।सी। के पद पर काम कर रहे थे। देवकी किफ़ायत से घर चलाती थी। सास और नन्ही बच्ची रंजना की देखभाल प्रेम से करती थी। कि अचानक एक दिन भानु प्रताप को अपने गले में पानी पीते वक़्त एक गाँठ सी महसूस हुयी।
कुछ दिन तो उन्होंने इस बात को अनदेखा किया मगर ये गाँठ कुछ ही दिनों में बढ़ गयी और उन्हें मजबूरन डॉक्टर के पास जाना पडा। बढ़िया स्वास्थ्य के मालिक, रोज़ सुबह उठ कर योग करने वाले भानु प्रताप के लिए डॉक्टर के पास जाना ही अपने आप में जैसे हार स्वीकार कर लेना था। और उस एक बार के बाद तो अस्पताल जाना मानो उनकी दिनचर्या का एक हिस्सा ही बन गया। कई तरह के टेस्ट और जांच के बाद जो बात सामने आयी उसको सुनने के बाद देवकी तो जैसे ढह ही गयी थी। भानु प्रताप खुद कहाँ संभल पाए थे।
कुछ बोल ही नहीं पाए जब डॉक्टर ने कहा, “ देखिये भानु प्रताप जी, मैंने सब टेस्ट और बायोप्सी की रिपोर्ट देख ली है। आप को थाइरोइड का कैंसर है। हम हर संभव कोशिश करेंगें कि इस प्रक्रिया को रोकें, मगर किसी भी तरह का वादा करने में मैं असमर्थ हूँ। आप खुद को संभालें और अपने परिवार को भी। फिलहाल मैं ये दवाएं लिख रहा हूँ। दर्द के लिए धीरे धीरे आपकी डोज़ बढ़ानी होगी। ऑपरेशन करेंगें हम। पहले आप की स्थिति थोड़ी स्टेबल हो जाए।”
देवकी को किसी तरह वे घर लाये थे। हालाँकि खुद भी भीतर से हिल गए थे। मगर ज़ाहिर नहीं होने दिया। उस दिन के बाद से तो जैसे एक दौड़ शुरू हो गयी भानु प्रताप की। अपने स्वास्थ्य के लिए संघर्ष के साथ ही उनका संघर्ष देवकी को ये समझाने का हो गया कि देवकी को अपने पैरों पर खड़ा होना है। माँ की और नन्ही रंजना की भी ज़िम्मेदारी अब देवकी पर ही आने वाली थी। देवकी दसवीं पास थी। इतना वक़्त नहीं था इस छोटे से परिवार के पास कि देवकी अपनी योग्यता बढ़ा कर कोई अच्छी सी सरकारी नौकरी पा सकें। बहुत सोच-विचार के बाद भानु प्रताप ने देवकी को इस बात के लिए राजी किया कि गली के कुछ और लोगों की तरह वे भी अपने निचले हिस्से में एक परचून की दूकान खोल लें।
और इस तरह ये दुकान खुली। भानु प्रताप ने अपने प्रोविडेंट फण्ड से पैसा निकाल कर दूकान में लगाया। आस-पास के लोग देवकी के मृदु स्वाभाव से पहले ही प्रभावित थे। दूकान जल्दी ही चल निकली। और इसके चल निकालने के साथ ही भानु प्रताप के स्वस्थ्य में दिन पर दिन गिरावट शुरू हो गयी। जैसे वे देवकी के आत्मनिर्भर होने की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। उनका कैंसर कीमो थेरेपी से नहीं सुधरा। और तेज़ी से पूरे शरीर में फैल गया।
जिस वक़्त भानु प्रताप का देहांत हुआ रंजना डेढ साल की थी। रिश्तेदारों ने कुछ दिन देवकी के दुःख में आना-जाना किया मगर देवकी जानती थी जब शोक के दिन बीत जाएंगे तब अपने अकेलेपन और जिम्मेदारियों के बीहड़ से उसे अकेले ही गुज़रना है। रिश्तेदार भी उसी सूरत में उससे रिश्तेदारी निभाएंगे जब उनके आने पर चाय के साथ नाश्ता ट्रे में रख कर मुस्कान के साथ वह उनका स्वागत करेगी।
नन्ही रंजना की भविष्य भी तो अब देवकी की सूझबूझ पर ही निर्भर करता था। सास अपने जवान बेटे की ऐसी दर्दनाक मौत का सदमा नहीं झेल पायीं। छह महीने बाद ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा। अस्पताल में चार दिन रहीं। दूसरा दौरा पड़ा और वे भी बेटे की राह चल दीं।
अब देवकी थी, नन्हीं रंजना और ये परचून की दूकान। कई उतार चढ़ाव और मौसम दोनों ने देखे। रंजना पढ लिख कर इस कुर्सी पर बैठने लायक हो गई है। इस बीच देवकी की आंखें कमजोर हुई, बाल पक गए, घुटने अकड गए, कंधे ढलक गए मगर सर शान से ऊंचा रहा। आवाज में कडक बनी रही या यूं कहें कि आवाज की बुलंदी कुछ और धारदार हो गई। लेकिन रंजना के लिए उस आवाज मे हमेशा एक रेशमी नरमी बनी रहती है।
रंजना ने देवकी को दिन रात घर और दूकान में जूझते हुए देखते ही जवानी की दहलीज़ पर कदम रखे हैं। गोरा रंग और तीखे नैन-नक्श की स्वामिनी देवकी ने जाने कितने ही देवर, जेठ और कथित भाइयों के दबे और मुखर स्वरों में आने वाले प्रस्तावों को नकारा है, ये दुनिया भी जानती है। देवकी के सामने अपना और रंजना का भविष्य था और थी एक सधी हुई चाल।
एक बात और हुयी। वो ये कि इस सारे झमेले और तामझाम के बीच इन मां बेटी की जोड़ी के अलावा एक और शख्स भी इस घर की दरो-दीवार का खैरख्वाह हो गया था। दिलीप कुमार। बरसों पहले दिलीप इसी गली के एक कमरे में किराएदार की हैसियत से रहने आया था। आठ बाई दस के एक कमरे में एक लोहे के पलंग पर रुई का गद्दा, चादर, एक तकिया और हल्की सी रज़ाई । बस! यही उसकी जागीर थी।
कमरे के दूसरे कोने में एक बत्ती वाला स्टोव, दो थालियां, दो कटोरियां, एक भगौना, तवा, चकला बेलन, तेल की बोतल, मसालदानी और आलू प्याज; ये सब उसकी गृहस्थी थे। जब कुछ खत्म हो जाता तो देवकी की दुकान पर जाता, आंख नीची रखे-रखे सौदा खरीदता और आकर रोटी सब्जी पका कर, खा कर बाहर नल पर बरतन धो कर अपने काम पर निकल जाता।
ऐसे ही एक रविवार के दिन जब दिलीप खाना खा कर बाहर के नल पर अपने बर्तन धो रहा था तो एक दर्दभरी चीख से चौंक उठा था। आठ बरस की रंजना साइकिल चलाना सीख रही थी और गिर गई थी। साइकिल उसने शरारत में गली के ही एक दुकानदार की ले ली थी, जो ज़ाहिर है बड़े लोगों की साइकिल थी। रंजना मुश्किल से उसे संभाल पा रही थी। मगर साइकिल सीख लेने की जिद में उसके दोनों घुटने बुरी तरह छिल गए। देवकी उस वक्त सदर बाजार से दुकान के लिए सामान लेने गई हुई थी।
गली में रंजना की चीखें गूंज रही थीं। आस पडोस की खिडकियां दरवाजे खुले, हलचल हुई। पड़ोस की महताब आंटी ने उसे उठाया। धुल-मिट्टी झाड़ी। रंजना को पुचकारा भी। मगर उसका रोना बंद नहीं हुआ तो नहीं हुआ। उधर जिनकी साइकिल थी वे भी आ पहुंचे थे। साइकिल का हैंडल बुरी तरह से टेढ़ा हो चुका था। उन्होंने एक रोष पूर्ण नजर बच्ची पर डाली। मगर खामोश रहे। साइकिल उठायी और उसकी मरम्मत के लिए उसे घसीट कर दूसरी गली में ले गए जहाँ साइकिल मरम्मत करने की दूकान थी।
इस सारी कवायद के बीच रंजना का रोना बदस्तूर जारी रहा। उसके घुटनों से खून बह रहा था। ज़ाहिर है उसे बेहद दर्द भी हो रहा था। महताब ने बहुत कोशिश की किसी तरह उसे इस बात के लिए राजी कर सके कि वह उसके घर के अन्दर चले और वे उसकी चोट को धो कर उस पर मरहम पट्टी कर सके। मगर रंजना तो दर्द के साथ खून बहता देखा कर तो डरी हुयी थी ही। साथ ही उसे इस बात का भी डर था कि माँ जब आयेगी तो उसे और डांट पड़ने वाली है। ये बात उस बार बार याद आती और वो और जोर से रोने लगती।
दिलीप काफी देर तक तो ये सारा मंज़र खामोशी से देखता रहा। इस बीच उसने अपने बर्तन धो कर अपने कमरे में रख दिए थे। आखिर कार उससे रहा नहीं गया। वह पास आया और उसने रंजना को अपनी गोद में उठा लिया।
“भाभी आप साथ चलें। अगली गली में डॉक्टर सिंह का क्लिनिक है। बच्ची को वहीं ले जाते हैं। इसकी पट्टी करवाना ज़रूरी है। वर्ना इन्फेक्शन होने का खतरा है।”
रंजना प्यार भरी गोद पा कर और अपनत्व का आश्वासन पा कर खामोश हो गयी थी। शायद रोती-रोती थक भी गयी थी।महताब ने कहा, “ आप ले जाइये भैया। घर में छोटा बच्चा सो रहा है। कोई और नहीं है घर पर। मैं नहीं जा पाऊँगी। इसकी मम्मी आ गयीं तो मैं उन्हें भेज दूंगी।”
“ठीक है।” कह कर दिलीप रंजना को गोद में उठाये उठाये ही डॉक्टर के क्लिनिक पर ले गया। दवा पट्टी करवाई। डॉक्टर भी खुशमिजाज़ था। उसने रोती हुयी रंजना को पहले तो चॉकलेट दी। फिर उसकी मरहम पट्टी की। पन्द्रह मिनट बाद जब हाथ पकडे हुए दोनों क्लिनिक से निकले तब तक दिलीप और रंजना में दोस्ती हो चुकी थी।
उसी दोस्ती का दामन पकड़ कर दिलीप ने आगे बढ़ते हुए पूछा था, “ तो बहादुर बच्चे। आप आइस क्रीम खाओगे?”
अब इतना बड़ा प्रलोभन कौन सा बच्चा ठुकरा सकता है? सहमी हुयी रंजना ने फ़ौरन हामी भर दी थी। आइस क्रीम तो ख़त्म हो गयी थी। मगर दोनों की गप्पे उस वक़्त भी चल ही रही थीं जब देवकी घर लौटी। दोपहर ढलने वाली थी। मगर यहाँ इन दोनों की दोस्ती परवान चढ़ गयी थी।
उस दिन के बाद से दिलीप खुले मन से दूकान पर आता और रंजना के स्कूल का होम वर्क करवाता। जब देवकी को घर में कोई काम होता या सामान लेने मेन बाज़ार जाना होता तो दूकान संभाल लेता। तो एक तरह से वह घर का सदस्य ही बन गया था। घर की दीवारों और छत की ही तरह देवकी और रंजना ने भी दिलीप की उपस्थिति को एक अपरिहार्य सत्य की तरह स्वीकार कर लिया। वक्त बहता रहा और तीनों ही पृथ्वी वासी पृथ्वी की ही तरह अपनी अपनी धुरी पर घूमते जीवन चक्र के खेल में लगे जूझते रहे।
दिलीप अपने पिता से झगड़ कर घर छोड़ कर यहां अपना वनवास काट रहा था। यहीं रहते हुए उसने अपनी एम। फिल। पूरी की। फिर शहर के एक सरकारी कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हो गया। उसने गली में ही दो कमरों का घर ले लिया था। खाना पकाने और सफाई के लिए एक आया रख ली थी। यहाँ से जाने का उसका कोई विचार नहीं था। देवकी और रंजना ही उसका परिवार बन गए थे। दिन बीत रहे थे। रंजना बड़ी हो रही थी। देवकी के सर के बाल पक रहे थे। और फिर एक दिन अचानक ही दिलीप के पिता आये थे।
वे उसे लिवा ले जाने आये थे। दिलीप की मां की यही अंतिम इच्छा थी। दिलीप माँ के अंतिम संस्कार में शामिल हुआ था। मगर पिता की जिद के चलते माँ के जीते जी उससे मिल नहीं पाया था। उन दिनों में इसी घर और देवकी रंजना के प्रेम ने उसे जीने की राह दिखाई थी। खामोशी से ये घर हर सदस्य के मन की ऊहापोह को कभी चुपचाप तो कभी आंसुओं की राह बहते हुए देखा करता था।
दिलीप नहीं जाना चाहता था मगर देवकी ने समझा-बुझा कर उसे अपने पिता की तरफ अपने दायित्व का बोध याद दिला कर भेजा था। रंजना कई दिनों तक रोती रही थी। फिर उसने दिलीप के सप्ताहांत पर एक पूरे दिन के लिए आने पर संतोष कर लिया था। फिर ये सिलसिला भी कम हो गया था। दिलीप की शादी हो गयी थी। रंजना पर पढ़ाई का बोझ बढ़ गया था। देवकी पर और धन कमाने का। आखिर बेटी को उच्च शिक्षा भी तो दिलानी थी। उसने अपनी दूकान का नवीनीकरण करवाया और कई तरह की मॉडर्न चीज़ें रखनी शुरू की। अब तो दूर से ही देवकी की दूकान सबसे अलग सजी-धजी नज़र आती है।
इस सारे परिवर्तन के बावजूद दिलीप का मन यहीं बसा रह गया था। उसी से मिलने मिलाने, जीवन को जीने लायक बनाने, घर के सुख को आत्मा से महसूस करने इस गली से दिलीप का नाता बना ही हुया है।
दिलीप आज भी आया है। वक्त के साथ गली कुछ और तंग हो गई है। अपना स्कूटर हमेशा की तरह गली के मुहाने पर लगा कर वह देवकी के पास आकर उसके पैर छू कर सामने रखी प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठ गया है। पंद्रह बरसों में दिलीप का बदन भी कुछ भारी हो गया है। बालों में कहीं कहीं चांदी झाकने लगी है। चश्मे का लैंस मोटा हो गया है।
देवकी हमेशा की तरह मुस्कुरा कर कहती है, ” तू संभाल दुकान। मैं तेरे लिए पोहा चाय बना कर लाती हूं।” मगर आज दिलीप ने फौरन हामी नहीं भरी। आधी उठ चुकी देवकी को हाथ पकड़ कर वापस बिठा दिया।
” ना, आज मिठाई खाएंगे। पोहा और चाय बाद में। ये पकड़। रंजू को आने दे। पांच मिनट में पहुंचने वाली है।”
कह कर हल्दीराम का मिठाई का डिब्बा काउंटर पर रख दिया उसने। आवाज में उल्लास छलका पड़ रहा था।
देवकी की हंसी भी निकली निकली पड़ रही थी।
” तो तेरे को सब पता है। चोट्टे। ” प्यार से दिलीप के सर पर चपत लगाई देवकी ने ।
” आपसे भी पहले से। रौनक से सबसे पहले तो मुझे मिलाया था रंजू ने। आपसे भी पहले। “
” जे बात। आने दे इस रंजू की बच्ची को। ” स्वर में गुस्सा भरी देवकी की आंखें छलक ही आई थीं। आगे बोल नहीं पाई।
दिलीप ने फिर पांव पकड़ लिए।
” ना। आज के दिन नहीं। आज आंसू ना टपके एक भी। ” कह कर खुद उसने कमीज की आस्तीन से अपनी आंखें पोछी थी।
देवकी साड़ी के पल्लू से चेहरा रगड़ रही थी। रंजना आज रौनक के साथ घर आ रही थी। कोर्ट में शादी की अर्जी देकर।
” तू कौन लगता है रे हमारा? ” देवकी ने शायद हजारवीं बार पूछा था।
दिलीप ने हर बार की ही तरह वही जवाब दिया था।
” मैं दिलीप लगता हूं आपका और आप देवकी लगती हैं मेरी। रंजू रंजू लगती है मेरी। “
रंजना और रौनक दरवाजे से अंदर दाखिल हो रहे थे।
तंग गली के बाज़ार की इस दूकान में खुशी ने आज बरसों बाद कदम रखा था।