Saturday, July 27, 2024
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अखिल भण्डारी की दो ग़ज़लें

1- सब उसे पहचानते थे इस क़दर कोई नहीं
सब उसे पहचानते थे इस क़दर कोई नहीं
उस के मरने की ख़बर है चश्म-ए-तर कोई नहीं 
कू-ब-कू बिखरा हुआ है इस तरह मेरा वजूद
जिस्म जैसे सैंकड़ों हैं और सर कोई नहीं 
मैं भी ज़िंदा हूँ मगर इस की गवाही कौन दे
दोस्त हैं मेरे बहुत पर मोतबर कोई नहीं 
इस अँधेरी राह से खुद ही गुज़रना है मुझे
गुमरही मेरा मुक़द्दर राहबर कोई नहीं 
उन दरीचों से कोई तो झाँकता था रात दिन
अब उधर क्या देखते हो अब उधर कोई नहीं 
इक ज़माना था मुझे लगता था घर सारा जहाँ
अब ये लगता है कि जैसे मेरा घर कोई नहीं  
किस तरह महफ़ूज़ रक्खें अपनी हस्ती को यहाँ
इक ख़ला चारों तरफ़ दीवार-ओ-दर कोई नहीं  
2- शाख़-ओ-शजर की तन्हाई क्या गुलशन का वीराना क्या
शाख़-ओ-शजर की तन्हाई क्या गुलशन का वीराना क्या
ये   पंछी   तो   आवारा   हैं   इन  का ठौर ठिकाना क्या 
सहराओं में जा कर रहना और ख़ुद से उकताना क्या
तन्हाई  में   दीवारों  से   अपना  सर  टकराना  क्या
अहल-ए-ख़िरद की लफ़्फ़ाज़ी क्या दुनिया को उलझाना क्या
जिन  बातों  को  ख़ुद  नहीं  समझे  औरों  को समझाना क्या
चलते  चलते  बे-ख़बरी  में  आ  निकले  हैं  दूर  बहुत
अब इस रात के पिछले पहर में वापस लौट के जाना क्या 
मिलने  और  बिछड़ने  का  इक  मामूली सा क़िस्सा था
लेकिन  लिखने  वालों  ने  भी लिख डाला अफ़साना क्या 
ऐसा मिलना भी क्या मिलना दोनों ही चुप बैठे हैं
अब ये रिश्ते टूट चुके हैं अब ये आना जाना क्या 
दर-बदरी फ़ितरत है अपनी पाँव में इक ज़ंजीर भी है
दिन भर तो आवारा फिरना रात गए घर आना क्या
पत्थर-बाज़ी तो शहरों में अक्सर होती रहती है
एक ज़रा सी चोट पे यारो इतना भी चिल्लाना क्या  
हम रखते हैं खुद पे भरोसा कितना भी हो वक़्त कठिन
हम ने सब को देख लिया है अपना क्या बेगाना क्या 
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