अखिल भण्डारी की दो ग़ज़लें
सब उसे पहचानते थे इस क़दर कोई नहीं
कू-ब-कू बिखरा हुआ है इस तरह मेरा वजूद
मैं भी ज़िंदा हूँ मगर इस की गवाही कौन दे
इस अँधेरी राह से खुद ही गुज़रना है मुझे
उन दरीचों से कोई तो झाँकता था रात दिन
इक ज़माना था मुझे लगता था घर सारा जहाँ
किस तरह महफ़ूज़ रक्खें अपनी हस्ती को यहाँ
शाख़-ओ-शजर की तन्हाई क्या गुलशन का वीराना क्या
सहराओं में जा कर रहना और ख़ुद से उकताना क्या
अहल-ए-ख़िरद की लफ़्फ़ाज़ी क्या दुनिया को उलझाना क्या
चलते चलते बे-ख़बरी में आ निकले हैं दूर बहुत
मिलने और बिछड़ने का इक मामूली सा क़िस्सा था
ऐसा मिलना भी क्या मिलना दोनों ही चुप बैठे हैं
दर-बदरी फ़ितरत है अपनी पाँव में इक ज़ंजीर भी है
पत्थर-बाज़ी तो शहरों में अक्सर होती रहती है
हम रखते हैं खुद पे भरोसा कितना भी हो वक़्त कठिन
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