योगेश त्रिपाठी के दो महत्त्वपूर्ण नाटक…

  • संगम पांडेय

वरिष्ठ नाटककार योगेश त्रिपाठी के नाटक ‘1857 एक अविजित विजय’ में 1857 के विप्लव में रीवा राज्य की भूमिका और हालात को दिखाया गया है। 1857 के विद्रोह में रीवा की स्थिति बाकी जगहों की तुलना में थोड़ी विसंगतिपूर्ण थी, क्योंकि रीवा नरेश दो नावों की सवारी कर रहे थे। एक ओर अंग्रेजों को संसाधन मुहैया करवा रहे थे वहीं विद्रोहियों की पीठ भी थपथपा रहे थे। योगेश त्रिपाठी ने इन उलझी हुई स्थितियों को नाटक में पर्याप्त उत्सुकता बनाए रखते हुए प्रस्तुत किया है। नाटक में इन्हें बहुत अच्छी तरह पिरोया गया है।

किसी भी अच्छे नाटक में विषयवस्तु दृश्यात्मक अवयवों के साथ क्रमशः खुलते हुए सांगोपांग तनाव तक पहुँचती है। इतिहास आधारित नाटक में यह समायोजन थोड़ा कठिन होता है, क्योंकि पाठ को आगे बढ़ाने में कुछ रूखे विवरण भी चले आते हैं। योगेश त्रिपाठी ऐसे विवरणों को आम लोगों की बातचीत के जरिए सामने लाते हैं। मसलन, विषय की पूर्वपीठिका के तौर पर अंग्रेजों के साथ रीवा राज्य की एक पुरानी संधि का जिक्र है, जिसमें राज्य से गुजरने वाली ब्रिटिश टुकड़ियों के साथ कोई टकराव न होने देने और खाने-पीने का बंदोबस्त करने की जिम्मेदारी रीवा राज्य की थी। यह संधि तब हुई थी जब अंग्रेज पिंडारियों के खिलाफ मुहिम चलाए हुए थे।

अब राजा रघुराज सिंह उस संधि और ब्रिटिश ताकत के दबाव में हैं जबकि उनके बुजुर्ग मंत्री की हमदर्दी बगावतियों के साथ है। तनाव काफी बढ़ चुका है, क्योंकि तीसरा अहम किरदार ब्रिटिश रेजीडेंट ऑसबर्न राजा से नई-नई माँगें कर रहा है। ब्रिटिश नुमाइंदा होने से वह एक जाहिर खलनायक है। इस लिहाज से यह नाटक भीष्म साहनी के ‘रंग दे बसंती चोला’ जैसा तटस्थ नहीं है। यहाँ राष्ट्रवादी नजरिया बिल्कुल साफ है। आम लोग अंग्रेजों के खिलाफ क्यों हैं, क्योंकि ‘अंग्रेज बड़े जालिम होते हैं। इनकी भाषा, बोली, रीति-रिवाज सब अलग हैं।’

यद्यपि एक जगह ऑसबर्न राजा रघुराज सिंह से कहता है- ‘रिआया की फिक्र आपको कब से होने लगी।… रिआया तो अपनी किस्मत से जी रही है महाराज। सिर्फ आपकी हुकूमत में नहीं, पूरे ब्रिटिश इंडिया में जितनी भी हुकूमतें हैं सबका यही हाल है। रिआया के लिए जो भी किया आप लोगों ने नहीं हमने किया। सड़कें बनवाईं, पोस्टऑफिसेस खुलवाए, थाने खुलवाए, कचहरी खुलवाईं, रेलवे लाइन बिछवाई। आप लोग तो बस अपनी शान-शौकत में रहते हैं।’ लेकिन नाटक में न तो ऑसबर्न के इस कथन का प्रतिवाद है, न ही इसपर कोई बहस है कि अगर अंग्रेजों ने आम लोगों के लिए इतने काम कराए तो लोग उनके खिलाफ क्यों हो गए।

नाटक में एक पात्र कुँवर सिंह भी हैं जो बिहार के जगदीशपुर से बागियों का साथ देने आए हैं और भोजपुरी लहजे में बोलते हैं और बागियों की ऑसबर्न को मारने की कोशिश के नाकाम हो जाने की बाबत कहते हैं, ‘अरे बचना न बचना तो भगवान के हाथ में है भाई, अपने हाथ में थोड़ी है। अरे तुमने करम किया न!’  उनका यह बयान भारतीय कार्यशैली के फलसफे का बयान भी है। लेखक की मंशा होती तो इसी से एक मुबाहसा नाटक में तैयार किया जा सकता था। क्योंकि 1857 के कुल विवरण बताते हैं पूरी बगावत ऐसी ही बहुत सी त्रुटियों की वजह से नाकाम हुई। और यह भी कि अंग्रेज अपनी कार्यशैली में बागियों से कहीं ज्यादा लक्ष्य केंद्रित और परफेक्ट थे। बहरहाल, इस बहस के मुद्दे को अगर छोड़ दें तो नाटक काफी गठा हुआ और रोचक है।

उसमें तीन-चार मुख्य पात्रों को छोड़कर बाकी पात्र नई-नई पेश आने वाली स्थितियों के मुताबिक बदलते रहते हैं। घटनाएँ जल्दी-जल्दी बदलने के बावजूद मुख्य थीम से अच्छी तरह संबद्ध होने के कारण एक उत्सुकता लगातार बनी रहती है। घटनाएँ काफी होने से पात्र भी काफी हैं, पर ये कथावस्तु के उतार-चढ़ाव को ही आगे बढ़ाते हैं और यही वजह है कि नाटक में एक रोचकता और गति निरंतर बनी हुई है। यद्यपि इस तरह की विषयवस्तु में कम महत्त्व के अवांतर प्रसंगों में भटकने की गुंजाइश काफी बनी रहती है, पर यहाँ वैसा नहीं है।

इसके अलावा इसमें अहं की टकराहटें भी हैं, नाटकीय प्रसंग भी और लोकसंगीत भी। टकराहट की वजह है कि रघुराज सिंह राजा होते हुए भी एक अदना अंग्रेज अधिकारी के आदेश मानने को मजबूर हैं जो प्रत्यक्षतः उन्हें ‘योर हाईनेस’ कहता है। इसी तरह विचित्र हरकतें करने वाले एक दक्षिण भारतीय ब्राह्मण को सैनिकों ने जासूस समझकर पकड़ लिया है। और इस सारी उठापटक के बीच महाराज हैं कि सभा में अपने लिखे कवित्त सुना रहे हैं। इस तरह तत्कालीन घटनाओं पर किए अपने शोध का योगेश त्रिपाठी ने दृश्यों में बहुत अच्छा संयोजन किया है। इसी क्रम में 1857 पर बघेली में लिखे आल्हा गीत भी बीच-बीच में दृश्यों का हिस्सा बनते हैं। कहा जाए तो यह नाटक दस्तावेजी महत्त्व के कथानक को पर्याप्त कलात्मक और रुचिकर तरह से पेश करता है।

योगेश त्रिपाठी का एक अन्य नाटक ‘आदि शंकराचार्य’ भी इसी बीच प्रकाशित हुआ है।  इसमें भी उन्होंने काफी शोधपरक खोजबीन की है, किंतु इस नाटक की बुनियादी खामी यह है कि शंकराचार्य इसमें एक चमत्कारी किरदार के रूप में मौजूद हैं। लगता है मानो वे भारतीय इतिहास के कोई पात्र न होकर पुराणों के पात्र हों। उनकी माँ को नदी से पानी लाने में कष्ट होता है इसलिए वे नदी को घर के पास ले आते हैं;  एक गरीब ब्राह्मणी के घर सोने के आँवलों की वर्षा करा देते हैं; और एक मौके पर मंडन मिश्र की पत्नी उभयभारती के प्रश्न कि ‘काम की कितनी कलाएँ हैं’ का जवाब देने के लिए ब्रह्मचारी शंकर अपना शरीर छोड़कर एक मृत राजा के शरीर में प्रवेश करते हैं। यह तरीका न तो पढ़ने और देखने वालों के गले उतरेगा न ही इसमें शंकराचार्य के दार्शनिक मंतव्यों की उपयुक्त अभिव्यक्ति हो पाती है। भले ही परिवेश कितनी भी अच्छी तरह से नाटक में क्यों न मौजूद हो।

पुस्तकें-

‘1857 : एक अविजित विजय’ और ‘आदि शंकराचार्य’, लेखक- योगेश त्रिपाठी, कीमत : 120 एवं 100 रुपए। दोनों पुस्तकों के प्रकाशक- सन्मति पब्लिशर्स, बी-347, संजय विहार, मेरठ रोड, हापुड़- 245101, उत्तर प्रदेश, भारत

संगम पांडेय

मोबाइल – +91 98108 80442

ईमेल – sangampg@yahoo.co.in

 

 

 

1 टिप्पणी

  1. बेहतरीन संगम पांडेय जी, भाई योगेश त्रिपाठी जी रीवा में 90 के दशक के मेरे एक वरिष्ठ रंग साथी हैं , उनके निर्देशन में मैने होरी नाटक में गोबर की भूमिका भी निभाई थी, बेहद सहज और अच्छे लेखक हैं वे इसमें कोई दोराय नहीं है, बहुत बहुत आभार

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