Friday, May 17, 2024
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पल्लवी विनोद की दो कविताएँ

1 – मुझे कब चाहिए था ये आकाश
मुझे कब चाहिए था ये आकाश
चाहिए तो मुझे बादल भी नहीं था
मुझे तो धरती का वो टुकड़ा चाहिए था
जहाँ हम तुम आसमान की चादर ओढ़े लेटे रहते
ना होता नरम घास का बिछौना
फूलों के बाग़ीचे का पड़ोस भी ना मिलता
बरगद की छाँव थोड़ी दूर ही रहती
पर तुम होते
तमाम सिलवटों के बाद भी मुस्कुराते
धूल से भरी चप्पलों में हम
धरती का हर कोना नापते
पेड़ों की उमर जाँचते
सीखते भाषा पंक्षियों की
नदियों की कलकल बाँटते
मुझे कब चाहिए था ये आकाश……
तुम्हें बांसुरी की आवाज़ बहुत पसंद है ना
मेरे मन में एक धुन बजती है
अगर सुन सको तो
समझना
मुझे दुनियावी बातों से वितृष्णा हो गई है
जिस तरणी के भरोसे छोड़
तुम आगे बढ़ रहे हो
उसमें एक छेद है
पानी भरता जा रहा है
नाव डूबने को है
धरती का वो टुकड़ा मेरी प्रतीक्षा में है
मैं भी तो कब से तुम्हारी प्रतीक्षा में हूँ
अब भी आ जाओ
हरसिंगार झरने से पहले
उसी धरती पर सुला दो मुझे
आकाश की क़िस्मत में हरसिंगार नहीं तारे हैं
और मुझे कब चाहिये था ये आकाश…..
2 – एक नाम
जब सौंदर्य के सारे उपमान ढह जाएँगे
ये विशाल बंध समय के आवेग में बह जाएँगे
उतरेगी रात धरती के उपवन में
प्रेम के सारे समीकरण उथल पुथल मचायेंगे
जब कम्पित होंगी मन की दशाएँ
और विरुदावली से भरी आख्यायिकाएँ
नदियों में बहा दी जाएँगी
केवट के गीत सुन मचलेंगी डूबती मछलियाँ
मणिकर्णिका के घाट पर
उपक्रमों की पोथियाँ जला दी जाएँगी
तब, बंद चक्षुओं से ढूँढोगे किसे
किससे बाँटना चाहोगे अंतिम कविता
उस एक क्षण तुम किसे पुकारोगे
किसे देखने के बाद पुतलियाँ स्थिर रह जाएँगी
उस एक नाम को तलाशना
मिल जाए तो उसे अपनी अँजुरी में समेट लेना
कि प्रेम की तलाश में ईश्वर भी
इस धरती पर उतर आते हैं……
पल्लवी विनोद
पल्लवी विनोद
पल्लवी विनोद गोमती नगर लखनऊ संपर्क - pallavi.vinod1@gmail.com
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