आओ ! चाँद पर बैठ कर
सूरज से आँख मिलाएँ
कलियों से लेकर रंग पराग
अपना एक अस्तित्व बनाएँ
हों चाहे विपरीत परिस्थिति
नहीं डरें ………नहीं झुकें
एक अपनी डगर बनाएँ
हम आगे ही बढ़ते जाएँ
आओ ! सूरज से आँख मिलाएँ …
नदियाँ कल-कल करती हैं
उनको भी नया राग बताएँ
पथरीले पथ पर चलकर
जो दर्द बहा था कल-कल
उस पीढ़ा सुगंध को
हम हवा के संग बहाएँ
आओ ! सूरज से आँख मिलाएँ …….
जो डरा नहीं …. जो थका नहीं
उनको दुनिया के कदमों में
झुकने का कोई गम नही
जो झुक जाते वो कायर हैं
उनकी झुकी रीढ़ में दम नहीं
वो ला न सकेगा चाँद सितारे
जिनकी मुट्ठी में दम नहीं
आओ ! सूरज से आँख मिलाएँ …
चलो ! हम चाँद पर बैठकर
सूरज से आँख मिलाएँगे
तूफ़ानों को चीर कर
पर्वत पर राह बनाएँगे
तुम देखते रहना दूर से
हम सूरज से आँख मिलाएँगे
आओ ! सूरज से आँख मिलाएँ …॥
कुसुम जी हमने आपकी कविता पढ़ी कविता पढ़ने के बाद यह लगा कि आप संदेश तो सकारात्मक देना चाह रही हैं, पर कविता में कहीं-कहीं आपके शब्द संयोजन उस हिसाब से जम नहीं रहे।
कुछ विरोधाभास भी लगा। हमें ऐसा लगता है कि इस कविता पर एक बार आपको फिर से काम करना चाहिए एक बार आप कविता का अर्थ करके देखिए तो शायद आप वह समझ पाएँ जो हम कहना चाह रहे हैं।
उम्मीद है आप इसे नकारात्मक रूप में नहीं लेंगी यह सिर्फ एक सलाह है बाकी आपकी कविता है और आपका सर्वाधिकार है उस पर।
आदरणीय नीलिमा जी उम्मीद है कि कुसुम जी आपकी टिप्पणी को सकारात्मक रूप से लेकर उस पर कदम उठाएंगी।
सुन्दर …. अतिसुन्दर
आओ सूरज से आँख मिलाएँ …. एक ऐसा प्रयोजन जो तब ही सम्भव है जब आत्मिक शक्ति का संयोजन सात्विक ऊर्जा संग एकीकृत होता है.
प्रकृति संग अठखेलियाँ करते हुए पुष्प, पराग, पथ, पत्थर, पर्वत, नदी, वृक्ष, कन्दराओं की संगत में अन्ततः चाँद पर डेरा डाल कर सूर्य सदृश्य दीप्तिमान होने का यह उपक्रम मनभावन तो है ही साथ ही इसमें निहित सन्देश द्वारा समाज की जागृति का भी एक कथ्य समाहित है जो इस मुक्त कविता को तथ्यात्मक उपहार से शृंगारित कर गयी है.
बधाई
वर्तमान परिदृश्य में इस प्रकार की उद्देश्यपूर्ण कविता जिसमें साहित्यिक वृत्ति के साथ-साथ सामाजिक सरोकार का ताना-बाना हो, स्पष्टता के संग निर्भीक-निडर वैचारिक सम्पदा हो तथा साथ ही गीत की सरगम सा सहज प्रवाह भी हो, समय की अनिवार्य आवश्यकता है.
पूर्व में मुझे आपके कई कविता संग्रह में ढेरों काव्य को देखने-पढ़ने का अवसर मिला है. उसी क्रम में यह रचना भी सरस एवं ग्राह्य बन पड़ी है.
मंगलकामनाएँ
डॉ॰ राजीव श्रीवास्तव