मित्रों, मंगलवार नौ तारीख़ को भारतीय उच्चायोग में बैसाखी का त्यौहार मनाया गया। कार्यक्रम का आयोजन गांधी हॉल में किया गया जो कि दर्शकों से खचाखच भरा था। महामहिम उच्चायुक्त श्री विक्रम दोरईस्वामी एवं उपउच्चायुक्त श्री सुजीत घोष ने भगवे रंग की पगड़ियां पहन रखी थीं। उन्होंने इस तरह उपस्थित सभागार का दिल जीत लिया। अन्य लोगों के अतिरिक्त लॉर्ड रमी रेंजर, बेरोनेस वर्मा, सांसद विरेन्द्र शर्मा एवं पद्मश्री बैरी गार्डिनर भी उपस्थित थे। कार्यक्रम में मुझे भी बोलने का अवसर मिला। बहुत से पुरवाई के पाठकों ने आग्रह किया है कि मैं अपने वक्तव्य को उनके साथ साझा करूं। इसलिये यहां मैं आपके सामने अपना वक्तव्य संपादकीय के तौर पर रख रहा हूं। 13 अप्रैल को बैसाखी हैआप सब को बैसाखी की शुभकामनाएं।

भारत त्यौहारों का देश है। यहां कई धर्म के लोग रहते हैं और हर धर्म के अपने-अपने त्यौहार हैं। साल भर कोई न कोई त्यौहार आता ही रहता है और भारतीय एक दूसरे के साथ मिल कर ये त्यौहार मनाते हैं। ठीक उसी तरह अप्रैल महीने की 13 या 14 तारीख़ को पड़ती है बैसाखी। यह समय रबी की फ़सल काटने का समय होता है। मुझे याद पड़ता एक पंजाबी फ़िल्म का गीत। फ़िल्म थी कौडे शाह शायद 1957 में आई थी – ‘फ़सलां दी मुक गई राखी / ओ जट्टा आ वसाखी।’ तो आपने देखा कि पंजाब में हम इसे वसाखी भी कहते हैं।
क्योंकि यह त्यौहार फ़सलों के साथ जुड़ा है, इसलिये इसे उत्तर भारत में तो इसी नाम से मनाया जाता है भारत के अन्य राज्यों के किसान भी फ़सलों की कटाई को लेकर उत्साहित होते हैं और ये त्यौहार मनाते हैं। केरल में यह त्यौहार ‘विशु’ कहलाता है। बंगाल में इसे नब वर्ष; असम में रिंगालु बिहू, तमिल नाडू में पुथंडु, और बिहार में इसे वेषाख के नाम से पुकारा जाता है। 
 सम्वत् 1699 की बैसाखी वाले दिन दशम पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने श्री आनंदपुर साहिब में एक अद्भुत कौतुक रचा। तत्कालीन सारा सिख समाज, जिसकी तादाद अस्सी हजार से भी ऊपर थी, वैसाखी के पर्व पर गुरु नगरी में एकत्र हुआ था। दशम पातशाह ने हुक्मनामे भेज कर सारे सिख समुदाय को श्री आनंदपुर साहिब में एकत्र होने का आमंत्रण दिया था। 
दीवान सजे हुए थे। तभी दशमेश पिता ने उठकर सिखों को संबोधित करते हुए कहा कि धर्म और मानवता की रक्षा के लिए मुझे पांच शीश चाहिएं। नंगी कृपाण लहराते हुए रौद्र रूप में गुरु जी ने ललकारा कि कौन मुझे शीश देने के लिए तैयार है? विशाल भीड़ में सन्नाटा पसर गया। लोग घबरा गए। गुरु जी ने पुन: गरजते हुए शीश की मांग की। आखिर सहमे हुए उस जनसमुदाय में से एक सिख ने साहस किया और उठ कर बोला कि मैं शीश देने के लिए प्रस्तुत हूं। गुरु के चरणों में शीश अर्पित करने वाले यह सबसे पहले सिख थे भाई दया राम।

इसके बाद गुरु जी के आह्वान पर एक-एक करके चार सिख और उठे तथा गुरु चरणों में शीश अर्पित करने के लिए तत्पर हुए। ये चार सिख थे भाई धरम दास, भाई हिम्मत राय, भाई मुहकम चंद, भाई साहिब चंद। दशमेश पिता ने इन पांचों सिखों को खंडे-बाटे का अमृत छकाया और सिंह नाम से सजा दिया।
अमृत छक कर ये बन गए भाई दया सिंह,  भाई धरम सिंह,  भाई हिम्मत सिंह,  भाई मुहकम सिंह और भाई साहिब सिंह। गुरु जी ने इन्हें पांच प्यारे कह कर संबोधित किया। फिर दशमेश पिता ने स्वयं इन ‘पांच प्यारों’ को गुरु रूप मानते हुए इनसे अमृत छका और स्वयं भी गोबिंद राय से गोबिंद सिंह बन गए।
गुरू गोबिन्द सिंह साहब ने अपने पांच प्यारों को केवल ऊंची जातों से नहीं चुना था। समाज के हर वर्ग को उन्होंने शामिल किया। सबसे पहले लाहौर के भाई दया सिंह, जो जाति के खत्री थे, ने अपना शीश पेश किया। दूसरा शीश भाई धर्म सिंह, हस्तिनापुर (मेरठ) – जो जाति के जाट थे, ने पेश किया। तीसरा शीश भाई हिम्मत सिंह जी ने, जो जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) के झींवर जाति के थे, ने पेश किया। चौथा शीश मोहकम सिंह ने वे द्वारका के रहने वाले थे और छीबा जाति से संबंध रखते थे। और पांचवां पेश किया भाई साहिब सिंह ने, जो बीदर (कर्नाटक) के रहने वाले एक नाई थे 
एक सोचने लायक बात यह है कि गुरू साहब के आदेश पर लगभग अस्सी हज़ार लोग एकत्रित हो गये। उन दिनों जब यातायात के साधन इतने विकसित नहीं थे, इतनी बड़ी भीड़ कैसे आनंदपुर साहिब पहुंच पाई होगी।
गुरू गोबिन्द सिंह साहब ने जिन पांच भक्तों को पंच प्यारे के लिये चुना उनके नाम भी गुरू जी की सोच का अनावरण करते हैं। उन पांच प्यारों के नाम में भी प्रतीक महसूस किये जा सकते हैं।  गुरु साहब ने सबसे पहले चुना दया राम यानी कि ‘दया’। दूसरे नंबर पर धरम सिंह यानी कि ‘धरम’। तीसरा नाम है हिम्मत सिंह यानी कि ‘हिम्मत’ और चौथा उसके बाद मोहकम सिंह। मोहकम यानी कि अटल, चिर-स्थाई। पांचवां नाम था साहिब सिंह। गुरू जी ने अपने चयन से यह समझा दिया कि इन्सान में चार गुणों का होना बहुत ज़रूरी है – दया, धरम, हिम्मत और अटल इरादे। जिनमें ये गुण होंगे वे ही साहिब कहलाने के हक़दार होंगे। 
एक बात जो सामने उभर कर आती है कि दशम पादशाही गुरू साहब का जन्म बिहार में हुआ और उन्होंने अपनी कर्मभूमि पंजाब को बनाया। ठीक उसी तरह बिहार से आज बहुत से लोग पंजाब में खेती से जुड़े काम कर रहे हैं। आज के बिहारी भी अपने पंजाबी भाइयों के साथ मिल कर बैसाखी मनाते हैं और एक भाईचारे की ख़ूबसूरत मिसाल पेश करते हैं। सच तो यह है कि वे भी सिर पर पगड़ी धारण करते हैं। 
सिख इतिहास में ‘गुरु दा लंगर’  की स्थापना भी इसी दिन हुई थी। वैसे तो लंगर प्रथा की शुरुआत गुरु नानक देव जी ने की थी, लेकिन इसे सिखों के तीसरे गुरु, गुरु अमरदास जी ने सिख धर्म का एक अनिवार्य अंग बना दिया था क्योंकि उस समय जाति के नाम पर भेद भाव हो रहा था, ऊंची जातियां नीची जाति के साथ भेदभाव करती थीं। इस छुआछूत को समाप्त करने के लिए उन्होंने 1539 में बैसाखी के दिन ‘संगत-पंगत-लंगर’ प्रथा शुरू करने की घोषणा की। आज सिख धर्म में लंगर का बड़ा महत्व है। पंजाब में हर जगह बैसाखी के मेले लगते हैं और उन मेलों में अटूट लंगर चलाया जाता है। खुशी के मौकों पर ही नहीं, भारत अथवा विदेश में जब भी, कहीं भी, किसी भी तरह की विपदा आती है तो सिख बिना किसी जाति, धर्म, भाषा, रंग के, भेदभाव के हर जगह लंगर की सेवा प्रदान करते हैं। क्योंकि गुरु साहिबानों ने सेवा को सर्वोच्च धर्म माना है, जिसका पालन हर सिख पूरी निष्ठा से करता है।  
पाकिस्तान में भी पंजा साहब और ननकाना साहिब गुरुद्वारों में बैसाखी की धूम देखने को मिलती है। सिखों के जत्थे वहां पहुंच कर भाईचारे का पैग़ाम देते हैं। 
वैसे हम जब गुरूद्वारों में प्रसाद के बारे में सोचते हैं तो पाते हैं कि हमारा प्रसाद भी किसानों से ही जुड़ा सबसे आसान और सादा व्यंजन है। कढ़ाह प्रसाद के लिये बस आटा, घी और चीनी की ज़रूरत पड़ती है। जो किसान के घर से ही निकल आते हैं। प्रसाद बनाने के लिये न कहीं दूर जाना पड़ता है और न ही किसी प्रकार की विशेष योग्यता की आवश्यकता है। लोगों को आपस में जोड़ने के लिये ये मासूम से निर्णय बहुत सहायक सिद्ध होते हैं।
बैसाखी के दिन ही गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। और  इसी दिन स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की नींव रखी थी।
बैसाखी के साथ एक दर्दनाक याद भी जुड़ी है। अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन जलसा कर रहे हजारों बेगुनाह लोगों पर अंग्रेज सरकार ने बर्बरता से गोली चलाई, जिसमें सैकड़ों लोग शहीद हो गए। हर साल बैसाखी के दिन हम उन बेगुनाह लोगों को श्रद्धांजलि भी पेश करते हैं।
आज हमारे भारतीय उच्चायोग ने ब्रिटेन के पंजाबी समाज को एक साथ इस अज़ीम भवन में आमंत्रित किया है। हम सब इस पावन पर्व पर एक दूसरे के साथ भाईचारे का भाव बढ़ाएं और सुर में कहें… ओ जट्टा आई वसाखी।  
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

43 टिप्पणी

  1. सर्वप्रथम आपका बहुत-बहुत शुक्रिया तेजेंद्र जी कि हम आपका वक्तव्य सुनना चाहते थे और आप ने संपादकीय में उसे पेश किया।
    अभी तक तो सिर्फ यही मालूम था कि बैसाखी एक पर्व है जो नई फसल आने पर आने के उपलक्ष में मनाया जाता है। हमारे आधा फ्रेंड सर्कल पंजाबी था लेकिन इतने अंदर तक की कहानी , जानकारी और पर्व के गर्भगृह में दबी इसकी वास्तविकता के बारे में कुछ नहीं जानते थे।
    यह भी नहीं जानते थे कि पंजाब के अलावा भी कई प्रांतों में इसे अलग-अलग नामों से मनाया जाता है।आज आपको पढ़ा तो जाना, लेकिन और भी बहुत कुछ जाना इस पर्व के बारे में।
    गुरु गोविन्द सिंह जी का शीश देने के लिए बुलाना, पाँच लोगों का आना, उन सभी का भिन्न-भिन्न जातियों से होना और उन्हें फिर उन नामों में सिंह के साथ परिवर्तन।
    इस जानकारी ने यह साबित किया कि जातिगत भेद दूर करने की कितनी प्रबल इच्छा रही होगी गुरु गोविन्द सिंह की। इसके अतिरिक्त मानवता के प्रतीक वह सद्गुण जिसमें दया, धर्म, हिम्मत और अटल इरादा शामिल है।सभी के लिये जरूरी है।
    खंडे-बाँटे का अमृत समझ नहीं आया।
    लंगर के लिये दीवानगी देखी है हमने पंजाबियों/सिख्खो ं की। वैसे यह सिंधियों में भी बहुत होता है।
    सबके लिए प्यार पंजाबियों में कूट-कूट कर भरा रहता है। लंगर का उद्देश्य किसी भी भेदभाव से भरे सिर्फ भूख मिटाने का होता है। गौतमबुद्ध के ज्ञान का ध्यान नहीं था। किन्तु जलियाँवाला बाग का दर्दनाक हत्याकांड कोई कभी नहीं भूल सकता।
    लंदन में उच्चायोग द्वारा आप सभी पंजाबी परिवारों को बुलाना वह आपको बोलने का मौका देना हम सब लोगों के लिए भी बहुत ही गौरवान्वित करने वाली बात है। आपका सम्मान,व खुशी में कहीं ना कहीं ,दिल से हम सभी लोग सहभागी हैं।
    सभी साथियों को बैसाखी की बधाइयाँ
    आपको भी बैसाखी की बहुत-बहुत बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ।
    एक बहुत ही पावन और प्रसिद्ध पर्व की समुचित जानकारी देने के लिए आपका तहेदिल से शुक्रिया तेजेंद्र जी!

    • आदरणीय नीलिमा जी, आपने संपादकीय के हर पहलू पर गंभीर टिप्पणी की है। पंज प्यारों के नामों पर भी एक निगाह डालें।

  2. भारत के उच्चायोग में होने वाले आयोजनों की गरिमा अनोखी होती है ।
    वैसाखी पर सम्पादकीय पढ़कर इस त्यौहार के बारे में अच्छी जानकारी प्राप्त हुई ।उमंग और उत्साह के इस पर्व पर शुभकामना ।
    Dr Prabha mishra

  3. वाह्ह्ह!! बहुत सुंदर एवं विस्तृत संपादकीय है….. ओड़िशा से भी थे जानकर खुशी हुई। शोध परक, तथ्य परक लेख.. बैशाखी का आधार अत्यंत सुंदर… वर्णन। साधुवाद

  4. बैसाखी ,वसाखी त्योहार के नाम हैं जो पहले किसानों का था।बाद में महान गुरु गोविंद सिंह जी महाराज ने इसे पूरे समाज का त्योहार हो नहीं वरन उस समय की ज़ालिम शासकों को मुंहतोड़ जबाव देकर बताया कि हमारा हिंदोस्तां वही है जो पहले था बस जरूरत थी एक ऐसी कौम की जो बलिदान के लिए सदा तैयार रहे। आज के विश्व को इस त्योहार की गाथा बताने की बेहद खास जरूरत है।जो विदेश में रहकर ब्रिटिश हाई कमीशन में आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी ने मजबूती से रेखांकित ही नहीं वरन उकेर कर अंकित कर दी है।
    विभिन्न देशों के हाई कमीशन अक्सर एक दूसरे देश/देशों की संस्कृति को जोड़ने का पुनीत यज्ञ करते हैं।परंतु आदरणीय अग्रज तेजेंद्र शर्मा जी ने इस यज्ञ को एक भारतीय पुरोधा/पुरोहित रूप से न केवल वहां के जन समूह को संवेदित किया वरन भारत और प्रवासी भारतीयों को संपादकीय पुरवाई के माध्यम से बहुआयामी भी बना दिया।
    जलियांवाला बाग को बताना भी बेहद अहम है क्योंकि यह मानवता के सीने पर सियासती अश्वत्थामा का दिया रिसता हुआ नासूर है। त्योहार खुशी और गमी को समेट कर ही अपनी
    पूर्णता को प्राप्त करते हैं।
    और यह संपादकीय इसी ओर एक मजबूत कदम और कलाम दोनों ही है।
    संपादक और पुरवाई परिवार को बधाई वसाखी दी और इस शानदार और दमदार संपादकीय की भी।

    • हार्दिक आभार भाई सूर्यकांत जी। यह कार्यक्रम ब्रिटिश हाई कमीशन में आयोजित नहीं हुआ। आयोजन स्थल था – लंदन स्थित भारतीय उच्चायोग।

  5. आदरणीय तेजेंद्र जी ! बैसाखी के पावन पर्व पर अपने उत्तम जानकारी प्रदान की। पूरे देश में किसी न किसी नाम और रूप से यह पर्व मनाया जाता है। खेतों में फैसले तैयार होती हैं, किसान के घर खुशियाँ आ जाती हैं।
    पर ब्रिटेन में स्थित भारतीय उच्च आयोग में दिए गए इस भाषण में बहुत सरल ढंग से बैसाखी के महत्व को प्रतिपादित किया गया है। महान सिक्ख धर्म के दशमेश गुरु की अपार लोकप्रियता का परिचय मिला। पंच प्यारों की कहानी जानकर रोमांच हुआ। किसी भी देश, समाज और धर्म में बलिदान की भावना अत्यंत अकल्पनीय और पवित्र होती है। पर आज आपने महान गुरु की दूरदर्शिता की एक झलक प्रस्तुत की, कि किस तरह से दया-धरम -हिम्मत- अटल इरादे से ही साहिबी आती है, अद्भुत विवेचन किया।
    सरल ढंग से बातें कहना कठिन होता है। कथाकार और संपादक तेजेंद्र शर्मा की लेखनी इसी तरह चलती रहे, बहुत-बहुत साधुवाद। जय भारत, वन्दे मातरम्.

    • हार्दिक आभार भाई जयशंकर जी। लंदन में भारतीय उच्चायोग के अधिकारी अतिरिक्त रूप से सक्रिय हैं। हम हर त्यौहार पूरे कमिटमेंट से मनाते हैं। हमारे वर्तमान उच्चायुक्त, उप-उच्चायुक्त और मंत्री समन्वय भारतवंशियों के साथ लगातार संपर्क बनाए रखते हैं।

  6. महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद – ज्ञानवर्धक संपादकीय।
    ‘ पुरवाई ‘ के पाठक वृंद को बैसाखी की बधाई एवं शुभकामनाएं ।

  7. जो बोले सो निहाल सत श्री अकाल, वाहेगुरु जी दा खालसा ते वाहेगुरु जी की फतेह बैसाखी दी लख-लख बधाइयां आपका लेख पढ़कर मन गदगद हो गया मैं एक किसान की बेटी हूं और बिल्कुल अभी-अभी गुरुद्वारे से अरदास करा कर आई हूं। मेरा अहो सौभाग्य दूसरे पंचप्यारे भाई धर्म सिंहजी की जन्मभूमि हस्तिनापुर में ही मेरा जन्म हुआ। कुछ वर्ष पहले हस्तिनापुर में पंचप्यारे भाई धर्म सिंह जी से संबंधित कुछ सामान उपलब्ध हुआ और वहां फिर गुरुद्वारे की स्थापना की गई और आज वह गुरुद्वारा एक विशेष स्थान रखता है। बहुत दूर-दूर से दर्शन के लिए आते हैं।

  8. पंज प्यारों का विस्तृत परिचय एवं नामकरण ज्ञानप्रद रहा। गुरुओं और वतन पर मरने वाले सिखों को सादर नमन।

    पूर्वी उत्तर प्रदेश में वैशाखी को सतुआ संक्रांति कर कहते हैं। बहुत सारे घरों में केवल ‘सत्तू’ का ही भोजन किया जाता है ।यह ग्रीष्म ऋतु के आगमन का संकेत है हल्का भोजन करिए स्वस्थ रहिए, तालिब होने भारी भरकम भोजन से दूर रहिए।

  9. रौलेट एक्ट के विरोध में जब बैसाखी के दिन 1919 में देशवासी जलियांवाला बाग में इकट्ठा हुए थे तो उन्होंने सोचा भी नहीं था कि उन निहत्थे लोगों से ही कायर जनरल ओ डायर इतना भयभीत हो जाएगा कि अन्धाधुन्ध फ़ायरिंग करवा देगा,जिससे एक हजार से अधिक निर्दोष लोग मारे जाएंगे. यह अछा ही हुआ था कि 13 मार्च 1940 को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हाल में एक मीटिंग के दौरान क्रांतिकारी उद्धम सिंह ने डायर को अपनी रिवाल्वर का 21 साल बाद निशाना बनाया. वह गिरफ्तार हुए, 4 जून 1940 को उन्हें हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई। लेकिन इस देश का दुर्भाग्य कि ऐसे महान क्रांतिकारियों को न तो देश में उचित सम्मान मिला न इतिहास में वह स्थान जिसके वो अधिकारी हैं. देशवासियों को यही बताया, समझाया गया कि देश को आजादी चरखा कातने से मिली. सिक्ख धर्म गुरुओं ने इस सनातन देश, संस्कृति की रक्षा के लिए जो महान बलिदान दिया उसे भी न सिर्फ़ नेपथ्य में धकेलने की कोशिश हुई बल्कि 1984 में कांग्रेस ने सिखों का नरसंहार करवाया, 5 हजार से अधिक लोग मारे गए… कांग्रेस द्वारा यह कोई पहली माॅबलिंचिंग नहीं थी, इससे पहले उसने महाराष्ट्र में 31 जनवरी से 3 फ़रवरी 1948 तक चित्त पावन ब्राह्मणों का इसीलिए बड़ी संख्या में सामुहिक नरसंहार किया क्योंकि गाँधी को मारने वाले नाथूराम गोडसे उसी समुदाय से थे..इस घटना को भी छिपाया गया. आपको इस बात के लिए बहुत धन्यवाद कि आप ने बैसाखी के पवित्र अवसर पर सिक्ख धर्म गुरुओं, उनके द्वारा स्थापित परंपराओं को याद किया…

  10. Your Editorial of today speaks of many references in the context of Vaisakhi,with each reference being of vital importance in terms of history,religion and the calendar.
    Very relevant and informative.
    With warm regards
    Deepak Sharma

  11. बैसाखी पर्व के विषय में गहन जानकारी आपके संपादकीय के माध्यम से प्राप्त हुई।
    बैसाखी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं

  12. आपका आज का संपादकीय ‘दिलों को जोड़ने वाला त्यौहार है -बैसाखी’ दिल को छू गया। भारतीय उच्चायोग में बैसाखी का त्यौहार मनाया जाना गर्व की बात है।
    वैसे तो हमारे भारत के सारे त्यौहार ही आपसी मेल जोल के साथ तन -मन को ऊर्जा देने वाले हैं किन्तु बैसाखी के इतिहास का, गुरु गोविन्द सिंह के ‘पांच प्यारों’ के साथ, सिख इतिहास में 1539 में बैसाखी के दिन ‘संगत-पंगत-लंगर’ प्रथा का प्रारम्भ भी इसी दिन अमीर -गरीब तथा ऊंच -नीच, जाति -पांति का भेद मिटाने के लिए हुई थी, को जिस तरह आपने संदर्भित किया है उससे ज्ञान में भी वृद्धि होती है।
    बैसाखी ख़ुशी का त्यौहार है किन्तु इसे अंग्रेजों की नृशंसता के लिए याद किया जाता है। उन्होंने 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन ही जालियाँवाला बाग में ख़ुशी मनाते लोगों पर गोलियां चलवा दी थीं।
    इसके साथ ही आप यह बताना भी नहीं भूले कि बैसाखी के दिन ही गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और इसी दिन स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की नींव रखी थी।
    आपके सारगर्भित लेख /व्यक्तव्य के लिए बधाई के साथ आपको बैसाखी की भी हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें।

  13. वाह तेजेन्द्र जी बहुत ही सुंदर शब्दों के साथ संपादकीय और साथ बैसाखी त्योहार पर बहुत ही प्रसंशनीय इस हमेशा की तरह इस बार भी पूरे नंबर ले गये बहुत बहुत ही आभार. वाह.. बहुत ही स्नेह के साथ आपको बैसाखी की… शुभकामनाएं..

  14. भाई दयाराम, भाई धरमदास ,भाई हिम्मतराय, भाई मुहकमचंद और भाई साहिब चंद ये नाम तो याद ही हो गए सर । इन्हें बाद में गुरु गोविंद सिंह जी ने सिंह नाम से सजाया। नाम तो याद इसलिए भी हो गए क्योंकि गुणों के प्रतीक हैं, मानवीय गुणों के। गुणों के प्रतीक रूप में है ना ये इसीलिए नाम याद भी हो गया दया, धर्म, हिम्मत और अटल इरादे जिसमें हो,वही साहिब और ये ही पंज प्यारे।
    कभी भी अचानक फोन करके पूछ लीजिएगा और अगर ना बता पाए तो नाम बदल दीजिएगा। फिर आप जो चाहे वही नाम रख दें।
    जो नाम दिल में ही ठहर गया हो उसे ना भी लिखें तो भी वह दिल में तो है।

  15. भाई दयाराम, भाई धरमदास ,भाई हिम्मतराय, भाई मुहकमचंद और भाई साहिब चंद ये नाम तो याद ही हो गए सर । इन्हें बाद में गुरु गोविंद सिंह जी ने सिंह नाम से सजाया। नाम तो याद इसलिए भी हो गए क्योंकि गुणों के प्रतीक हैं, मानवीय गुणों के। गुणों के प्रतीक रूप में है ना ये इसीलिए नाम याद भी हो गया दया, धर्म, हिम्मत और अटल इरादे जिसमें हो,वही साहिब और ये ही पंज प्यारे।
    कभी भी अचानक फोन करके पूछ लीजिएगा और अगर ना बता पाए तो नाम बदल दीजिएगा। फिर आप जो चाहे वही नाम रख दें।
    जो नाम दिल में ही ठहर गया हो उसे ना भी लिखें तो भी वह दिल में तो है। आपने तो लिखा ही है दिलों को जोड़ने वाला।

  16. जितेन्द्र भाई: दिलों को जोड़ने वाले त्योहार बैसाखी पर आपके सम्पादकीय के लिये बहुत बहुत सासधुवाद तथा बधाई । पढ़कर बहुत सारी यादें ताज़ा हो गयीं। रबी की फ़सल काटने के इस त्योहार को सारे देश में भिन्न भिन्न नामों से मनाया जाना केवल भारत देश में ही सम्भव है। इसी भारत में अलग अलग प्रान्तों के फूलौं को अलग अलग उत्सवों का नाम देकर प्यार के धागे से एक सुन्दर माला में पिरोया जाता है।
    भारत में जब था उस समय अधिक्तर मित्र सिख ही होते थे। सिख कॉम की सेवा का जज़्बा और लंगर की प्रथा देखकर श्रद्धा से सिर सदा झुक जाता था। अमृत्सर के जलियाँ वाले बाग में हुये नरसंहार, जहाँ जैनरल डायर ने निहत्थे लोगों पर गोलियों की बौछाड़ की थी, शहीद भाईयों, बहनों और बच्चों को याद करते हुये आंसुओं का रुकना बन्द ही नहीं होता था। कैसे भूल सकते हैं सिख धर्म के गुरुओं का बलिदान। गुरू नानक देव जी और सभी आदरणीय गुरूओं को शत शत नमण। आपको और पुरवाई के सभी पाठकों को वबैसाखी की बहुत बहुत शुभकामनायें।

    • विजय भाई पुरवाई के संपादकीय ने आपके मन को भावुक बना दिया, यह किसी उपलब्धि से कम नहीं। हार्दिक आभार।

  17. बैसाखी की खुशी और दुःख को साथ पिरो कर लिखे गए उत्तम सम्पादकीय के लिए हार्दिक धन्यवाद। बहुतसी नई जानकारियां मिलीं। ब्रिटेन में भी इस त्यौहार की गूंज है ये जानकर बहुत अच्छा लगा। यह आप सरीखे भारतवंशियों के निरन्तर परिश्रम का परिणाम है।
    मेरे browser में पुरवाई खुल ही नहीं रही थी, अतः प्रतिक्रिया देर से लिख सकी।

  18. आ0 तेजेन्द्र जी सुंदर जानकारी बैसाखी के बारे में। अब मुझे पाँच प्यारों के नाम सिलसिलेवार याद हो गये। ये अलग -अलग जगहों से आये थे ये भी हमारे देश की एकता को दिखाता है पर अब हम फिर से जाति और अमीर ग़रीब में भेद करने लगे
    हैं। सिख पंथ वाले हिन्दू ही हैं पर अब अपने आपको अलग मानने लगे हैं।

  19. आ. तेजेन्द्र जी
    बैसाखी के बारे में टुकड़ों टुकड़ों में जानना और इन सबके बारे में एक तारतम्यता से जानना, दोनों का प्रभाव बहुत अलग है व अपने साथ चित्र बनाता चलता है।
    वास्तव में यह जोड़ने का, प्रेम व सौहार्द का प्रतीक है।
    कड़ा प्रसाद को कभी इस विचार से नहीं सोचा था, कितनी सरल व सहज अभिव्यक्ति! आपका हर संपादकीय एक नवीन परिवेश में ले जाकर बहुत सुंदर सूचनाएं प्रेषित करता है।
    इतने सुंदर संपादकीय के लिए आपको शत शत अभिनंदन व बैसाखी के उत्सव की अनेकानेक शुभकामनाएँ। ईश्वर सदा सब पर प्रेम व शुभाशीष बनाए रखें।

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