Saturday, September 21, 2024
होमव्यंग्यविद्याभूषण की कलम से - सात रंगों का जश्न

विद्याभूषण की कलम से – सात रंगों का जश्न

यूं तो यह लेख होली के संदर्भ में हैं, जो बीत चुकी है, लेकिन इसमें निहित व्यंग्य-रस सार्वकालिक रूप से सुग्राह्य है। आशा है, पुरवाई के पाठक इसे पढ़ते हुए आनंदित होंगे। प्रस्तुत है :
दोस्तो, खोज और खाज दोनों एक ही मर्ज के काज हैं। फिलहाल मैं भी एक खोज-खाज में लगा हूं, और ऐसा लगा हूं कि बस लगा हूं। बात यह है कि इस साल सम्पादक जी ने मेरे जैसे निठल्ले जीव को भी रंगलोक के खोजी-दल में शामिल कर लिया है। पहले तो मैंने समझा कि यह होली की पूर्वसंध्या पर कोई सौजन्यपूर्ण ठिठोली है। फिर जब फोन पर उनका गश्ती रिमाइंडर मिला तो बात कुछ खुली। लिहाजा हार पार कर मैं सतरंगा लबादा ओढ़ कर रंग लोक की परिक्रमा पर निकल पड़ा हूं।
आपको सच्ची बात बताऊं, कि होली और सम्पादक के निर्देश पर अपनी जान सांसत में फंसी महसूस हो रही है। मामला यह है कि मैंने अखबारी दुनिया के तेवरों के साथ उनके रंग-रोगन की चकाचौंध देखी है, उनके रोब-दाब की चहल-पहल भी देखी है, और वहां अच्छे-अच्छे कलमवीरों के रंग उड़ते देख कर दंग भी होता रहा हूं। इसीलिए मुझे लगता है कि समाचार जगत में होली सालों भर चलती रहती है। अगर गुरुदेव हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रति मैं शिष्टाचार में साभार हो जाऊं तो कहना चाहूंगा कि होली आती नहीं, लायी जाती है।
और युग धर्म के अनुसार आप जब चाहें, होली ला सकते हैं। जैसे पिछले साल का अपना तजुर्बा है कि मेरे छापाखाने से छप कर एक पत्रिका का ‘होली अंक‘ जब सत्साहित्य के बाजार में आया तो उस समय लोगबाग दीवाली की खरीदारी में व्यस्त हो चुके थे। वैसे हमारी कलमगार बिरादरी भी वक्त के मिजाज और रंग को बाखूब पहचानती है। सच है कि हम किसी भी मौसम में चुहल का बुरा नहीं मानते। छपास का रोग-राग ही कुछ ऐसा है कि सम्पादक का हुक्म सिर-माथे पर। लिहाजा मैंने भी अपने होमवर्क को निष्ठापूर्वक पूरा करने का मन बना लिया है।
वैसे यह मौसम और काम थोड़ा जोखिम वाला है। लेकिन फरमाइश की नजाकत के सामने लाचार हो गया हूं। कहते हैं, भंग प्रेमी से रंग प्रेमी ज्यादा खतरनाक जीव होते हैं। और ऐसे लोगों की देखरेख में पड़ कर बेदाग छूट जाना कोई हंसी-ठट्ठा नहीं है। आपबीती की एक ऐसी सुघटना मुझे अब तलक याद है। आप भी सुन लें। किस्सा कोताह यह कि वह मेरे वैवाहिक वर्ष की दूसरी संधि-बेला थी। मैं तरंगित मन के साथ ‘आज फागुन बना पाहुन‘ की तर्ज पर ससुर बाड़ी पहुंचा था। उन दिनों मेरा साहित्यानुराग चरमोत्कर्ष पर था और ‘काव्यशास्त्रविनोदेनकालोगच्छतिधीमताम‘ में मेरी सहज आस्था थी। अस्तु मैं होलिकोत्सव के दिन ससुराली छत पर एकान्त पाकर अपनी कविताओं की नयी नवेली नोट बुक के साथ रचना प्रक्रिया में व्यस्त था कि अचानक भूचाल जैसी धमा-चौकड़ी से मेरी कविता रफूचक्कर हो गयी।
बात यह थी कि मेरी सालियां अपनी पड़ोसन सहेलियों की फौज के साथ मेरी खोज में निकली थीं और छत पर मुझे अकेला और निहत्था पाकर किलकारियों से भर उठी थीं। सम्हलने से पहले ही मैं रंगों के धुआंधार फव्वारे के नीचे आ गया था। उस दिन पहली बार मैं कविता की नोट बुक समेत बैनीआहपीनाला के दरिया में गोते लगाता रहा। एक साली ने मेरी कलम मुझसे छीन ली और दूसरी ने मेरे सफाचट चेहरे पर उसकी स्याही से मूंछ-दाढ़ी बना कर मुझे जोकर का हुलिया प्रदान किया। आज भी उस वारदात को याद करते हुए मेरी रूह कांपती है। उसी दिन से मैं बैगनी-नीला-आसमानी-हरा-पीला-नारंगी-लाल के पनसोखे से खार खाये बैठा हूं।
तो साहब, ये है होलीयाना माहौल की एक भोगी हुई आत्मकथा। तब से सावधान रहता हूं कि घर चाहे अपने पिता का हो या पत्नी के पिता का, मैं किसी भी शर्त पर माहौल के हो-हल्ले में न फंसूं। वैसे अपनी शहरी आबादी में इधर वर्षों से होलिकोत्सव जैसी कोई चीज मुझे नजर नहीं आ रही। अलबत्ता हर चौराहे पर हर मुहल्ले में दर्जनों लड़के चुनींदा बुजुर्गों (?) के नेतृत्व में होलिका दहन यानी अगजा की रस्म जरूर निभाते हैं।
अगली सुबह नगर निगम की नालियों की कीचड़ का पेस्ट बना कर ‘होली है‘ के नगाड़े पर रंगमंडल का समूह गान भी चलता है। फिर इत्मीनान के कुछेक घंटों के लिए एक-दूजे पर फीके रंगों की बौछार शुरू होती है और पूरी शाम गुलालों से गुलजार हो जाती है। तो भी जग जाहिर बात यह है कि महंगाई ने तमाम रंगों के रंग फीके कर दिये हैं। वैसे, आप इस ‘त्योहार‘ को कोई भी नाम दें, मुझे जरा भी एतराज नहीं होगा।
RELATED ARTICLES

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Most Popular

Latest