मैं इस बात की कल्पना भी नहीं कर पा रहा कि यदि पश्चिम बंगाल की विधान सभा में किसी विपक्षी दल के विधायक ने ममता बनर्जी के हाथ से इस तरह से काग़ज़ छीन कर फाड़ दिया होता तो ममता बनर्जी उसका क्या हाल करतीं। बंगाल में तो त्रिणमूल कांग्रेस के पक्ष में वोट न डालने की इतनी भयंकर सज़ा भुगतनी पड़ती है, फिर इस अपराध के लिये तो न जाने उस विधायक का क्या हाल होता।

मैं बहुत प्रयास करता हूं कि भारतीय राजनीति पर संपादकीय न लिखूं, मगर भारत के राजनीतिज्ञ मुझे मजबूर कर देते हैं कि टोकियो ओलंपिक खेलों और राज कुन्दरा का मामला ताज़ा होते हुए भी मुझे भारत की संसद पर क़लम चलानी पड़ रही है।
तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद के अशोभनीय व्यवहार ने भारतीय संसद को विश्व भर में उपहास का पात्र बना दिया है। और जिस प्रकार संसद में गतिरोध बना हुआ है एक प्रश्न सामने मुंह बाए खड़ा हो गया है – “जिस प्रकार भारत की संसद में पिछले कुछ सालों से काम हो रहा है, क्या भारत में संसद की आवश्यकता है?” 
किसी भी सत्र में विपक्ष सरकार को घेर कर सवाल जवाब नहीं करता। सरकार को संसद के पटल पर आधिकारिक जवाब देने के लिये बाध्य नहीं करता। विपक्ष लगभग गली-चौराहे जैसी राजनीति संसद में कर रहा है। सत्ता पक्ष के लिये यह स्थिति सुविधाजनक है। न संसद चलती है और न उनसे कोई सवाल पूछता है। सदन के बाहर जो भी हंगामा होता है उसका कोई संसदीय रिकॉर्ड तो होता नहीं है। 
तृणमूल सांसद शांतनु सेन और आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव
राज्यसभा में केंद्रीय सूचना प्रोद्यौगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव पेगासस विवाद पर सरकार का पक्ष रखने के लिये खड़े ही हुए थे कि त्रिणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद ने उनके हाथों से काग़ज़ छीन लिये और उनको चिंदी-चिंदी करके राज्यसभा के उप-सभापति की कुर्सी की तरफ़ फेंक दिया। पूरा सदन सन्नाटे में था कि यह कैसा उग्र व्यवहार है! सके बाद केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी और टी.एम.सी. सांसद के बीच तीख़ी बयानबाज़ी हुई। दोनों पक्षों के बीच टकराव इस हद तक बढ़ गया कि मार्शलों को बीच-बचाव के लिए सामने आना पड़ा। इसके बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ओर से इस घटना को अपने-अपने ढंग से पेश करने की कोशिश की जा रही है।
मैं इस बात की कल्पना भी नहीं कर पा रहा कि यदि पश्चिम बंगाल की विधान सभा में किसी विपक्षी दल के विधायक ने ममता बनर्जी के हाथ से इस तरह से काग़ज़ छीन कर फाड़ दिया होता तो ममता बनर्जी उसका क्या हाल करतीं। बंगाल में तो त्रिणमूल कांग्रेस के पक्ष में वोट न डालने की इतनी भयंकर सज़ा भुगतनी पड़ती है, फिर इस अपराध के लिये तो न जाने उस विधायक का क्या हाल होता। 
विपक्ष को पेगासिस जासूसी मामले, किसान आंदोलन, दैनिक भास्कर पर इन्कम-टैक्स के छापे से कुछ लेना देना नहीं है। विपक्ष इस पर केवल राजनीति करना चाह रहा है। और वो कर भी रहा है। उधर सत्ता पक्ष को भी अच्छा लग रहा है कि विपक्ष की सारी हरकतें कैमरे के ज़रिये आम जनता तक पहुंच रही हैं और विपक्ष अपने आपको बेनकाब कर रहा है। 
पेगासस जासूसी मामले में तभी कुछ साफ़ हो पाएगा जब इस पर संसद में बहस हो पाएगी और सच्चाई सामने आएगी। आरोप-प्रत्यारोप से कुछ हासिल नहीं होने वाला। सभी मामले उलझते जा रहे हैं और कोरोना जैसी महामारी से लड़ रहे भारत की संसद पंगु बन कर बेबस देख रही है। 
हर विवेकशील व्यक्ति के मन में एक ही सवाल उठता है कि भारत के सांसद देश चलाने के लिये संसद का इस्तेमाल क्यों नहीं करते – केवल राजनीति के लिये क्यों करते हैं। शर्म तो तब आती है जब भारतीय संसद और पाकिस्तान की संसद की कार्यवाही एक सी लगने लगती है। भारतीय सांसद अपने लोकतंत्र को तो विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं और पाकिस्तान की लोकतंत्र प्रणाली को नकली लोकतंत्र कहते हैं। फिर दोनों संसदों में व्यवहार एक सा कैसे हो जाता है। 
विपक्ष के पास इतने बेहतरीन वक्ता हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके मंत्रिमण्डल की नींद हराम कर दें। मगर विपक्षी दल केवल अपने फेफड़ों का इस्तेमाल कर रहे हैं… दिमाग़ का नहीं। नारेबाज़ी, शोरगुल और हंगामा – क्या इससे संसद में काम चल सकता है। जब कानून और नियम बनाने वाले ही कानून और नियम तोड़ने लगें और मार्शल को स्थिति संभालने के लिये बुलाना पड़े तो उसे लोकतंत्र का मंदिर कैसे कहा जा सकता है?
कोई ऐसा प्रावधान होना चाहिये जिसके तहत यदि सांसद किसी भी वजह से संसद की कार्यवाही नहीं चलने देते तो उस पूरी दिन या सत्र का भत्ता उन्हें नहीं मिलना चाहिये। काम नहीं तो दाम नहीं की नीति संसद में लागू की जानी चाहिये।
सच तो यह है कि किसी भी संसदीय सत्र से पहले ही बाज़ार अफ़वाहों से गर्म हो जाता है कि अब की बार किन मुद्दों पर संसद में पक्ष और विपक्ष का टकराव होने वाला है। किन-किन मुद्दों पर विपक्ष संसद को चलने नहीं देगा। वर्तमान मॉनसून सत्र में तो नये मंत्रियों का परिचय तक नहीं होने दिया गया। यह एक बहुत पुरानी परंपरा रही है कि जब कभी मंत्रिमण्डल का विस्तार किया जाता है, संसद में नये मंत्रियों का परिचय करवाया जाता है। इस परंपरा को भी धता बता दी गयी। 
वैसे भारत की संसद की वर्तमान स्थिति को देख कर एक बात साफ़ हो रही है कि विपक्ष को इस बात की जानकारी नहीं है कि किसी भी देश में सरकार चलाने के लिये पक्ष और विपक्ष दोनों की एक ख़ास भूमिका होती है। समस्या यह है कि कांग्रेस पैंसठ साल सत्ता में रही है। उसे एक सकारात्मक विपक्ष का किरदार निभाने का अनुभव नहीं है। वहीं भाजपा हमेशा विपक्ष में रही है। उन्हें राज चलाने का इतना अनुभव नहीं है। दोनों धड़ों यानी कि सत्ता पक्ष एवं विपक्ष को सबसे पहले संसद को चलने देना होगा, तभी देश प्रगति की राह पर चल पाएगा।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

9 टिप्पणी

  1. सम्पादकीय में ,संसद, सांसद ,और लोकतंत्र के वर्तमान परिदृश्य पर सार्थक विचारों का स्वागत है। मानसून सत्र का नज़ारा देख भ्रम का होना स्वाभाविक है कि यह क्या भारत का लोकतंत्र है?
    आपकी टिप्पणी के बिंदु गम्भीर हैं ,वे सांसद जो अपने राज्य में भयभीत होते हैं लोकसभा में अनुशासन हीनता की पराकाष्ठा का प्रदर्शन करते नज़र आते हैं।वर्षों सत्ता में रहने के बाद विपक्ष की भूमिका नहीं सम्हल रही, जो सत्ता में हैं उन्हें राष्ट्र हित के कार्य नहीं करने देने का जैसे संकल्प ले लिया है।
    कुछ नियम ऐसे बने कि संसद सत्र नहीं चला तो भत्ता नही मिला ये विचार भी देश हित में होना चाहिए।
    मूल मुद्दा है संसद चलने दी जाए तभी देश का और देशवासियों का कल्याण संभव है ।
    भारत के विकास ,संसद की गरिमा ,विपक्ष की भूमिका और लोकतंत्र की स्थिरता पर सार्थक सम्पादकीय के लिए साधुवाद
    dr prabha mishra

  2. A very objective view of our parliamentarians.
    It is indeed unseemly on the part of Shantanu Sen to conduct himself in such a disgraceful manner.
    A very good pointer to both our present government and the opposition.

  3. सर आपका सम्पादकीय सत्तापक्ष एवम विपक्ष के राजनैतिक परिदृश्य को पारदर्शी रूप मे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर देता है।

  4. अत्यंत गंभीर विषय पर बहुत ही सही लिखा है वास्तव में ऐसे विषयों पर सार्थक संपादकीय की महती आवश्यकता है शुभकामनाएं

  5. भारतीय संसद को विपक्षी दलों ने आज सर्कस बना दिया है। मोदी विरोध में उन्होंने अपना स्तर इतना अधिक नीचे गिरा दिया है कि विश्वभर में जोकर बनकर रह गए हैं। रही बात तृणमूल की, तो यथा राजा तथा प्रजा।

  6. शानदार लिखा है सर।
    पक्ष और विपक्ष दोनों को ही संसद की गरिमा बनाए रखना चाहिए ।

  7. भारतीय संसद के पक्ष और विपक्ष दोनों को आईना दिखाने वाला सम्पादकीय वस्तुत: सराहनीय है। आज के समय में यह बहुत आवश्यक विषय है। काम नहीं तो दाम नहीं….. यह फ़ाॅर्मूला काश लागू हो जाए। तेजेन्द्र जी ! आपकी पैनी दृष्टि से कुछ भी छुप नहीं सकता।

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