सोहन घबराये हुये कक्षा के भीतर घुसा ही था कि कक्षाध्यापक शास्त्री जी की कड़कदार आवाज सुनायी पड़ी, ‘‘, तुम इतनी देरी से क्यों आ रहे हो ?’’
‘‘सर, मां की तबियत बहुत खराब हो गयी थी। उनके लिये दवाई लेने चला गया था ’’ सोहन ने सहमते हुये बताया।
‘‘तब तो फीस जमा करने के लिये पैसे तुम्हारे पास फिर नहीं बचे होंगे..’ ’शास्त्री जी ने उसे घूरा।
‘‘जी।’’ 
‘‘जी के बच्चे, रोज – रोज नये-नये बहाने बनाता है। आज अपनी मां को ही बीमार कर दिया। झूठ बोलते हुये शर्म नहीं आती तुम्हें ’’ शास्त्री जी ने जोर से डपटा।
‘‘सरमैं झूठ नहीं बोल रहा। मेरा विश्वाश करिये’’ सोहन रूआंसा हो उठा।
‘‘तुम्हारा विश्वाश तो पिछले दो महीने से कर रहा हूं लेकिन अब और नहीं कर सकता। चुपचाप कक्षा से बाहर निकल जाओ और फीस जमा करने के बाद ही वापस आना ’’ शास्त्री जी ने दो-टूक फैसला सुनाया।
सोहन की आंखे छलछला आयीं। वह कक्षा से बाहर निकल आया और काफी देर तक सड़कों पर भटकता रहा। थक कर कस्बे के रेलवे स्टेशन के सामने एक बेंच पर बैठ गया और अपनी जिंदगी के बारे में सोचने लगा।
उसके पिता एक गरीब मजदूर थे मगर वे अपने बेटे को पढ़ा-लिखा कर बड़ा अफसर बनाना चाहते थे। अचानक पिछले साल एक दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी थी। उनके ईलाज में मां के गहने तक बिक गये थे। उसके बाद मां बहुत मुश्किलों से उसे पढा रही थीं। किन्तु बीमार पड़ जाने के कारण पिछले दो महीने से वे उसकी फीस जमा नहीं कर पायी थीं। 
कल शास्त्री जी ने नाम काटने की धमकी दी थी। तब मां ने घर का राशन बेंच फीस के पैसे का इन्तजाम किया था। मगर आज उनकी तबियत ज्यादा खराब हो गयी तो सोहन उस पैसे से दवाई ले आया था। अब न तो स्कूल में फीस जमा करने के पैसे थे और न ही घर में खाने के लिये राशन। सोहन की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे।
‘‘भगवान के नाम पर एक रूपया दे दो। वह तुम्हारे सारे दुख दूर कर देगा ’’ अचानक एक दर्द भरी आवाज सुनायी पड़ी तो सोहन चैंक पड़ा।
उसकी उम्र का ही एक बच्चा उसके सामने हाथ फैलाये खड़ा था।  सोहन ने पूछा,‘‘भाई, तुम भीख क्यूं मांगते हो?’’
‘‘भीख न मांगू तो क्या बूट-पालिश करूं ?’’ उस लड़के ने बुरा सा मुंह बनाया।
‘‘ भीख मांगने से तो यह अच्छा ही काम होगा’’ सोहन ने समझाया।
‘‘क्या खाक अच्छा होगा ?’’ उस लड़के ने एक बार फिर मुंह बनाया फिर बोला,‘‘ बूट-पालिश भी कर चुका हूं मगर उसमें इससे आधे पैसे भी नहीं मिलते।’’
इतना कह वह आगे बढ़ गया। मगर उसके शब्द सोहन के कानों में गूंजने लगे उसमें इससे आधे पैसे भी नहीं मिलते’। इसका मतलब कम सही मगर बूट-पालिशकरने पर पैसे मिल सकते हैं।
उसने निश्चय कर लिया कि वह बूट-पालिशकर पैसे कमायेगा और स्कूल की फीस भरेगा। मगर इसके लिये भी तो पालिश और ब्रश खरीदने होंगें। मां के पास तो अब राशन खरीदने के भी पैसे नहीं थे। सोहन की आंखे अपनी मजबूरी पर एक बार फिर छलछला आयीं।
अचानक उसे याद आया कि पिछले साल वह दौड़ में प्रथम आया था तो ईनाम में चांदी का कप मिला था। शाम को उसने वह कप बेंच कर पालिश और ब्रश खरीद लिये।
अगले दिन वह रोज की तरह स्कूल जाने के लिये निकला और स्टेशन पहुंच गया। उसे लगा कि यहां पालिश करने से कस्बे के लोग उसे पहचान जायेगें फिर स्कूल तक खबर पहुंच जायेगी। इससे दूसरे बच्चे उसे परेशान कर सकते हैं। वह वहीं इंतजार करने लगा। थोड़ी ही देर में एक ट्रेन आ गयी। सोहन एक डिब्बे में सवार हो गया।
‘‘बूट-पालिश करवा लोबूट-पालिश ’’ उसने आवाज लगानी शुरू कर दी।
‘‘ऐ लड़के ठीक से पालिश कर भी पाते हो या नहीं ’’ एक आदमी ने पूछा।
‘‘बाबूजी, चिंता मत करिये। जूते को शीशे की तरह चमका दूंगा लेकिन पांच रूपये पडे़गें’’ सोहन ने कहा।
‘‘लेकिन अगर जूते नहीं चमके तो एक पैसे भी नहीं दूंगा ’’उस आदमी ने कड़क आवाज में कहा।
सोहन ने उसके गंदे जूतों को देखा। एक पल के लिये उसका मन हिचकिचाया। परन्तु अगले ही पल उसने निश्चय किया कि वह मेहनत से नहीं घबरायेगा। वह जूते चमकाने में जुट गया। पांच मिनट के अंदर उन जूतों की शक्ल बदल गयी।
‘‘अरे वाह, तुम्हारे हाथों में तो जादू है ’’ उस आदमी ने पांच का नोट सोहन को पकड़ा दिया।
अगले तीन स्टेशनों तक सोहन की 35 रूपये की कमाई हो गयी थी।  सोहन वहीं उतर गया। वह एक बड़ा स्टेशन था। वहां से एक घंटे बाद उसके कस्बे के लिये वापसी की टेªन मिलती थी। उस स्टेशन पर भी कई बच्चे भीख मांग रहे थे। सोहन की समझ में नहीं आ रहा था कि ये लोग मेहनत करने के बजाय भीख क्यूं मांगते हैं। 
वापसी में सोहन की 25 रूपये की कमाई और हो गयी। अब वह बहुत खुश था। डाक्टर के पास जाकर उसने तीस रूपये की दवाई ली। बाकी बीस रूपये का आंटा और दस रूपये के आलू खरीद लिये। 
मां ने जब यह सब देखा तो पूछा,‘‘इसके लिये पैसे कहां से लाया ?’’
सोहन को कोई जवाब नहीं सूझा। मां ने अपना प्रश्न दोहराया किन्तु सोहन ने कोई जवाब नहीं दिया तो उन्होंने कहा,‘‘कहीं तूने कोई गलत काम तो नहीं किया।’’
‘‘मां ! क्या तुम्हें अपने बेटे पर भरोसा नहीं है ?’’ 
‘‘भरोसा है बेटा, तभी तो पूछ रही हूं। सच-सच बता पैसे कहां से लाया ?’’ 
‘‘मैं आपसे झूठ नहीं बोल सकता। मैने रेलगाड़ी में बूट-पालिशकर आज 60 रूपये कमाये हैं ’’ सोहन ने धीमे स्वर में कहा।
‘‘ तूने लोगों के जूते साफ किये हैं ?’’ मां का स्वर आश्चर्य और दुख से कांप उठा।
‘‘हां’’
‘‘तेरे पिताजी तुझे बड़ा अफसर बनाना चाहते थे और तू लोगों के जूते साफ कर रहा है ’’ मां की मजबूरी उनकी आंखो से बह निकली।
‘‘मुझे भी पिताजी का सपना पूरा करना है। लेकिन उसके लिये स्कूल की फीस जमा करना जरूरी है। इसीलिये मैं मेहनत करके पैसा कमा रहा हूं’’ सोहन ने कहा।
‘‘बेटा, मैं मेहनत-मजदूरी कर तेरी फीस जमा करूंगी। तू बस अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे ’’ मां ने सोहन के सिर पर हाथ फेरा। 
‘‘ पहले तुम ठीक हो जाओ फिर जो चाहे करना। तब तक मुझे काम करने दो। ’’
‘‘लेकिन इस तरह दूसरों के जूते साफ करना……’’ मां के आंसू एक बार फिर बह निकले और आगे के शब्द उनकी हिचकियों में खो गये।
‘‘बहुत से मजबूर बच्चे भीख मांगते है। तेरा बेटा उनसे तो अच्छा है। कम से कम भीख तो नहीं मांगता ’’ कहते-कहते सोहन भी रो पड़़ा।
‘‘मेरा लाल तू उनसे नहीं बल्कि सबसे अच्छा है’’ मां ने सोहन को खींच कर अपने कलेजे से लिपटा लिया और फफक कर रोने लगीं। सोहन के आसूं भी उनके दामन को भिगोने लगे।
अगले दिन सोहन की 80 रूपये की कमाई हुयी और उसके अगले दिन 100 रूपये की। उसे लग रहा था कि सप्ताह भर में वह फीस भर के पैसे जमा कर लेगा।
सोहन जिस स्टेशन पर वापसी की टेªेन की प्रतीक्षा करता था वहां उसने देखा कि कई बच्चे भीख मांगते हैं। उसके बाद वे उस पैसे को सिगरेट और मौज-मस्ती में उड़़ा देते हैं। उसने उन्हें कोई काम करने की सलाह दी लेकिन कोई उसकी बात मानने के लिये तैयार नहीं था। उल्टे कई लड़के उससे लड़ाई करने पर उतारू हो गये।
कुछ सोच कर सोहन अगले दिन अपना बस्ता साथ ले गया। उसने उन बच्चों को समझाया कि वह उन सबको पढ़ाना चाहता है। इसके लिये वह उनसे कोई पैसे नहीं लेगा। ज्यादातर बच्चों ने उसकी बात पर विश्वाश नहीं किया लेकिन दो बच्चे  पढ़ने के लिये तैयार हो गये।
वापसी की ट्रेन आने तक सोहन उन दोनों को पढ़ाता रहा। इससे उसके मन को बहुत शांति मिली। वे दोनों बच्चे भी बहुत प्रसन्न थे। दो दिन बाद उन्होंने अपने एक और साथी को पढ़ने के लिये राजी कर लिया।
  धीरे-धीरे सात दिन बीत गये। सोहन रोज मां की दवाई लाता रहा फिर भी उसके पास फीस भर के पैसे जमा हो गये थे। वह सोमवार को फीस लेकर स्कूल पहूंचा।
‘‘देखा बच्चू, सीधी उंगली से घी नहीं निकलता। जब स्कूल से बाहर निकाल दिया तो फीस का इंतजाम हो गया ’’ शास्त्री जी ने विजयी मुद्रा में कहा । 
सोहन ने उनकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप पढ़ता रहा। मां की तबियत भी काफी ठीक हो गयी थी। मगर अभी उनकी हालत ऐसी नहीं हुयी थी कि मजदूरी करने जा सकें। इसलिये सोहन ने सोचा कि वह छुट्टियों में बूट-पालिशकरने जाया करेगा ताकि घर का खर्चा चलता रहे। 
अगले रविवार वह बूट-पालिशकरते हुये उस स्टेशन तक पहुंच गया जहां से वापसी की ट्रेन मिलती थी।
‘‘वह देखो वो आ गया।’’
‘‘हां, ये वही लड़का है ’’ शोर मचाते हुये कई लड़के उसकी ओर दौड़े।
शोर सुन सोहन घबरा गया। वह वहां से भागने की सोच ही रहा था कि उसने देखा कि सबसे आगे वही तीन लड़के हैं जिनको पिछले सप्ताह उसने पढ़ाया था।
‘‘भैया, आप कहां चले गये थे ? हम लोग रोज आपको इस गाड़ी में ढूंढते थे’’ एक लड़के ने कहा।
‘‘देखिये हमारे कितने दोस्त आपसे पढ़ने के लिये तैयार हो गये हैं ?’’ दूसरे ने बताया।
‘‘आपने हमें जो अ, , , , सिखलाया था वह सब हमने इन लोगों को भी सिखला दिया है’’तीसरे ने कहा।
‘‘अरे वाह, तुम लोग तो बहुत अच्छे हो ’’ सोहन की आवाज खुशी से कांप उठी।
वे बच्चे स्लेट और चाक भी खरीद लाये थे। सोहन उन सबको एक पंखे के नीचे बैठाल कर पढ़ाने लगा। एक कुली खाली समय में उस पंखे के नीचे बैठ कर आराम करता था। उससे यह देखा नहीं गया। उसने स्टेशन मास्टर से जाकर शिकायत की कि पंखे के नीचे भिखारी जमा होकर तमाशा कर रहे हैं इससे दूसरे यात्रियों को पेरशानी हो रही है।
स्टेशन मास्टर को भिखारियों से बहुत चिढ़ थी। वह तमतमाता हुआ वहां आया लेकिन वहां का दृश्य देख आश्चर्य से भर उठा। उसने सोहन से बात की तो वह उसे अपनी पूरी कहानी बताता चला गया।
‘‘बेटे, तुमने तो कमाल कर दिया। जो काम सरकार और बड़ी-बड़ी समाज सेवी संस्थायें नहीं कर सकीं वह तुमने कर दिया है’’ स्टेशन मास्टर ने सोहन की पीठ थपथपायी।
‘‘सर, अगर आपको हमारा काम अच्छा लगा है तो हमारी एक मदद कर दीजये ’’ सोहन ने कहा।
‘‘हां-हां बताओ। तुम्हारे लिये कुछ करके हमें खुशी हासिल होगी ’’ स्टेशन मास्टर ने कहा।
‘‘स्टेशन के किसी एक कोने की दीवार के एक छोटे से हिस्से को काले रंग से पुतवा दीजये। मैं उसे ब्लैक-बोर्ड बना कर छुट्टी वाले दिन इन बच्चों को पढ़ाया करूंगा ’’ सोहन ने कहा।
‘‘यह तो बहुत छोटा सा काम है। मैं तुरन्त करवा दूंगा ’’ स्टेशन मास्टर ने फौरन हामी भर दी।
सोहन अब प्रत्येक छुट्टी में वहां आकर बच्चों को पढ़ाने लगा। धीरे-धीरे ऐसे बच्चों की संख्या बढ़ने लगी। भीख मांगने वाले बच्चों के अलावा टेªन पर फेरी लगा कर सामान बेचने वाले कई बच्चे भी उससे उससे पढ़ने लगे।
  एक दिन वापस लौटते समय एक डिब्बे में पहुंच उसने आवाज लगायी बूट पालिश करवा लो, बूट पालिश
‘‘अबे, खोपड़ी मत खा। आगे जा। यहां कोई पालिश-वालिश नहीं करवायेगा’’ तभी एक कड़कदार आवाज सुनायी पड़ी। 
सोहन सहम कर पीछे हट गया। यह आवाज तो शास्त्री जी की थी। उसने छुपने की बहुत कोशिश की लेकिन शास्त्री जी की तेज नजरों ने उसे देख ही लिया। सोहन बहुत घबरा रहा था लेकिन उन्होंने उसे कुछ नही कहा। 
स्कूल में प्रतिदिन प्रार्थना सभा के बाद प्रधानाचार्य विद्यार्थियों को नैतिक शिक्षा से संबधित कुछ बातें जरूर बताते थे। किन्तु अगले दिन शास्त्री जी उनसे पहले ही माईक पर आ गये ,‘‘बच्चों, आज मैं आप लोगों का परिचय एक ऐसे विद्यार्थी से करवाना चाहता हूं जो दूर-दूर तक हमारे स्कूल का नाम रौशन कर रहा है। ’’
इतना कह उन्होंने सोहन को अपने पास बुलाया। वह सहमता हुआ करीब पहुंचा तो वे उसका हाथ उठाते हुये बोले,‘‘ये श्रीमान जी, मान-अपमान जैसी चीजों से मीलों दूर हैं। ये ट्रेनों में जूते पालिश कर स्कूल का नाम रौशन कर रहे हैं। आज तक यह स्कूल अपनी पढाई के कारण जाना जाता था , अब यह बूट-पालिशवालों के नाम से जाना जायेगा।’’ 
यह सुन सारे बच्चे हंसने लगे। सोहन को लगा जैसे उसे सबके सामने नंगा कर दिया गया है। उसकी आंखे भर आयीं।
किन्तु शास्त्री जी को इसकी परवाह न थी। वे चिल्लाते हुये बोले ,‘‘रेल गाड़ियों में जूते पालिश कर स्कूल का नाम बदनाम करने वाला लड़का यहां नहीं पढ़ सकता। प्रधानाचार्य महोदय से अनुरोध है कि वे इसे स्कूल से निकाल दें।’’
‘‘जी हां, शास्त्री जी। मैं भी आज आप सबको यही बताने वाला था कि सोहन अब इस स्कूल में नहीं पढ़ेगा ’’ माईक पर प्रधानाचार्य की गंभीर वाणी गूंजी।
सोहन आश्चर्य से भर उठा। वह प्रधानाचार्य को आदर्श मानता था। उसे विश्वाश ही नहीं हो रहा था कि वे ऐसा कह सकते हैं। 
‘‘जी हां, बच्चों , मैं सही कह रहा हूं। सोहन अब इस स्कूल में नहीं पढ़ेगा ’’ इतना कह उन्होंने वहां जमा बच्चों पर एक दृष्टि डाली फिर बोले,‘‘क्योंकि सोहन को राजधानी के सबसे बड़े स्कूल ने अपने यहां एडमीशन दे दिया है और उसकी पढाई का पूरा खर्चा उठाने की जिम्मेदारी देश के एक बहुत बड़े स्वयं सेवी संगठन ने ली है। हमें अपने इस होनहार विद्यार्थी पर गर्व है और आप सबको भी अपने इस साथी पर गर्व होना चाहिये।’’
‘‘यह आप क्या कह रहे हैं ?’’ शास्त्री जी को अपने सुने पर विश्वाश नहीं हुआ।
‘‘शास्त्री जी, एक अध्यापक का फर्ज होता है कि वह अपने विद्यार्थियों का जीवन संवारें लेकिन आपने तो अपने विद्यार्थी का जीवन बर्बाद करने में कोई कसर ही नहीं छोड़ी थी। फीस जमा न कर पाने के कारण उसे कक्षा से ही निकाल दिया जबकि देश में गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का कानून लागू है ’’ इतना कह कर वह पल भर के लिये रूके फिर बच्चों की ओर देखते हुये बोले,‘‘ सोहन के सामने दो रास्ते थे। पहला यह कि सड़कों पर भीख मांगे या चोरी-चकारी करे और दूसरा यह कि मेहनत कर अपनी मां का ईलाज करवाते हुये अपनी पढ़ाई जारी रखे। मुझे खुशी है कि उसने दूसरा रास्ता चुना। उसने बूट-पालिशकी है कोई चोरी नहीं की जिसके लिये उसे या उसके स्कूल को शर्मिंदा होना पड़े।’’
उन्होंने सोहन को करीब बुला उसके सिर पर हाथ फेरा फिर बोले,‘‘इस वीर बालक ने न केवल अपना जीवन सुधारने का प्रण किया है बल्कि कई दूसरे असहाय बच्चों का जीवन सुधारने का संकल्प लिया है। प्रत्येक छुट्टी में यह एक स्टेशन पर भीख मांगने वाले बच्चों को मुफ्त में पढ़ाता है। इसके उस छोटे से स्कूल में हर सप्ताह विद्यार्थियों की भीड़ बढ़ती जा रही है। एक एन.जी.ओ. को जब इसके संघर्ष की कहानी पता चली तो उसने राजधानी के सबसे बड़े स्कूल को खबर की। उस स्कूल ने कल ही इस होनहार बच्चे को अपने यहां एडमीशन देने की घोषणा की है। मुझे अपने इस बहादुर बेटे पर गर्व है और मुझे विश्वाश है कि आपको भी अपने इस बहादुर साथी पर गर्व होगा।’’
यह सुन तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा मैदान गूंज उठा। सारे बच्चे सोहन-सोहनचिल्ला रहे थे और सोहन की आंखों से खुशी के आसूं बहे जा रहे थे।
जब शोर कुछ कम हुआ तो प्रधानाचार्य ने कहा,‘‘शास्त्री जी, यह शिक्षा का पवित्र मंदिर है। यहां आप जैसे हृदयहीन व्यक्तियों की कोई आवश्यकता नही है। अच्छा होगा कि आप अपना इस्तीफा स्वयं दे दें वरना हमें आपके खिलाफ कार्यवाई करनी होगी।’’’
यह सुन शास्त्री जी के होश उड़ गये। उन्होंने कल्पना भी नहीं थी कि उनकी हरकत से उनकी ही नौकरी पर आंच आ जायेगी। उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या कहें।
तभी सोहन ने प्रधानाचार्य से कहा,‘‘सर, राजधानी का स्कूल मुझे इतना बड़ा पुरस्कार दे रहा है क्या मेरा स्कूल मुझे कोई पुरस्कार नहीं देगा ?’’
‘‘तुम्हें पुरस्कार देकर तो हम लोग स्वयं सम्मानित होंगें। बताओ क्या चाहिये तुम्हें ?’’ प्रधानाचार्य ने कहा।
‘‘आप शास्त्री सर को माफ कर दीजये। वह बहुत अच्छे अध्यापक हैं। मुझे विश्वाश है कि वे बहुत से बच्चों की जिंदगी बना सकते हैं’’ सोहन ने कहा।
   ‘‘प्लीज सर,मुझे माफ कर दीजये। मैं दोबारा ऐसी गलती नहीं करूंगा’’शास्त्री जी हाथ जोड़ गिड़गिड़ा उठे।
‘‘अगर माफी मांगनी है तो मुझसे नहीं इस छोटे से बच्चे से मांगिये जिसके आप अपराधी हैं ’’ प्रधानाचार्य ने शास्त्री जी को घूरा।
शास्त्री जी सोहन की ओर मुड़े किन्तु इससे पहले कि वे कुछ कह पाते वह बोल पड़ा,‘‘सर , मुझसे माफी मांगने के बजाय अगर आप एक वादा करें तो ज्यादा अच्छा होगा।’’
‘‘बताओ मेरे बच्चे। मैं हर वादा पूरा करूंगा ’’ शास्त्री जी बोले।
‘‘मैं तो अब शहर चला जाउंगा इसलिये उस स्टेशन पर जिन बच्चों को मैं पढ़ाता था उन्हें छुट्टी वाले दिन पढ़ाने की जिम्मेदारी आप ले लीजये’’ सोहन ने कहा।
‘‘मेरे बच्चे, तुमने मुझे जीत लिया। तुम्हारे आगे मैं बहुत छोटा हूं’’ शास्त्री जी सोहन को गले से लगा फफक पड़े ,‘‘ मैं न केवल यह वादा पूरा करूंगा बल्कि प्रतिदिन अपने कस्बे में भी एक घंटा ऐसे बेसहारा बच्चों को पढ़ाया करूंगा।’’
यह सुन पूरा मैदान एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।

संजीव जायसवाल ‘संजय’
संपर्क – sanjeev59j@gmail.com

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