यह ज़रूरी है कि विश्व भर की सरकारें इस मुद्दे की तरफ़ ध्यान दें। जिस फ़्लोराइड को अमरीका में विष कहा जा रहा है वही फ़्लोराइड भारत और बाक़ी विश्व में क्यों आसानी से बेचा जा रहा है। वैसे टूथपेस्ट बनाने वाली कम्पनियों का एक सवाल वाजिब है – हमारे द्वारा बनाए गये टूथपेस्ट से तो फिर भी आप केवल दांत साफ़ करते हैं। मगर जो फ़्लोराइड सरकारें पानी और अन्य माध्यमों से आपके शरीर में पहुंचा रहे हैं, आप उससे कैसे अपना बचाव करेंगे। क्या “फ़्लोरीफ़ाईड सरकारों” को टूथपेस्ट में इस्तेमाल किये जा रहे फ़्लोराइड से कोई फ़र्क पड़ेगा।
हमारी पीढ़ी के बचपन में नीम और कीकर के दातुन लोकप्रिय थे। नानी दंदासा इस्तेमाल करती थीं जिससे मसूड़े और होंठ तक लाल हो जाते थे। कुछ लोग दुबई, कुवैत से वापिस आते थे तो साथ में मिस्वाक का दातुन ले कर आते थे। उसमें से भीनी-भीनी सौंफ़ जैसी ख़ुशबू महसूस हुआ करती थी।
श्रीलंका से बिनाका गीतमाला प्रोग्राम सुनने के बाद हम भी अपने माता को बिनाका टूथपेस्ट ख़रीदने के लिये तंग करने लगे। उस पेस्ट के साथ बच्चों को एक छोटा सा प्लास्टिक का खिलौना भी मिलता था। उसका हरे रंग का स्वाद बहुत मज़ेदार लगता था।
अपने बुज़ुर्गों में यह बहस आम सुनने को मिलती थी कि कॉलगेट पेस्ट बेहतर है या फि फ़ोरहन्स। कुछ रिश्तेदार या मित्र नीम टूथपेस्ट की वकालत करते थे। हमारे घर में गुरूकुल कांगड़ी का दंत मंजन भी आया करता था… उसे शायद पायोकिल कहा जाता था। वैसे तो बंदर छाप काला दंतमंजन भी आया करता था जबकि डाबर का लाल दंतमंजन भी सिनेमा की विज्ञापन फ़िल्मों में दिखाई दे जाता था।
मगर हाल ही में जब भारत की आई.एम.ए. और बाबा रामदेव के बीच कुछ विवाद खड़ा हो गया तो मैं भी सोच में पड़ गया कि आयुर्वेद और एलोपैथी सिस्टम साथ साथ क्यों नहीं एक राह पर चल सकते। तुरंत इलाज और सर्जरी के लिये एलोपैथी और बीमारी को जड़ से निकाल बाहर करने के लिये आयुर्वैदिक।
इसी सिलसिले में मेरी निगाह वह्टसऐप पर वायरल हुए एक वीडियो पर पड़ी जिसमें कॉलगेट टूथपेस्ट में ज़हरीले पदार्थ होने की बात कही गयी थी। मैंन कॉलगेट टूथपेस्ट के कार्टन को खंगाला तो उस पर एक वार्निंग लिखी दिखाई दी – “6 वर्ष से छोटे बच्चों की पहुंच से दूर रखें। यदि ग़लती से इसे निगल लिया जाए तो पेशेवर सहायता ली जाए या फिर विष नियंत्रण केन्द्र से तत्काल संपर्क करें।”
मैंने तुरन्त सैंसोडाइन, क्रेस्ट और अन्य विश्व भर के टूथपेस्ट की ट्यूब एवं कार्टन पर लिखी वार्निंग पढ़ीं। सभी वो टूथपेस्ट जिनमें कि फ़्लोराइड मौजूद था, यही वार्निंग थी कि 6 साल से छोटे बच्चों की पहुंच से दूर रखे जाएं। सेंसोडाइन तो 12 साल से छोटे बच्चों से दूर रखने की बात करता है।
मैंने भारतीय मूल का होने के नाते बहुत गर्व से अपने टूथपेस्ट यानि कि बाबा रामदेव के पातंजलि दंत-कांति टूथपेस्ट की ट्यूब पर इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री पढ़ी तो भौंचक रह गया। मेरे टूथपेस्ट का पूरा नाम है – ‘Dant Kanti Advance Power Toothpaste’. इसमें इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री की पहली पंक्ति में लिखा पाया – कैल्शियम कार्बोनेट, पानी, सॉर्बिटॉल, ग्लिसरीन, सिलिका, सोडियम लेरिल सल्फ़ेट, प्रोपाइलीन ग्लायकॉल, टाइटैनियम डाइऑक्साइड, सुगन्ध, पी.ई.जी.400, सेल्युलोज़ गोन्द, पोटाशियम एलम, सोडियम बेंज़ोकेल, सोडियम सैकेरीन, ज़िंक सिट्रेट, ट्राइसोडियम फ़ॉस्फ़ेट। यदि ये सब इस टूथपेस्ट में मौजूद है तो इसे आयुर्वेदिक टूथपेस्ट कैसे कहा जा सकता है?
और मज़ेदार बात यह है कि इस टूथपेस्ट को आयुर्वेदिक औषधि कहा ही नहीं गया। और इसकी ट्यूब पर भी वार्निंग मौजूद है – “6 वर्ष या उससे छोटे बच्चे बड़ों की देखरेख में इस टूथपेस्ट का इस्तेमाल करें और केवल मटर के दाने जितना पेस्ट लें। इसे निगलें नहीं। ब्रश करने के पश्चात झाग को थूक कर जल्दी से मुंह पानी से कुल्ला कर के साफ़ कर लें।”
मगर दंत-कांति के एक दूसरे मॉडल ‘नेचुरल’ जिसे कि Proprietary Ayurvedic Medicine कह कर बेचा जाता है उसमें भी कैलशियम कार्बोनेट और सोडियम बेंज़ोनेट के साथ साथ फ़्लोराइड मौजूद है। यानि कि फ़्लोराइड हर पेस्ट में मौजूद रहेगा ही चाहे पेस्ट अंग्रेज़ी हो या फिर आयुर्वेदिक। मगर वीको वज्रदन्ती टूथपेस्ट बनाने वालों का दावा है कि हमारे पेस्ट में फ़्लोराइड मौजूद नहीं है।
जो बात मेरी समझ में आई, वो यह है कि जिस भी टूथपेस्ट में फ़्लोराइड मौजूद है, वह बच्चों के लिये नुक़्सानदेह है। मगर अमरीका में भारत के मुक़ाबले स्वास्थ्य को लेकर क़ानून अधिक सख़्ती से लागू किये जाते हैं इसलिये सन् 1991 में अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन (Food and Drug Administration) ने टूथपेस्ट टयूब पर यह चेतावनी लिखवा दी थी-‘इसे निगलें नहीं और 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए केवल मटर के दाने के बराबर पेस्ट इस्तेमाल करें।’ यदि पेस्ट निगल लिया जाए तो निकटतम ‘विष नियंत्रण केंद्र’ से संपर्क करने की सलाह दी गई थी। मटर के बराबर के पेस्ट में 1000 भाग प्रति दस लाख फ्लोराइड होता था अतएव निर्माताओं को दवाई के स्वाद की तरह लगने वाला टूथपेस्ट बनना चाहिए था। परंतु निर्माताओं ने इसके बजाए बच्चों के नाम के हिसाब से ऐसे ट्यूब बनाए जिनका स्वाद स्ट्राबेरी की तरह था।
अंग्रेज़ी टूथपेस्ट केवल दाँत साफ़ करने के लिये नहीं बनाए जाते। उनके बहुत से अलग उपयोग भी होते हैं। जैसे त्वचा का कोई भाग जल जाए और जलन कम न हो तो जैसे हम बर्नॉल का इस्तेमाल करते हैं, ठीक उसी तरह जले हुए स्थान पर टूथपेस्ट लगाने से जलन कम हो जाती है और फफोले पड़ने का डर भी कम हो जाता है।
अगर आपके घर में कांच की मेज़ है और उस पर कोई निशान पड़ जाए तो आप उसे तुरन्त अपने टूथपेस्ट से साफ़ कर सकते हैं। यानि कि आपका पेस्ट किसी ब्लीच से कम नहीं है। यदि किसी कपड़े पर लिपस्टिक या स्याही का निशान पड़ जाए तो घबराइये मत… आपके पास अपना टूथपेस्ट है न… बस थोड़ा सा टूथपेस्ट उस निशान पर रख दीजिये और देखिये अपने टूथपेस्ट का चमत्कार।
वैसे उन नवयुवतियों के लिये तो टूथपेस्ट एक वरदान है जिन्हें मुहासों की समस्या से जूझना पड़ता है। रात को मुहासों पर अपना पेस्ट लगाइये और देखिये मुहासे कैसे सूखने लगते हैं।
नारी-शक्ति के लिये तो जैसे टूथपेस्ट एक वरदान ही है। यदि गहने काले पड़ जाएं तो हल हाज़िर है… आपका अपना टूथपेस्ट! “लाख दु:खों की एक दवा है, क्यों न आज़माए!” कहा तो यहां तक जाता है कि टूथपेस्ट हीरे तक को चमका सकता है। गृहणियों के लिये तो इसका एक और ख़ास उपयोग है। यदि दूध के बर्तन में या बच्चे के दूध की बोतल में दूध की महक रह जाए तो अपने टूथपेस्ट और पानी का घोल मिला कर उस बर्तन या बोतल में डाल दें। बस थोड़ी देर में महक ग़ायब।
यदि चेहरे पर झुर्रियां दिखाई देने लगें या फिर डॉर्क सर्कल तो बस नीबू में अपना पेस्ट मिलाइये और फ़ेसपैक बना कर चेहरे पर लगा लीजिये। और यदि आपके नाख़ूनों की चमक कम होती जा रही है तो नेल-पॉलिश साफ़ करके अपने नाख़ूनों की अपने टूथपेस्ट से मालिश करें। चमक वापिस लौटने लगेगी।
वैसे कौन है जो दर्पण में अपने चेहरे को निहारना पसंद नहीं करता! मगर कभी कभी ऐसा भी होता है कि आपका घर का आईना गंदा हो जाए या फिर धुंधला पड़ जाए तो परेशान न होइये। निश्चिंत हो कर अपने टूथपेस्ट से आईने को साफ़ कीजिये और पाइये अपना चमकदार दर्पण!
वैसे आपको यह जानकारी भी देते चलते हैं कि मिस्त्र में करीब 5,000 साल पहले टूथ-पेस्ट का आविष्कार किया गया था और करीब 3500-3000 साल पहले टूथ-ब्रश का इस्तेमाल भी शुरू कर दिया था। चीन में टूथ-ब्रश के वर्तमान स्वरूप की शुरूआत शायद चौदहवीं शताब्दी में हुई। 1780 में विलियम एडिस ने टूथ-बर्श का इंग्लैण्ड में डिज़ाइन तैयार किया। इसका हैण्डल जानवरों की हड्डी से बना होता था और ब्रिस्ल सूअर के बालों से। ड्युपौँ (Dupont) कम्पनी ने 1938 में नायलॉन का आविष्कार किया तो 1950 तक मुलायम ब्रिसल तैयार होने लगे। अमरीकी डेंटल एसोसिएशन मुलायम बालों वाले टूथ- ब्रश की वकालत करती है।
यह ज़रूरी है कि विश्व भर की सरकारें इस मुद्दे की तरफ़ ध्यान दें। जिस फ़्लोराइड को अमरीका में विष कहा जा रहा है वही फ़्लोराइड भारत और बाक़ी विश्व में क्यों आसानी से बेचा जा रहा है। वैसे टूथपेस्ट बनाने वाली कम्पनियों का एक सवाल वाजिब है – हमारे द्वारा बनाए गये टूथपेस्ट से तो फिर भी आप केवल दांत साफ़ करते हैं। मगर जो फ़्लोराइड सरकारें पानी और अन्य माध्यमों से आपके शरीर में पहुंचा रहे हैं, आप उससे कैसे अपना बचाव करेंगे। क्या “फ़्लोरीफ़ाईड सरकारों” को टूथपेस्ट में इस्तेमाल किये जा रहे फ़्लोराइड से कोई फ़र्क पड़ेगा।
Originally I had also said Tejendra ji has rendered a great service to the public by warning us against Flouride toothpastes n others which can harm us.
A useful guide to using the right toothpaste.
Thanks to Tejendra ji we shall read the warnings given on the toothpastes too which we usually ignore due to their small print.
आँखें खोलने वाला लेख है सर।
पर देखने में आता है छोटे बच्चे टूथ पेस्ट को चाटते हैं कई जगह बच्चों के रोने पर उन्हें खेलने के लिए मां टूथ पेस्ट पकड़ा देती हैं।
अधिकांश घरों में तो बरनोल का काम टूथ पेस्ट ही करता है।
पर पानी और अन्य तरीकों से सरकारों द्वारा जो फ्लोराइड शरीर में पहुंचाया जा रहा है उससे कैसे बचा जा सकता है ये प्रश्न विचारणीय है।
कम ही लोग हैं जो टूथपेस्ट इस्तेमाल करने से पहले उस पर दी गई चेतावनी को पढ़ते हैं।
दंत क्रांति को लोग आयुर्वेदिक टूथ पेस्ट ही मानते हैं।
जनता का जागरूक होना अत्यंत आवश्यक है।
सरकार का …..सरकार ही जाने।
दन्त मंजन या कहें टूथपेस्ट के बारे में आंखे खोल देने वाली तथ्य आधारित इस जानकारी के लिए तेजेन्द्र जी को हार्दिक बधाई। साहित्य से इतर इस प्रकार अन्य विषय पर आपका यह लेख आपकी समाज के प्रति ज़िम्मेदारी की भावना को उजागर करता है।
पतंजलि के प्रोडूक्स को हम लोग आयुर्वेदिक ही मानते हम पर आपने इस दन्तमंजन पर लिखी जानकारी को बारीकी से पढ़ा और हमारे बीच साझा किया। आश्चर्यचकित हूँ कि किस कदर ग्राहकों को धोखा दिया जा रहा है।
मुझे लगता है कि अब हमें मदर नेचर की ओर लौट जाना चाहिए और नीम दातुन का ही प्रयोग करना चाहिए क्योंकि हर प्रोडक्ट में कुछ न कुछ हानिकारक अवयव मौजूद रहते हैं । किस किस से बचा जाए।
जिसे आप मिस्वाक कहते हैं हमारे देसी भाषा में मुसाग भी बोलते हैं। कुछ पंजाबी लोग भी बोलते हैं श्री गंगानगर में। इसके अलावा एक बार एक खबर पढ़ी थी और सुनी भी थी। जिसमें दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर का कहना था कि जिस पेस्ट में सबसे ज्यादा झाग बने वो इस्तेमाल करते हैं हम तो वही देखकर लेते हैं। नाम तो नही ध्यान पता नही किस विभाग में थे। इसके अलावा हम लोग बचपन में नीम, मिस्वाक आदि ही करते थे। बाबा रामदेव वाले में तो लोग गोबर, मूत्र पता नही क्या क्या बकवास बताते हैं। वो एक दो बार किया दीदी सब सामान पतंजलि का इस्तेमाल करती है इसलिए। उनका मानना है कि भले जो हो कम से कम है तो देश का ही। कोई विदेशी कम्पनी तो नहीं है। यही बहुत सारे लोग का भी मानना है। मैंने जितनी बार भी किया मजबुरी में किया लेकिन कभी मजा नही आया करते हुए। कभी भी नीम करने का मौका लग जाता है आसपास दिख जाता है तो वही करता हूँ। पेस्ट भी मटर के दाने जितना ही इस्तेमाल करता हूँ शुरू से ही। ज्यादा झाग बनाना मतलब ज्यादा सफाई नही होती। घरों में बच्चों को कहते हैं हमारे भी भाई बहन मतलब मेरे भतीजे भतीजी भांजा भांजी को कि झाग बना अच्छे से और ले पेस्ट और ले। भर देते हैं। 4,5 साल की उम्र से ही शुरू हो जाता है ये सब। इसलिए बच्चों को नीम खारा ही लगता है। मुझे तो मजे आते हैं नीम से दांत एकदम चमक जाते हैं। मुंह की बदबू भी गायब हो जाती है
भाई तेजेन्द्र शर्मा जी का लिखा हुआ यह संपादकीय जबरदस्त तैयारी और जानकारी पर आधारित है. इसे पढ़कर बहुत समृद्ध हुआ हूँ. केवल लाभ कमाने के चक्कर में कंपनियाँ अपने ग्राहकों के साथ इतनी क्रूरता कर सकती हैं , शायद ही किसी ने सोचा हो.. अपने भगवाधारी बाबा भी आयुर्वेद के नाम पर वही सब बेच रहे हैं जो दूसरी कंपनियों.
सरकार भी अब कंपनी की ही तरह का व्यवहार कर रही है लोक कल्याणकारी स्वरूप उसने भी बदलकर लाभकारी स्वरूप अख्तियार कर लिया है. इतने गंभीर संपादकीय के लिए बधाई.
दिलो-दिमाग के सारे तन्त्र खोल देने वाला ज़बरदस्त आलेख। तेजेन्द्र जी का यह आलेख सामाजिक सरोकार से जुड़ा है, उनकी लेखनी और मेधा धन्य हैं। हमने ये तो सुना था कि हमें एक ही टूथपेस्ट स्तेमाल नहीं करते रहना चाहिए, कुछ समय बाद बदलते रहना चाहिए। लेकिन अब यह लाभकारी सम्पादकीय पढ़ने के बाद लग रहा है कि जब सभी में फ़्लोराइड है तो बदलते रहने से भी क्या होगा ?
हमने कभी टूथपेस्ट के कवर पर लिखी चेतावनी पढ़ने की भी कोशिश नहीं की, यह हमारी मूर्खता कहें या आलस्य !!
सम्पादकीय में विभिन्न आँकड़े व हितकारी जानकारी भी देने से यह प्रस्तुति और भी प्रामाणिक हो गयी है।
आदरणीय तेजेन्द्र जी ! हम पाठकगण आपका आभार मानते हैं।
इस विषय में पहले सुना भर था लेकिन आपने विस्तार के साथ वैज्ञानिक तरीके से टूथपेस्ट के प्रयोग पर लिखा है. परन्तु हमारे पास विकल्प नहीं है. इतने वर्षों के बाद नीम की दातून करना मुश्किल है. इसके सकारात्मक विकल्प की पहल होनी चाहिए. सरकार से उम्मीद कम है. सरकार तो टैक्स के चलते गुटखे पर रोक तो दूर इसके विज्ञापनों को भी नहीं रोक पा रही है. निश्चित रूप से आपका यह सम्पादकीय एक जागरुकता पैदा करेगा.
आंखें खोल देने वाला संपादकीय…
काश ! जनता और सरकार दोनों की आंखें खुल जातींं
Congratulations Tejendra ji
Please retrieve my earlier long comment
Originally I had also said Tejendra ji has rendered a great service to the public by warning us against Flouride toothpastes n others which can harm us.
A useful guide to using the right toothpaste.
Thanks to Tejendra ji we shall read the warnings given on the toothpastes too which we usually ignore due to their small print.
This is an eyeopener Tejinder ji. Ione definitely needs to think twice before using just any thing, especially tooth pastes. ,
आँखें खोलने वाला लेख है सर।
पर देखने में आता है छोटे बच्चे टूथ पेस्ट को चाटते हैं कई जगह बच्चों के रोने पर उन्हें खेलने के लिए मां टूथ पेस्ट पकड़ा देती हैं।
अधिकांश घरों में तो बरनोल का काम टूथ पेस्ट ही करता है।
पर पानी और अन्य तरीकों से सरकारों द्वारा जो फ्लोराइड शरीर में पहुंचाया जा रहा है उससे कैसे बचा जा सकता है ये प्रश्न विचारणीय है।
कम ही लोग हैं जो टूथपेस्ट इस्तेमाल करने से पहले उस पर दी गई चेतावनी को पढ़ते हैं।
दंत क्रांति को लोग आयुर्वेदिक टूथ पेस्ट ही मानते हैं।
जनता का जागरूक होना अत्यंत आवश्यक है।
सरकार का …..सरकार ही जाने।
दन्त मंजन या कहें टूथपेस्ट के बारे में आंखे खोल देने वाली तथ्य आधारित इस जानकारी के लिए तेजेन्द्र जी को हार्दिक बधाई। साहित्य से इतर इस प्रकार अन्य विषय पर आपका यह लेख आपकी समाज के प्रति ज़िम्मेदारी की भावना को उजागर करता है।
पतंजलि के प्रोडूक्स को हम लोग आयुर्वेदिक ही मानते हम पर आपने इस दन्तमंजन पर लिखी जानकारी को बारीकी से पढ़ा और हमारे बीच साझा किया। आश्चर्यचकित हूँ कि किस कदर ग्राहकों को धोखा दिया जा रहा है।
मुझे लगता है कि अब हमें मदर नेचर की ओर लौट जाना चाहिए और नीम दातुन का ही प्रयोग करना चाहिए क्योंकि हर प्रोडक्ट में कुछ न कुछ हानिकारक अवयव मौजूद रहते हैं । किस किस से बचा जाए।
हार्दिक आभार राधा।
बहुत ही दिलचस्प और महत्वपूर्ण आलेख। बधाई
हार्दिक आभार रिंकु
बहुत महत्वपूर्ण, बड़ा सवाल सेहत का।
जिसे आप मिस्वाक कहते हैं हमारे देसी भाषा में मुसाग भी बोलते हैं। कुछ पंजाबी लोग भी बोलते हैं श्री गंगानगर में। इसके अलावा एक बार एक खबर पढ़ी थी और सुनी भी थी। जिसमें दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर का कहना था कि जिस पेस्ट में सबसे ज्यादा झाग बने वो इस्तेमाल करते हैं हम तो वही देखकर लेते हैं। नाम तो नही ध्यान पता नही किस विभाग में थे। इसके अलावा हम लोग बचपन में नीम, मिस्वाक आदि ही करते थे। बाबा रामदेव वाले में तो लोग गोबर, मूत्र पता नही क्या क्या बकवास बताते हैं। वो एक दो बार किया दीदी सब सामान पतंजलि का इस्तेमाल करती है इसलिए। उनका मानना है कि भले जो हो कम से कम है तो देश का ही। कोई विदेशी कम्पनी तो नहीं है। यही बहुत सारे लोग का भी मानना है। मैंने जितनी बार भी किया मजबुरी में किया लेकिन कभी मजा नही आया करते हुए। कभी भी नीम करने का मौका लग जाता है आसपास दिख जाता है तो वही करता हूँ। पेस्ट भी मटर के दाने जितना ही इस्तेमाल करता हूँ शुरू से ही। ज्यादा झाग बनाना मतलब ज्यादा सफाई नही होती। घरों में बच्चों को कहते हैं हमारे भी भाई बहन मतलब मेरे भतीजे भतीजी भांजा भांजी को कि झाग बना अच्छे से और ले पेस्ट और ले। भर देते हैं। 4,5 साल की उम्र से ही शुरू हो जाता है ये सब। इसलिए बच्चों को नीम खारा ही लगता है। मुझे तो मजे आते हैं नीम से दांत एकदम चमक जाते हैं। मुंह की बदबू भी गायब हो जाती है
बढ़िया लिखा कुलमिलाकर
भाई तेजेन्द्र शर्मा जी का लिखा हुआ यह संपादकीय जबरदस्त तैयारी और जानकारी पर आधारित है. इसे पढ़कर बहुत समृद्ध हुआ हूँ. केवल लाभ कमाने के चक्कर में कंपनियाँ अपने ग्राहकों के साथ इतनी क्रूरता कर सकती हैं , शायद ही किसी ने सोचा हो.. अपने भगवाधारी बाबा भी आयुर्वेद के नाम पर वही सब बेच रहे हैं जो दूसरी कंपनियों.
सरकार भी अब कंपनी की ही तरह का व्यवहार कर रही है लोक कल्याणकारी स्वरूप उसने भी बदलकर लाभकारी स्वरूप अख्तियार कर लिया है. इतने गंभीर संपादकीय के लिए बधाई.
स्वाथ्य के प्रति जागरूक करने वाली जानकारी दी आपने
बाजारवाद हमें कहाँ ले जाएगा चिंता का विषय है ,पर सम्पादकीय ने नींद तो उड़ा दी है ।
Prabha mishra
दिलो-दिमाग के सारे तन्त्र खोल देने वाला ज़बरदस्त आलेख। तेजेन्द्र जी का यह आलेख सामाजिक सरोकार से जुड़ा है, उनकी लेखनी और मेधा धन्य हैं। हमने ये तो सुना था कि हमें एक ही टूथपेस्ट स्तेमाल नहीं करते रहना चाहिए, कुछ समय बाद बदलते रहना चाहिए। लेकिन अब यह लाभकारी सम्पादकीय पढ़ने के बाद लग रहा है कि जब सभी में फ़्लोराइड है तो बदलते रहने से भी क्या होगा ?
हमने कभी टूथपेस्ट के कवर पर लिखी चेतावनी पढ़ने की भी कोशिश नहीं की, यह हमारी मूर्खता कहें या आलस्य !!
सम्पादकीय में विभिन्न आँकड़े व हितकारी जानकारी भी देने से यह प्रस्तुति और भी प्रामाणिक हो गयी है।
आदरणीय तेजेन्द्र जी ! हम पाठकगण आपका आभार मानते हैं।
इस विषय में पहले सुना भर था लेकिन आपने विस्तार के साथ वैज्ञानिक तरीके से टूथपेस्ट के प्रयोग पर लिखा है. परन्तु हमारे पास विकल्प नहीं है. इतने वर्षों के बाद नीम की दातून करना मुश्किल है. इसके सकारात्मक विकल्प की पहल होनी चाहिए. सरकार से उम्मीद कम है. सरकार तो टैक्स के चलते गुटखे पर रोक तो दूर इसके विज्ञापनों को भी नहीं रोक पा रही है. निश्चित रूप से आपका यह सम्पादकीय एक जागरुकता पैदा करेगा.
बहुत ही ज्ञानवर्धक और अचंभित करने वाला सम्पादकीय