Friday, May 10, 2024
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डॉ. रेनू यादव की कहानी – बा-इज्जत बरी

“आसमान कभी नहीं कहता कि वह धरा से प्रेम करता है लेकिन वह धरा के तपन को महसूस कर बरसने लगता है। वह तब तक बरसता है जब तक कि धरा का मन शांत न हो जाए। इसी तरह धरा कभी नहीं कहती कि वह आसमान से प्रेम करती है। लेकिन कभी समुद्र में उठे ज्वार-भाटा से तो कभी उसके तल से उठते जलवाष्प से, कभी हरीतिमा को लहरा कर तो कभी सूर्य की सारी तपन स्वयं में जज़्ब कर अकथ कहानी से परिचित करवा देती है। आसमान महमह हो उठता है। लेकिन एक स्थिति ऐसी आती है कि जहाँ हवा,पानी,जल सब कुछ समाप्त हो जाता है,मात्र शून्य बचता है। उस शून्य को महसूस करना ही प्रेम है” शून्य में गहरे डूबते हुए स्वरा ने नीरव से कहा ।  
क्राउन होटल के दसवें तल के कमरा नं. 1011 की शीशे की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से बाहर की ओर देखते हुए स्वरा शून्य में डूब चुकी थी। नीरव उस शून्य को विस्तार देना जानता था। किंतु इस समय जरूरी था स्वरा का ध्यान भंग करना। वह देख रहा था ढलती शाम के सिन्दूरी रंग में पूरा शहर डूब चुका है। बादल भी कहीं-कहीं सिन्दूर की रेखाओं से बिंध चुके हैं, तो कहीं-कहीं नीले आसमान में सफेद बगपंक्तियों की तरह तैर रहे हैं। वह चाहता था स्वरा की ऊँगलियों में अपनी उँगलियाँ फँसा कर उन सफेद बगपंक्तियों के साथ तैरना शुरू कर दे। उसने अपने हाथों को स्वरा के हाथों से इस तरह से छुआ दिया जैसे अन्जाने में ही छू गई हों। स्वरा के हाथों से लेकर शरीर तक एक लहर-सी दौड़ उठी पर उसने उसे वहीं मन के अंदर दबा दिया और दृढ़ बनी रही ताकि नीरव को कुछ पता न चल सके। 
‘शून्य के भीतर लगातार चलने वाले शोर को क्या कहोगी?’  
‘जब तक शोर है तब तक अंतर्द्वन्द है, अपेक्षाएँ हैं, वासना है। शोर को शांत होने दो। महसूस करो खुद को। लीन हो जाओ असीम विराट में जहाँ पा सको खुद को। यदि खुद को ढूँढ लिया तब समझना तुम प्रेम में हो।’ 
‘इतने गहरे उतरने के बाद कहीं खुद को खो दिया तो…’ 
‘खुद को नहीं ढूँढ पाये तो समझना तुम्हारी तलाश अभी ज़ारी है। सालों-साल भटकने के बाद ऐसी स्थिरता आती है।’ 
वैसे तो स्वरा आसानी से कभी भी अपनी भावनाओं को स्वर नहीं देती। लेकिन आज न जाने ऐसा क्या था कि, वह बहे जा रही थी। इतना गूढ़ रहस्य नीरव की समझ से परे था। उसके लिए संवेदनशील होना, केयरिंग होना, एक-दूसरे को समझना ही प्रेम है। स्वरा की बातों का उसके पास कोई जवाब नहीं था। उसने मुस्कराती आँखों से पूछा, ‘यहाँ अच्छा लग रहा है?’  
नीरव की आँखों की लालिमा स्वरा के गालों पर उतर आयी, लेकिन अपनी नज़रें खिड़की से बाहर टिकाते हुए उसने कहा, ‘मुझे बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ बहुत पसन्द हैं और…’ 
‘और…?’
‘कुछ नहीं’ 
‘काश! तुम अपने मन की खिड़की से मेरे मन को भी देख पाती’… नीरव मन ही मन सोचते हुए स्वरा की ओर देखते हुए बोला, ‘अपनी पसन्द को पसन्द कहने में बुराई क्या है? क्यों कदम-कदम पर खुद को रोक लेती हो? बहने दो खुद को…’
‘नदी बह तो जाए पर बह कर जायेगी कहाँ? जिसका कोई साहिल नहीं उस नदी की विह्वलता के अंत से डर लगता है?’ स्वरा के होंठ काँपें लेकिन रूक गए। वह खामोशी के दामन में अपनी भावनाओं को जज़्ब कर लेना चाहती थी। वह महसूस कर रही थी नीरव के कंधे पर अपना सर और उसके बाजू को अपने दोनों हाथों से मजबूती के साथ पकड़े हुए। लेकिन बड़ी ही मजबूती से अपने सर को अपनी गर्दन पर टिकाए खिड़की से हट गई।
अब दोनों होटल के गार्डेन में आ गए। वसंत ऋतु अपनी यौवनावस्था के चरम पर है। स्ट्रीट लाइट की मद्धम रोशनी में उनका मचलना साफ दिख रहा है कि गुलाब,डहेलिया,रोज गेरेनियम,गार्डेन गेरेनियम,मैक्सिकन मेरीगोल्ड झूम-झूम कर प्रेमोत्सव मना रहे हैं। स्वरा और नीरव के धीमी गति से पड़ने वाले कदम सूनसान गार्डेन में कँपकपी पैदा कर रहे हैं, फूलों को छूकर आने वाली शीलत हवाओं को स्वरा और नीरव अपने में सोख रहे थे। कितनी तो बातें हैं कहने के लिए पर समझ नहीं आ रहा कि क्या कहें और खामोश होकर आगे बढ़ते रहें, मानों दोनों एक दूसरे की आँखों में झाँकते हुए एक साथ महसूस कर रहे हों – ‘पढ़ना है तो ख़ामोशी को पढ़ना, जो शब्दों का मोहताज़ नहीं।’ एक दूसरे की ख़ामोशी को पीते हुए बातों के बीच-बीच में आए अन्तराल को पी रहे थे। उस अन्तराल में न हवा है,न पानी है,न जल है और न ही कोई रव… 
आखिरकार उन्हें गार्डेन की मखमली घास ने कुछ और देर वक़्त गुजारने के लिए विवश कर दिया। नीरव बैठे-बैठे डहेलिया की लटकती फूलों की कोमल बैंगनी पँखुडियों को छुआ और सहम कर अपना हाथ हटा लिया। फिर उसे एहसास हुआ कि वह स्वरा के होठ नहीं बल्कि डहेलिया की कोमल पंखुडियाँ हैं। उसने पुनः पँखुडियों पर हाथ फेरा और मुस्करा दिया। अब अपना ध्यान डहेलिया से हटाकर स्वरा से पूछा, ‘आज की मीटिंग कैसी रही?’
‘कुछ खास नहीं, इन ब्युटी प्रोडक्ट्स के नए-नए प्रपोजल से ऊब चुकी हूँ’ । 
‘क्यों’
‘खूबसूरती नैसर्गिक होती है, उसे महसूस किया जाता है। रंग-रोगन तो मन को तुष्ट करने का एक साधन मात्र हैं’ 
‘अच्छा ! इसका मतलब अपने प्रोफेशन से धोखा!’
‘सच बताऊँ तो ये ब्युटी प्रोडक्ट्स की कम्पनियाँ औरतों के अंदर सुन्दर होने का ख्वाब जगाती हैं। वे उन्हें महसूस करवाती हैं कि इन क्रीम आदि के माध्यम से तुम सुन्दर लगने लगोगी, तुम्हारे आत्मविश्वास को बल मिलेगा आदि-आदि। लेकिन हमें पता है कि यह कुछ घंटों का धोखा है और उसके बाद वही असल ज़िन्दगी और वही ज़मीनी एहसास… हर औरत काजोल या गौरी ख़ान तो हो नहीं सकती जिनकी ओवर-ऑल पर्सनॉलिटी ही चेंज हो जाये… भारतीय मीडिल क्लास के साथ एक बड़ा छद्म खेल खेलती हैं ये कम्पनियाँ… और हम जैसे लोग पहले बड़े उत्साहित होकर भाग लेते हैं और धीरे-धीरे हम भी उन कम्पनियों का एक हिस्सा बन जाते हैं और सबको धोखा देने में माहिर हो जाते हैं।”
‘ब्यूटी-मिथ बाज़ारवाद का सशक्त हिस्सा है, जिसे तोड़ना आसान नहीं। लेकिन अगर तुम इस जॉब से संतुष्ट नहीं हो तो छोड़ दो।’
‘न छोड़ पाना मजबूरी भी तो हो सकती है।’ स्वरा ने कहते हुए मखमली घास पर अपनी उँगलियाँ फिराईं और नीरव के बालों को महसूस कर सिंहर उठी। 
‘हाँ क्यों नहीं। छोड़ दोगी तो ‘ब्यूटी पर ख़ूबसूरत कहानियाँ और लेख कैसे लिखोगी, आखिर इससे भी तो शोहरत मिल ही रही है?’ चुटकी लेते हुए नीरव ने कहा।
‘असंतुष्ट आत्माएँ ही कुछ बड़ा रचती हैं जनाब’ हँसते हुए स्वरा की गूँज सूनसान वातावरण में फैल गई ।
‘रचो रचो’ नीरव के ठहाके भी स्वरा की हँसी में घुल गये।   
स्वरा को छूकर आने वाली पुरवाई नीरव में सिहरन पैदा कर देती है और सुकून भी। स्वरा न सही उसे स्पर्श करने वाली कोमल शीतल मंद बयार ही सही…  
बहुत बार तो एक-दूसरे से मिलना हुआ था किसी सेमिनार में, मीटिंग में या किसी कम्पनी में या फिर खुद कभी अहमदाबाद से गुजरते हुए किसी रेस्टोरेंट में चाय पीने के बहाने। नीरव स्मार्ट टेक्नो कम्पनी में, सेल्स एक्जीक्युटिव पद पर है और स्वरा सौन्दर्या ब्युटी प्रोडक्ट्स कंपनी में एक रिसर्चर। वह गुणवत्ता की जाँच करती है और स्वान्तः सुखाय कहानियाँ कविताएँ भी लिखती है। लेकिन अक्सर आदर्श और यथार्थ के बीच उलझी स्वरा यथार्थवादी नीरव के साथ फ़ोन पर घंटों प्रोडक्ट्स पर बहस करती हुई पायी जाती है। दोनों के दोस्तों को अब इनकी बहस फ़ालतू लगने लगी थी, इसलिए दोनों में से किसी एक के फोन पर घंटी बजते ही उनके दोस्त उनसे कन्नी काटने लगते। ये पहली बार है जब दोनों एक ही होटल में अगल-बगल ठहरे हुए हैं और दोनों एक दूसरे को इतने करीब से देखते हुए बोल बतिया पा रहे हैं। पर यह आकर्षण पहले से रहा है या अब अचानक… कहना मुश्किल है। दोनों डिनर के बाद वापस अपने-अपने कमरे में चले गए, जहाँ शून्य तो था पर अपने खालीपन के साथ।
सुबह चाय पीने के लिए नीरव स्वरा के कमरे में आ गया। खिड़की के सामने चाय की चुस्कियों के साथ नीरव ने स्वरा की आँखों में झाँका, “कह भी दो जो कहना चाहती हो”   
“कहना तो बहुत कुछ है पर कैसे?”
“वैसे ही जैसे मन में कहे जा रही हो”  
“डर लगता है… नग्नता चाहे मन की हो, तन की हो अथवा विचारों की, आवरण हटने के बाद अपना मूल्य खो देती है” 
‘पर नग्नता में भी एक खूबसूरती होती है’
‘वह तब तक, जब तक उसका उपभोग न किया गया हो’
‘तो फिर उपभोग के बाद किस आकर्षण से लोग वर्षों-बरस खिंचे रहते हैं?’
‘जब तक कुछ और नया पा जाने की तलाश ख़त्म न हो जाए’
‘उसके बाद…’ 
‘नीरसता के साथ रस का दिखावा ही रह जाता है अथवा उच्छिष्ट’ 
‘ऐसा नहीं है, वह वज़ूद का हिस्सा बन जाता है’
‘ऐसा ही है, वज़ूद का हिस्सा लेकर पुरुष साफ़-सुथरा वहाँ से निकल जाता है और औरतें उसे हिस्सा नहीं बल्कि पूरा का पूरा वजूद मान लेती हैं, उनका तो पूरा अस्तित्व हिल जाता है, वह वहीं वर्षों बैठी रहती हैं और वियोग में डूब जाती हैं। स्त्री का यूँ वियोग में डूबे रहना पुरुष को कभी समझ नहीं आता और यदि स्त्री भावुक होकर अधिकार जमाए तो पुरुष के लिए अग्राह्य और असहनीय हो जाता है।’ 
दोनों ने मन ही मन संवाद करते हुए एक दूसरे की ओर देखा और मुस्करा कर चाय की चुस्कियाँ समाप्त कीं। स्वरा ने पूछा, ‘तुम यहाँ से कब निकलने वाले हो?’
‘शाम में ट्रेन है, और तुम?’
‘बस अभी’
‘तुमने बताया नहीं’
‘तुमने पूछा नहीं’
होटल के नीचे रोड पर स्वरा के पति की कार आकर रुकी। उसके दोनों बच्चे पीछे सीट की खिड़की से मुँह निकाल कर झाँक रहे थे। स्वरा ने ऊपर से झाँकते हुए पहचान लिया, ‘मेरे जाने का वक्त आ गया’  
उसने जल्दी-जल्दी अपना सूटकेस बंद किया और पर्स उठा कर जाने के लिए तैयार हो गई।  
मुस्कराते हुए स्वरा रूम का दरवाजा खोल बाहर आ गई, दोनों की नज़रें मिली और नज़रों में शून्य तिलमिला उठा, बादलों में बिजली कड़की और वापस बादलों में ही समा गई। कदमों ने चमकती फर्श के भीतर की धूसर धरती को पहचाना था, धरती झनक उठी, कदम लिफ्ट की ओर बढ़ गए और नीरव की नज़रें उसके कदमों पर टिकी रह गईं । 
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स्वरा के लिफ्ट से उतर कर रिसेप्शन तक पहुँचते पहुँचते अंकिता और विशाल दोनों आकर लिपट जाते हैं, ‘मम्मा’…
स्वरा ने झुककर दोनों को अपने बाँहों में भींच कर सीने से लगा लिया, ‘मेरे प्यारे बच्चे।’ बच्चों की माँ भूल गई कि थोड़ी देर पहले कड़कती बिजली को इन्हीं कलेजे पर बड़ी ही बेदर्दी से झेल गई थी।  
‘मम्मा, पता है हम लोगों ने गोवा में खूब एन्जॉय किया’ विशाल ने कहा, ‘और मम्मा अगली बार से आप जब भी ऑफिस के काम से बाहर जाओगी तब हम यूँ ही डैड के साथ घूमने जाया करेंगे, आप जल्दी-जल्दी ऑफिस के काम से बाहर जाया करो’ अंकिता ने अपने बाल-मन को खोल दिया।
छः साल की अंकिता की बात सुनकर स्वरा और रिसेप्शनिष्ट हँस पड़े। स्वरा ने हँसते हुए कहा, ‘अच्छा, मम्मा को मिस किया?’
‘किया, पर थोड़ा थोड़ा’…।   
अंकिता की बात सुनकर सब हँसने लगे। सामने खड़े विश्वास का विश्वास स्वरा को भेद रहा था वह सकुचा गई। चेहरा मन का आईना होता है या वर्षों संगत का अनुभव जो मन के सात पर्दों में छुपी गठरी को भी ताड़ लेता है। बादल में बिजली फिर से तड़की और लपलपा कर काले बादलों में समा गई। ठिठकी स्वरा को धीरे से गले लगाता हुआ विश्वास गाड़ी की ओर बढ़ गया।   
बादलों के घने जंगल में बिजली राह ढूँढ रही थी। लेकिन अँधकार को चीर पाना उसके वश में नहीं था। वह पलकों के कोटर से निकलने के लिए छटपटाने लगी। प्रेम दो व्यक्तियों के बीच का संप्रेषण हो सकता है किंतु पीड़ा एंकागी होती है । 
आधी रात में धरती के भीतर छिपी झिल्लियों की झन-झन मन को झंकृत कर देती है और अचानक स्वरा की आँखें खुल जातीं। पति और बच्चों को सोते हुए देख मन शांत हो जाता कि वे सुकून से सो रहे हैं। मन होता कि विश्वास को जगा सब कह दे पर कैसे? दूसरे के दिए दुःख को कहना आसान है पर खुद की मोल ली हुई पीड़ा कैसे कहें? आदर्श और नैतिकता के कटघरे से बाहर निकल कर विवाहेत्तर प्रेम को स्वीकार करने मात्र से खुद ही रूह काँप जाती है। फिर जिनके साथ रूह जोड़े बैठे हों उनसे कैसे कहा जा सकता है? स्वीकृति-अस्वीकृति के बीच झूलते मन और तन का भार होठों की कँपकँपी के नीचे ही सहना नियति बन गई। मन में चल रहे अंतर्द्वन्द का तूफ़ान जीवन को प्रयोगशाला बना देता। 
सुबह उठकर रसोईघर से लेकर रात सोने तक स्वरा तूफ़ान को दबाने के लिए उस प्रयोगशाला में नए-नए प्रयोग करती। दिल और दिमाग़ की लड़ाई में दिमाग़ हारता हुआ-सा लगता। लेकिन दिमाग़ का जीतना ही विवाह की भीत्ति को गिरने से बचा सकता था। चालीस-बयालिस की उम्र में प्रेम दिल से नहीं दिमाग से करना चाहिए। स्वरा ने दिमाग को स्थिर किया और भरे-पुरे परिवार के बीच ख़ुद को बहकने से बचाने के लिए ख़ुद से ही तर्क करना शुरू किया। 
प्रेम कोरी भावुकता नहीं बल्कि यथार्थ के काँटों पर बिछी मनोभावों के स्थिरता की चाह है। कोरी भावुकता कोई सार्थक परिणाम नहीं देती। बिना मंजिल के राही बन जाना भी प्रेम है। किंतु ऐसी राह मात्र पीड़ा के अतिरिक्त और कुछ नहीं। 
लगातार तर्क, कुतर्क को जन्म देता और कुतर्क शक्ति को क्षीण कर देता। स्वरा निढाल हो जाती। मन के खेल में मन से मन का मेल न होने पर, आलस्य चरम पर पहुँच जाता। वह नीरव को मन से निकाल कर भी नहीं निकाल पाती और तन से झुलसती जाती। वह मन ही मन प्रतिज्ञा करती कि बस, अब और नहीं। नहीं-नहीं में वह और आत्मीय बन जाता।
क्या सांसारिक प्रेम में पारलौकिक प्रेम का गोपन एक यूटोपिया नहीं? यूटोपिया पर बातें करना, सुनना-सुनाना कितना मनभावन होता है, लेकिन यूटोपिया जीना? जहाँ हवा, पानी, जल सब कुछ समाप्त हो जाता है, मात्र शून्य बचता है। उस शून्य को महसूस करना ही प्रेम है। यह एक यूटोपिया ही तो है। तो क्या यूटोपिया भी भावनाओं में विगलित हो जाता है। चित्त की स्थिरता को सांसारिकता हिला देती है। क्या तन और मन यूटोपिया जैसी अवधारणा को ख़ारिज़ कर देते हैं और बदले में संसर्ग चाहने लगते हैं? 
स्वरा सोसाइटी के गार्डेन में पगचापों को जबरदस्ती दबा मन ही मन संवाद करते हुए टहलती रही। सनसनाती हवाओं का स्पर्श नीरव के हाथों के स्पर्श की सिंहरन बन जाती। बादलों की गड़गड़ाहट मन ही मन संवाद में बदल जाता। दोनों के बीच ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ जिससे इतना बँध जाए। फिर मन कैसे एकाकार महसूस करने लगा। विश्वास से प्रेम-विवाह हुआ था, जिसमें चाहत थी, छटपटाहट थी और एक-दूसरे के बिना न जी पाने का मनोभाव। अब वह कैसे छिटक कर अलग हो गया। क्या दुबारा प्रेम की संभावनाएँ होती हैं? पर ये कैसा प्रेम है जिसमें न वैसी चाहत है, न छटपटाहट है और न ही मरने का कोई भाव। प्रेम जीने की चाह जगा देता है। यह चाहत आत्मा के साथ एकाकार हो कर अधोमुखी से उर्ध्वमुखी बन जाती है। स्वरा जितनी भीतर है उतनी ही बाहर। कौन है स्वरा??? स्वरा देह है या आत्मा, प्रेम है या वियोग, जीवन है या मृत्यु, धरा है या आसमान, कण है या पूरी सृष्टि !  
आसमान बारिश के पैरहन से धरा को ढक लेता है, धरा कहीं गुमसुम सी है, उसमें सिकुड़ कर समा जाना चाहती है। स्वरा घर की बड़ी खिड़की से बाहर पैरहन में सिकुड़ी धरा को अनमनी सी देख रही है। कितने दिन हो गए उसने नीरव से बात नहीं की। देह से परे मन से मन का मिलन एकतरफा होता है जो शायद नीरव को महसूस नहीं होता।   
न जाने कब से विश्वास बगल में खड़ा ये सब देख रहा था और इंतज़ार कर रहा था कि उसकी तंद्रा टूटे। स्वरा को इस तरह बेआस देख उसने खुद ही उसे गले से लगा लिया। स्वरा की आँखें झरझरा उठीं, “जिसके साथ ज़िन्दगी बितानी हो उसे कभी धोखा नहीं देना चाहिए…” । विश्वास उसके माथे को चूमते हुए उसे शांत करने का प्रयास करने लगा, ‘क्या हो गया, सब ठीक तो है?’ 
‘सॉरी’
‘किस बात के लिए?’
नैतिकता के चाकू से अंतर्मन को बड़ी ही चुप्पी से चीर दिया जाता है और अनैतिकता का भय मुखौटा को जन्म देता है। आख़िर वह कैसे बताती कि सूरत के जिस स्मार्ट टेक्नो कम्पनी में विश्वास मुख्य वित्तीय अधिकारी यानी सी.एफ.ओ. है, उसी कंपनी के सेल्स एक्जीक्यूटिव के साथ वह अब भी क्राउन प्लाजा के कमरा नं. 1011 में खिड़कियों के सामने खड़ी है। वह अब भी स्ट्रीट लाइट की मद्धम रोशनी में उसके साथ गार्डेन में टहल रही है। मन-तन को लाँघ गया है और दूर कहीं आसमान में बादलों की बगपंक्तियों के साथ उड़ रहा है।
तन से परे मन का हो जाना विश्वास के साथ छल है या खुद के साथ… यह समझना मुश्किल है। वह रिश्तों की परिधि के अंतर्द्वन्द की अग्नि में दहकते हुए ऑफ़िस ज्वॉइन करने का निर्णय लेती है। जहाँ उसकी अपनी नौकरी होगी, रिसर्च होगा और वह ख़ुद…।  
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प्रेम बहता दरिया है, दरिया साहिल को जोड़ता है। लेकिन प्रायः साहिल को जोड़ते हुए भी वह खुद प्यासा रह जाता है। ग्लास में पानी लिए खड़ी शैव्या को देखते हुए नीरव ने सोचा और ग्लास पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया। हाथ शैव्या के हाथों से स्पर्श हुए पर इस स्पर्श के सूनेपन ने स्वरा के हाथों के स्पर्श का एहसास दिला दिया। एक स्पर्श के सहारे पूरी ज़िन्दगी गुजार देने का मन हो, क्या चातक पक्षी में भी स्वाति नक्षत्र के लिए यही एहसास भरा होगा ? 
नीरव एहसासों में खो गया। लेकिन नीरव के हाथों का सूनापन शैव्या के आँखों में उतर आया। वह वापस मुड़कर किचन में चली गई। चार सालों से किचन में गुजरती ज़िन्दगी सिर्फ नीरव की खामोश मुस्कराहट के पीछे एक दिन ठठाकर हँस देने की चाह थी। किसी दिन तो वह खुल कर हँसेगा और कहेगा तुमने आज खाना अच्छा बनाया है या आज खाना बहुत बुरा बना है। शिकायतें न करने वाला इंसान क्या सचमुच प्रेम में होता है या परिस्थितियों से पलायन करता हारा हुआ होता है, यह शैव्या के लिए समझना मुश्किल है। अक्सर ऐसे लोग विवाह में कन्फ्युज़न पैदा करके रखते हैं, जिससे एक भ्रम बना रहे प्रेम का, आपसी समझदारी का और निभ जाने का। हमेशा एक ही भाव में रहने वाले व्यक्ति से बचकर रहना चाहिए। क्योंकि वह मनुष्य होने से वंचित होता है। शैव्या ने सोचा और चाय में डालने के लिए अदरक ज़ोर-ज़ोर कूटने लगी। कुटनी छटक कर अलग हो गई और शैव्या हाँफने लगी।        
चार साल पहले जब माता-पिता के कहने पर नीरव ने विवाह किया था,तब उसके माता-पिता थोड़े आश्वस्त हो गए कि अड़तीस की उम्र में ही सही, विवाह तो किया। तब से लेकर अब तक, नीरव तराजू के पलड़े में बैलेन्स बनाने की कोशिश कर रहा है कि कितना पलड़ा झुकेगा तो विवाह और माता-पिता दोनों खुश रह सकेंगे। हाँफते हुए उसने शैव्या को देखा और प्यासी नदी को पकड़ कर पास की कुर्सी पर बैठा देता है। आज वह पहली बार नदी की प्यास को समझ पा रहा है और उस खालीपन के जकड़न को भी, जिससे शैव्या आज तक जकड़ी हुई है। जैसे स्वरा की एक छुअन ने उसमें चेतना भर दी थी, इसीलिए वह शैव्या को समझने में सक्षम हो गया है। उसने शैव्या के काँपते कंधे पर हाथ रख दिलासा दिया और वहाँ से चला गया । 
महिनों बीत गए, नीरव स्वरा को भूलने की कोशिश में शैव्या के करीब पहुँचने लगा। स्वरा भूली कहाँ थी वह तो आत्मा का अभिन्न हिस्सा बन गई थी। शैव्या देह थी जिसमें स्वरा की आत्मा प्रवेश करती और छटपटाकर बाहर निकल आती। शैव्या को भी कहाँ पता था कि वह देह भर है उसे तो नीरव में बदलाव महसूस होने लगा था। पहले नीरव मुस्कराकर अपने काम में व्यस्त हो जाता था। लेकिन अब तो वह थोड़ी-बहुत बातें करने लगा है। आखिर अब नीरव उसका ख़्याल रखने लगा है, प्रेम का यह भी तो एक तरिका है। कम बोलने वाले प्रेम को जताने में भी कमी करते हैं।  
शैव्या को ख़ुश देख कर नीरव के मन में यह प्रश्न बार-बार कुलबुलाने लगा कि क्या नारी-मन को समझने के लिए किसी अन्य नारी का संसर्ग जरूरी है? तीन-चार सालों में वह शैव्या को क्यों नहीं समझ पाया? उसका खालीपन, उसका दर्द, उसका तनाव या उसके अंदर प्रज्वलित प्रेम, उसकी देह की भाषा? क्या वह स्वरा को जानने के बाद शैव्या को जान पा रहा है या शैव्या को जानने के बहाने स्वरा को समझने का प्रयास कर रहा है? सारे प्रश्न गड्डमड्ड हो गए । इसी चक्कर में उसने अपना फ़ोन अपने से दूर कर दिया था, यदि फ़ोन उठाता भी तो सिर्फ़ काम के लिए। अचानक उसके मन में एक कचोट-सी उठी और अपने फ़ोन का कॉल रिकॉर्ड्स तथा मैसेजेस देखना शुरू किया। स्वरा के कुछ कॉल्स और ‘प्लीज़ कॉल’ के मैसेजेस पड़े थे। वह झट से ऑफिस जाने के लिए तैयार हो गया। शैव्या डाइनिंग टेबल पर नाश्ता लगा ही रही थी कि वह उसे देख कर भी अनदेखा कर निकल गया। मोम बनी शैव्या ने बारिश की पहली फुहार से उठी सोंधी मिट्टी की गंध को झूठा महसूस किया और साँसों की तारों में बहती मधुर वायलिन की ध्वनियों की झंकार को अपनी आँखों से टूटते हुए देखा। सामने वाला आपको धोखा बाद में देता है, दरअसल हम ख़ुद को पहले धोखा देते हैं। यह जानते हुए भी कि जिससे आप जुड़ने की कामना से जुड़ रहे हैं, वह आपसे नहीं जुड़ा है, यह ख़ुद को धोखा देना ही तो है। शैव्या ने सोचा और गुमसुम हो आयी। 
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ऑफिस के तीसरे तल की खिड़की की बालकनी के गमले में लगे फूलों पर कुछ तितलियाँ उड़ते-उड़ते बैठ जातीं, कुछ देर बाद उड़ जातीं और थोड़ी देर घूम-फिर कर पुनः उन फूलों पर बैठ जातीं। उनका मकसद सिर्फ फूलों का रसपान है या किसी चीज़ की तलाश… किस तलाश में भटक रहे हैं हम सब? स्वरा ने तितलियों को ध्यान से देखते हुए सोचा और फोन की घंटी से उसका दिल धक् से हो गया। नीरव का कॉल! एक एहसास जिसे वह जी रही है और नीरव भूल चुका है। उसका कॉल उठाना क्या ख़ुद को धूमिल करना नहीं है? वह सोचती रही फोन की घंटी बजनी बंद हो गई। उसने फ़ोन में नीरव का नाम देखा और सोच में पड़ गई कि क्या अपनी साँसों को भूल कर भी भूला जा सकता है? उसने नीरव को कॉल बैक किया और दोनों ने सीसीडी में मिलने का प्लॉन बनाया।  
बादलों ने आसमान में तहलका मचा रखा था। लेकिन बूँदें छलकने को तैयार न थी। नीरव बेहद उत्साह में एक घंटा पहले ही अपनी कंपनी के सामने वाले सीसीडी में पानी की बॉटल ऑर्डर कर बैठ गया। वह जानता था कि स्वरा को कैपेचीनों बहुत पसंद है। आज दोनों मिलकर एक साथ कैपेचीनों पियेंगे और उसके साथ ही आज मन के भंवर में फँसी तितलियों के पंखों के रंगों को सामने रखेंगे और कहेंगे, देखो… ये मेरा रंग है और ये तुम्हारा… और अब दोनों को मिलाकर एक कोलाज बनाते हैं । 
ठीक डेढ़ बजे कैपेचीनो ऑर्डर कर दिया। डेढ़ से दो, दो से तीन बज गए। स्वरा नहीं आयी। कैपेचीनों सामने पड़ा-पड़ा ठंडा हो गया। आज नीरव अपने हाथ में स्वरा की कहानियों की किताब ले आया था। प्रेमिका की लिखी किताबों का पूरा होना प्रेमी को अधूरा छोड़ देता है। अधूरापन सदियों तक जकड़े रहने की प्यास बढ़ाता है। नीरव ने उदास मन से कैपेचीनों के दोनों कप को सहलाया और बिल पे कर बाहर निकल आया।  
आसमान में जैसे काई जम गई हो और आँधी की धुँध में नीरव ने नीले रंग की अस्त-व्यस्त साड़ी में लिपटी एक महिला को पुलिस वैन के पीछे बदहवास भागते हुए देखा। उसकी आँखों में उड़ती हुई धूल समा गई, उसने आँखों को रुमाल से साफ किया और फिर से महिला को ध्यान से देखा – हाँ, वह स्वरा ही है। वह स्वरा की ओर दौड़ पड़ा और लड़खड़ाती स्वरा को अपनी बाँहों में थाम लिया। डोर से कटकर पतंग की भाँति गिरती स्वरा को नीरव के सहारे ने सम्बल दिया। वह अहक-अहक कर रो पड़ी ।  
विश्वास कम्पनी में हुए आर्थिक गबन के आरोप में अरेस्ट हो गया था। स्वरा जिस समय नीरव से मिलने सीसीडी पहुँची थी, उसी समय कम्पनी के सामने पुलिस की भीड़ देख कर ठिठक गई। धीरे-धीरे आँखों के सामने कम्पनी का मंजर था, फिर अधिकारियों का और उसके बाद एकमात्र विश्वास का। क्या सचमुच विश्वास ऐसा कर सकता था? यह स्वरा के लिए अविश्वसनीय था। तत्काल अरेस्ट वांरेट को देख कर वह घबरा गई। वह कम्पनी के अधिकारियों से उसे बचाने की गुहार लगाती रही। लेकिन किसी ने उसकी एक न सुनी। सवाल यह था कि इतनी बड़ी कम्पनी में सी.एफ.ओ. विश्वास अकेले इतना बड़ा गबन कैसे कर सकता था?
आसमान से छटपटाती बिजली धरा पर गिर पड़ी थी। धरा में उभरी खाई को पाटने के लिए नीरव ने दिन रात एक कर दिया। उसने सच का पता लगाने के लिए कम्पनी में तफ़्तीश करना शुरू कर दी । 
स्वरा बच्चों की देखभाल करती, उसके बाद ऑफिस फिर कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाती। इसी बीच विश्वास से भी मिलने जाना होता। नीरव पग-पग पर स्वरा के साथ खड़ा रहता। विश्वास को ज़मानत दिलाने के लिए नीरव तमाम कोशिशें करता रहा। उसे अपने सूत्रों से पता चला कि इस गबन में बड़े-बड़े अधिकारियों का हाथ है, जिनके दबाव में विश्वास काम करता था। लेकिन जब फँसने की बारी आयी तब सबने इल्ज़ाम सी.एफ.ओ. के मत्थे मढ़ दिया और अपने आपको बेदाग साबित कर लिया। हो सकता है जाँच में और छोटे-बड़े अधिकारियों कर्मचारियों के नाम भी सामने आयें।  
नीरव ने स्वरा को अधिकारियों से जुड़े कुछ तथ्य सौंप दिए, लेकिन विश्वास का नाम नहीं ले पाया। स्वरा मरुस्थल में पानी की कुछ बूँदें देखकर बेहद कृतज्ञ भाव से उसे देखती रही। उसने काँपते होठों से कहा, ‘न जाने किन शब्दों में मैं तुम्हारा आभार व्यक्त करूँ?’
‘किसी भी शब्द में कर दो’ हँसते हुए नीरव ने स्वरा को हल्का महसूस करवाना चाहा। 
‘काश! मैं सबको बता सकती कि तुम मेरे लिए क्या हो… कभी-कभी मन करता है, मैं शहर के हर पत्थर पर तुम्हारा नाम अंकित कर दूँ जो सदियों तक तुम्हारे निःस्वार्थ प्रेम की गवाही दे सकें…’ 
‘विवाहेत्तर संबंधों के प्रेमियों के नाम शीलालेखों पर अंकित नहीं होते जनाब’ मुस्कराती आँखों से नीरव ने स्वरा को देखते हुए पास में खड़ी ऊँची इमारत की ओर देखा।
‘तुम मेरे जीवन का वह पन्ना हो जिसे मैं न तो अपनी ज़िन्दगी की डायरी में शामिल कर सकती हूँ और न ही फाड़कर फेंक सकती हूँ’ । स्वरा के चेहरे पर गहरा विषाद छा गया। 
‘तो फिर अपने साथ थोड़ा फड़फड़ाने का समय दे दो’ वह हँस पड़ा और उसकी हँसी के साथ स्वरा भी स्मित हो आयी। 
 
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कंपनी के अधिकारियों को नीरव के द्वारा की जा रही व्यक्तिगत तफ़्तीश का आभास हो गया। अब नीरव भी उनके ट्रैप में था और अचानक एक दिन वह विश्वास के बगल वाले बैरक में पाया गया। स्वरा ने अपने हृदय में बलुआई मिट्टी को देखा जिसे कितनाभी नम करें सूखी ही लगती है। पर ख़ास बात है कि बलुआई मिट्टी बर्रा कर फटती नहीं वह फफस जाती है, बिखर जाती है। स्वरा भी विश्वास-अविश्वास की नमी में सूख रही थी और बिखर रही थी। नीरव के खिलाफ़ पुख़्ता सबूत नीरव को दोषी साबित कर रहे थे और दिल सबूत नहीं अपनापन जानता है। दिल दिमाग़ का अतिक्रमण कर सकता है पर दिमाग तथ्यों के साथ दिल को मात देता है। तो क्या नीरव…?
कोर्ट में अगली सुनवाई की तारिख आने वाली थी। कई दिनों तक कंपनी के सी.ई.ओ., सी.एम.ओ. से मिलने के लिए भटकने के बाद उसने फैसला किया कि अब सीधे कंपनी के एम.डी. के घर जायेगी। कई अप्वॉइन्टमेंट कैंसिल होने के बाद बड़ी मुश्किल से एम.डी. के घर पर मिलने के लिए एक अप्वॉइन्टमेंट मिल पाया । 
स्वरा बड़े से हॉल में झक्क सफ़ेद सोफे पर घबराई-सी बैठी हुई थी। करीब आधे घंटे के इंतज़ार के बाद एम.डी. नरेश सक्सेना का आना हुआ, कान तक फैली मुस्कान से नरेश सक्सेना बोल पड़े, “देखिए कोई भी इंसान ब्लैक एंड ह्वाइट नहीं होता। सब ग्रे शेड्स होते हैं।’  
‘…..’
‘स्वरा जी, हमारी पूरी संवेदना आपके साथ है। बच्चों को पिता की जरूरत तो है ही।’
‘जी’
‘तो पहले डिसाइड कर लीजिए कि पति को बचाना है या प्रेमी को’
‘मतलब’ ! स्वरा चौंक गई 
(कुछ देर चुप्पी साधने के बाद) ‘खैर, आपके पति बेगुनाह हैं। आपके पति ही हमारी कंपनी के लिए ज्यादा फायदेमंद साबित होंगे। अब निश्चय आपको करना है।’
 
स्वरा के विश्वास की लड़ियाँ टूटकर बिखर गईं, वह लड़ियों की मोती को जल्दी-जल्दी चुनकर फिर से पिरोना चाहती थी। लेकिन बिखर जाने के बाद सिमटा तो जा सकता है समेटना आसान नहीं होता। तो क्या विश्वास पर विश्वास एक भूल थी या यह पदाधिकारियों की कोई साजिश है? स्वरा ने सोचा और फ़ोन पर वकील से विश्वास और नीरव से मिलने के लिए अप्वॉइंटमेंट लेने के लिए कहा और ख़ुद अपने ऑफिस निकल गई। 
  
प्रकृति-प्रदत्त आँधी से बचा जा सकता है लेकिन मन में चल रहे आँधी को दबाना मुश्किल होता है। स्वरा आँधी से बचने के लिए लड़ रही थी, उसी समय विश्वास एक नए आत्मविश्वास के साथ सामने आया, ‘कैसी हो और बच्चे कैसे हैं?’
‘ठीक’ – स्वरा विश्वास को एकटक देखे जा रही थी, जैसे उसने पहली बार विश्वास को देखा हो ।
‘क्या हुआ’ स्वरा का एकटक देखना विश्वास में भय पैदा कर देता है। 
‘मैं तुम पर विश्वास कर सकती हूँ न’
‘तुम परेशान न हो। कुछ डाक्यूमेंट बाकी हैं, फिर मुझे जमानत मिल जायेगी। उसके बाद लड़ते रहेंगे केस… डरने की कोई बात नहीं’ विश्वास ने उसे विश्वास दिलाया। 
वह विश्वास का आत्मविश्वास लेकर चल दी। अपने दोनों मासूम बच्चों की आँखों में अपने पिता के लौटने का विश्वास उसे कचोट रहा था। बच्चों की परवरिश माता-पिता की छाँवों का मेल होता है। दोनों में से किसी एक की कमी का अनुभव जीवन को कुछ संवेदनाओं से वंचित कर सकता है। आख़िर इसे भी तो विश्वास का साथ चाहिए। यदि विश्वास रिहा नहीं हुआ तो… ? 
 
घड़ी ने टन से एक बजने की सूचना दी, स्वरा की नज़रें साफ़ नीले आसमान की ओर उठीं और नीरव से मिलने चल दी। वह विश्वास से मिलने कई बार आयी थी पर नीरव से मिलने पहली बार पहुँची है। नीरव ने विश्वास के गिरफ्तार होने के बाद उसका निःस्वार्थ भाव से साथ दिया था उसी नीरव से इतने दिनों तक वह मिलने क्यों नहीं आई?  इसका जवाब खुद भी उसके पास नहीं था। दोनों एक दूसरे की खामोशी को पी रहे थे। मिलने का समय बीत गया, अंततः नीरव ने चुप्पी तोड़ी, ‘तुम चिंता मत करो, विश्वास छूट जायेगा और बेगुनाह भी साबित होगा।’
स्वरा ने धरा को डबडबाई आँखों से देखा और सीता की तरह मन ही मन धरा को फट जाने के लिए कहा। कलयुग में धरा निष्ठुर है या स्वरा सीता नहीं, ‘तुमने मुझे ‘उसने कहा था’ कहानी की सूबेदारनी समझ रखा है क्या…?’ उसने दृढ़ता से कहा और वहाँ से लौट आयी।
       
कोर्ट में अगली सुनवाई से पहले स्वरा वकीलों के साथ मिलकर सबूत इकट्ठे करती रही। उसे भूल गया था कि उसकी कुछ जिम्मेदारी नीरव के परिवार के लिए भी बनती हैं। विश्वास के माता-पिता का फ़ोन पर ख़याल रखने वाली स्वरा नीरव के बेहद लाचार माता-पिता को कैसे छोड़ सकती है? बिना कुछ सोचे-समझे नीरव के घर की ओर बढ़ गई…  
 शैव्या की करिखाई आँखें और चेहरे की झुर्रियाँ बेदर्द रतजगे की कहानी सुना रही थीं। नीरव की मित्र के आने खुशी में उसने नीरव के आने की खुशी महसूस की और फिर अचानक रुँआसी हो आयी, ‘पता है दीदी, जब-से ये अहमदाबाद से लौटे थे… (लम्बी खामोशी)… शादी के चार सालों में पहली बार मुझे लगा कि सचमुच, मैंने अपने पति को पा लिया है। लेकिन देखिए ना…’ 
‘मैंने अपने पति को पा लिया है’ यह वाक्य स्वरा के मन को कभी मधुर हिलोरों से भर देता तो कभी टीसती टीस अन्दर तक बेध देता। उसने क्षितिज की ओर देखा और अपने रिश्ते को महसूस किया। तो क्या दोनों का रिश्ता क्षितिज की भाँति है? 
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आज कोर्ट में सुनवाई है, जमानत की संभावना भी है। स्वरा सुबह की किरणों के जागने से पहले ही घर के सारे काम निपटा कर बाहर लॉन में तथ्य, सत्य और कर्तव्य के बीच उलझी टहल रही है। अक्सर सत्य धुँधले में होता है और समाज की सीख के कारण कर्तव्य, सत्य पर भारी पड़ जाता है। वह उगना चाहती है, सत्य की तरह, जैसे उग रहा है आसमान में सूरज, ‘सुबह की किरणें तुम्हारी ही तो मुस्कराहटें हैं, ये गुलाबी फूल तुम्हारी मुस्कराती गुलाबी आँखें हैं, हवाओं का स्पर्श तुम्हारा आलींगन है और भौरों का गुँजन तुम्हारी बातें। तुम कितना कम बोलते थे पर कितनी सच्ची हुआ करती थीं तुम्हारी बातें। आज वे सच्ची बातें ही मेरे जीने का आधार हैं। तुम्हारे होने का एहसास ही मेरे जीने का सम्बल हैं…। आज न जाने क्या फैसला होगा, तुम कहाँ होगे और मैं कहाँ…? पर इतना जानती हूँ कि हम होंगे इसी शून्य में… जहाँ न हवा है, न पानी है, न जल है और न कोई रव…’  
‘मम्मा… मम्मा, आज डैड घर आ जायेंगे न’ की आवाज़ से उसकी तंद्रा टूटी। उसने निरीह भाव से शावकों को अपने पास दौड़ कर आते हुए देखा और आँखों में दुनियाँ की सारी नमी सोख उन्हें गले से लगा कर मन ही मन सोचने लगी, ‘मैं जानती हूँ हम सबको उन्हीं की जरूरत है। हम सब उनसे ही पूरे होते हैं। मैं तुम्हारे पिता को वापस ले आऊँगी, जरूर ले आऊँगी।’ 
 
शाम को स्वरा अपनी चाभी से घर का दरवाज़ा खोलकर चुपचाप प्रवेश करती है। मन में बहुत हलचल है, उन हलचलों को पार कर वह एक लम्बी नींद सोना चाहती है। आज सबसे पहले उसे माँ की याद आयी जिसने अपने पति को परमेश्वर मान उनके हर सही-गलत फैसले में साथ दिया था। उसके बाद नानी की याद आयी जिन्होंने नाना की शैया के साथ लगकर प्राण त्याग दिया था। उसने दादी को याद किया जो दादा जी के न रहने पर संतों जैसा जीवन जी थीं। उसके बाद उसने दिन भर में पूरे ब्रह्माण्ड की परिक्रमा की। ब्रह्माण्ड में वह पार्वती,लक्ष्मी,सरस्वती,रति,सीता,राधा, सावित्री सब से एक-एक कर मिली। वह उन सभी मिथकीय माताओं को जवाब देना चाहती थी कि स्वरा में उन्हीं के दैवीय गुण हैं, जिन्होंने सदियों से घुटन की हजारों ज़हरीले घूँट पी कर पवित्र सतित्व की छाप छोड़ी हैं और उन्हीं के पदचिन्हों पर चलकर तमाम स्त्रियाँ अपने सतित्व का प्रमाण देती आयी हैं। वह चलेगी, हाँ लड़ेगी सत्य-असत्य की लड़ाई। लेकिन सवाल उन माताओं से है कि यदि ये माताएँ आज स्वरा की जगह पर होतीं तो कौन-सा रास्ता अपनातीं– सत्य का,असत्य का,धर्म का,नैतिकता का या मात्र मानवता का? 
हज़ारों रास्तों से गुजरते हुए उसने वकील को सारे सबूत सौंप दिए। उन सबूतों के आधार पर ही विश्वास और नीरव में से किसी एक की बेगुनाही साबित होनी थी। उसने उन्हें बता दिया कि आज वह कोर्ट नहीं आ सकेगी। सच तो यह है कि आज के दिन के लिए उसने पहले से ही छुट्टी ले रखी थी, पर आज उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वह कोर्ट जा सके। वह सियाराम के मंदिर में बैठकर अपलक पतिव्रता सीता को देखती रही। सीता तो धरती में समा गई थीं, फिर राम के साथ उन्हें खड़ा क्यों किया गया है? क्या वह राम के साथ खड़े होने पर ही वंदनीय मानी जायेंगी? स्वरा को घुटन होने लगी और वह मंदिर से बाहर आकर धरा की गोद में बिछी मखमली घास पर निढ़ाल हो गई।    
 
कोर्ट में फैसले के बाद वकील के फ़ोन पर कुछ वाक्य सुनकर वह उठी और सीधे घर चल दी। दोनों बच्चे टी.वी. पर कोर्ट का दृश्य बड़े ध्यान से देख रहे थे, ‘सबूतों और गवाहों के आधार पर रामलाल को ‘बा-ईशइज्ज़त’ बरी किया जाता है।’ 
माँ की आहट से दोनों बच्चे आकर गले लग जाते हैं, ‘मम्मा, डैड भी क्या बा-इज्ज़त बरी हो गए?’
‘…’ स्वरा ने दोनों को अपने में ज़ोर से भींच लिया ।
‘बोलो न मम्मा, कौन बरी हुआ’
‘जो बेगुनाह है, वही ‘बा-इज्ज़त’ बरी हुआ’ स्वरा की पलकों की कोटर चू पड़ी । 
डॉ. रेनू यादव 
असिस्टेंट प्रोफेसर
भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग (हिन्दी)
गौतम बुद्घ विश्वविद्यालय
यमुना एक्सप्रेस-वे, गौतम बुद्ध नगर
ग्रेटर नोएडा 
पिन – 201312
ई-मेल – renuyadav0584@gmail.com
फोन – 9810703368
डॉ. रेनू यादव
डॉ. रेनू यादव
भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग (हिन्दी), गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा में फैकल्टी एसोसिएट हैं. कविता, आलोचना आदि की पुस्तकें व कई शोध-पत्र प्रकाशित. स्त्री-विमर्श पर केन्द्रित कहानियाँ, कविताएँ एवं शोधात्मक आलेख आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. संपर्क - renuyadav0584@gmail.com
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